शेख उस्मान मुस्लिम धर्म के ख्याति प्राप्त विद्वान थे। उन्होंने अपने उस्ताद निजामुद्दीन औलिया से अनेकों मानवोचित गुणों का प्रशिक्षण प्राप्त किया था। शेख उस्मान का कुरानशरीफ पर अच्छा अधिकार था। मानव की सेवा ही उनके जीवन का प्रमुख अंग था। अपने संपर्क में आने वाले व्यक्तियों को वे सदा धर्मानुकूल आचरण करने का ही परामर्श देते रहते थे।
शेख उस्मान यह भी नहीं चाहते थे कि अपनी सेवाओं के बदले समाज से रोटी, कपड़ा प्राप्त किया जाये। वह सुबह शाम एक−एक घण्टे के लिए सड़क के किनारे अपनी छोटी सी दुकान लगाकर बैठ जाते और शलगत, चुकन्दर, आलू आदि की सब्जी बनाकर बेच देते। जो कुछ पैसा प्राप्त हो जाता उसमें उनके परिवार का पालन−पोषण हो जाता। यदि कोई व्यक्ति उन्हें खोटा सिक्का दे जाता तो भी वे उसे जान−बूझकर रख लेते और उसके बदले में सब्जी दे देते। वह अच्छी तरह जानते थे कि यदि मुद्रा चलन में एक भी खोटा सिक्का है तो वह आ जाता है तो वह धोखा देकर किसी व्यापारी को चलना चाहता है। व्यापारी अपनी ग्राहक को भेड़ता है इस तरह एक व्यक्ति दूसरे को और दूसरा तीसरे को देकर अपना उल्लू सीधा करना चाहता है।
शेख उस्मान के पास पहुँच कर खोटा सिक्का आगे न बढ़ता था। वह उसे अपने पास रख लेते थे। उनके इस व्यवहार से लोगों में यह धारणा बन गई थी कि शेख को खोटे−खरे सिक्के की परख नहीं है। परिणामस्वरूप जब तब अनेक व्यक्ति खोटा सिक्का लेकर आते और बदले में अच्छा सिक्का ले जाते या छुट्टे कराकर उसके पैसे ले जाते।
शेख का जीवन समाप्त होने को आया। अन्तिम दिन खुदा बन्द करीम की याद करते हुये आकाश की तरफ मुँह करके बोले—’मेरे परवर्दिगार! तुझसे मेरी स्थिति छिपी नहीं है। लोग मेरे पास खोटे सिक्के लेकर आया करते थे मैं बदले में उन्हें हमेशा सब्जी देता रहा। किसी का खोटा सिक्का मैंने वापिस नहीं किया। सम्भव है तेरे इस नाचीज बन्दे से भी कितने खरे बन्दे होंगे उनमें मुझ जैसा एक खोटा बन्दा भी कहीं पड़ा रहेगा। मेरे रहीम! मुझ पर रहम करना।’