यूनान के प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात एक सभा में भाषण दे रहें थे। श्रोतागण एकाग्रचित्त हो उनके विचारों को सुन रहें थे। अचानक सभा के मध्य से एक व्यक्ति उठा। मंच के पीछे से घूम कर आया। उसने सुकरात की पीठ पर कसकर एक लात मारी।
सभा में भगदड़ मच गयी। भीड़ बौखला उठी। लोग चिल्लाने लगे। ‘पकड़ो−पकड़ो! मारों, भागने न पाये, सामने से घेर कर इधर लाओ।’ लोगों के हाथ में कही वह युवक आ जाता? तो उसे जान से मार देते। बड़ी बुरी दशा होती उसकी। सुकरात ने उसकी जीवन रक्षा ही नहीं की वरन् सभा को शाँत करने का भी प्रयास किया। लोगों को धैर्य बंधाया और अपनी बात जहाँ से छोड़ी थी वही से शुरू कर दी। लोग इतने से सन्तुष्ट होने वाले कहाँ थे? बीच में ही खड़े हो गये और कहने लगे ‘पहले आप उस दुष्ट का फैसला कीजिए। अन्यायी को बिना दण्ड दिये छोड़ना उसकी दुष्प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन देना है। आपने उसे न बचाया होता तो उसकी अच्छी−खासी मरम्मत हो जाती!’ सुकरात ने उनकी बात को ध्यान पूर्वक सुना और उसी विषय पर बोलते हुए भाषण के क्रम को आगे बढ़ाया—बन्धुओं! यदि कोई गधा आपको लात मारता है तो क्या यह आवश्यक है कि आप भी उस गधे लात मारे?’