बहुपत्नी और बहुपति प्रथा के समर्थन में अजीब तर्क

December 1974

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इन दिनों एक पति और पत्नी का सिद्धान्त सही माना जाता है और सम्भव भविष्य में भी यही उपयोगी भी सिद्ध होता रहे, पर संसार में प्रयाग इस पद्धति से भिन्न प्रकार के भी होते रह हैं और उनका सिलसिला अभी भी जारी है समय ही बतायेगा कि बहुपति या बहुपत्नी प्रथा में कुछ वैसा भी है या नहीं जैसा कि उनके समर्थक दलील प्रस्तुत करते हैं।

बहुपत्नी प्रथा का प्रचलन भूतकाल में रहा है। महर्षि याज्ञवल्क्य के दो पत्नियाँ प्रसिद्ध हैं। रामकथा के गायक जानते हैं कि दशरथ जी के तीन पत्नियाँ थी। पाण्डु की दो पत्नी कुन्ती और माद्री प्रसिद्ध हैं। भगवान कृष्ण के कई पत्नियाँ थीं। इस प्रकार के उदाहरणों से भारत का पौराणिक साहित्य भरा पड़ा है।

बहुपत्नी प्रथा के समर्थ एक बड़े .कुटुंब का द्रुतगति स निर्माण— एक समर्थ व्यक्ति के आश्रय में अनेक सन्तानों के विकास की सम्भावना−स्त्रियों में आधिपत्य वृत्ति और ईर्ष्या की संकीर्णता से आगे बढ़कर सामूहिक भावना का विकास जैसे लाभ गिनाये जाते हैं। इनके पक्ष और विपक्ष में बहुत कुछ कहा जा सकता है। यह शोध का विषय है कि प्रेम−भावना का क्षेत्र कइयों तक बिखर जाने से स्नेह, सद्भाव घट जाते हैं। स्त्री बच्चों पर समुचित ध्यान नहीं दिया जा सकता। दाम्पत्य जीवन के बिखराव में नीरसता आ जाती है और पति−पत्नी में से किसी को किसी पर पूरा भरोसा नहीं रहता।

सम्भव है प्राचीन काल में लोगों की मनोवृत्ति अधिक उदार और मिल जुलकर रहने के आनन्द में रस लेने वाली रही हों और पत्नियां अधिक सहेलियों के साथ रहने में अधिक सुविधा तथा उल्लास अनुभव करती रही हों अब मनः स्थिति और सामाजिक स्थिति बदल जाने से वह प्रचलन बन्द करना अभीष्ट हो गया हो तो उसे समय की गति के साथ चलना ही कहा जायगा।

प्राचीन काल में जनसंख्या न्यून थी और सर्वत्र सघन वन थे। कृषि, पशु पालन तथा हिंस्र पशुओं एवं आक्रमण कारी दस्युओं से आत्म−रक्षा के लिए निज का बड़ा कुटुम्ब उपयोगी माना जाता रहा हो। छोटे कुटुम्ब कठिनाई अनुभव करते हों, सम्भव है उन दिनों वेतन भोगी मजदूर न मिलते हों और घर−परिवार के लोगों को ही मिल जुलकर अपनी निर्वाह व्यवस्था जुटानी पड़ती हो। ऐसी दशा में बहुपत्नी प्रथा की उपयोगिता समझी गई ही और उस प्रकार का प्रचलन उचित समझा जाता रहा हो तो उसे परिस्थितियों का तकाजा ही कहा जायगा। इसी आधार पर उन दिनों अधिक सन्तानोत्पादन को प्रोत्साहित किया जाता रहा होगा और उसे सौभाग्य का चिन्ह माना जाता गई होगी। पीछे जैसे−जैसे एकाधिकार की प्रवृत्ति पनपती गई होगी और आर्थिक साधन सरल हो गये होंगे तो बहुपत्नी प्रथा को असुविधाजनक समझकर हटाया जाने लगा होगा। बहुपत्नी प्रथा की तरह बहुपति प्रथा का भी भूतकाल में प्रचलन रहा है और अभी भी यत्र−तत्र वह प्रथा प्रचलित है। कुन्ती के बारे में पौराणिक उल्लेख यह है कि उन्होंने पाँच पुत्र पाँच देव पतियों के सहयोग से उत्पन्न किये उन दिनों संतान का उद्देश्य लेकर इस प्रकार का नियोग प्रचलन था भी। द्रौपदी के पाँच पति प्रसिद्ध हैं पाँच पाण्डवों की एक ही पत्नी थी। भगवान् कृष्ण ने इस प्रयोग की सफलता में बहुत दिलचस्पी ली। वे द्रौपदी का समय−समय पर मनोयोग पूर्वक इसके लिए प्रशिक्षित करते रह कि वह मानव समाज के सम्मुख उस प्रयोग की निर्दोषिता और सफलता प्रस्तुत करने में शक्ति भर प्रयत्न करे। इस अनुसार वह प्रयोग सफल भी रहा। न पाण्डवों को द्रौपदी से कोई शिकायत रही और न द्रौपदी को पांडवों से। नये ढंग की आचार पद्धति और मन स्थिति ढालने में असुविधा जरूर हुई होगी पर प्रयोग ने यह सिद्ध किया कि यदि अनुकूल परिस्थितियाँ हो तो बहुपत्नी प्रथा की तरह बहुपति प्रथा भी बिना कष्ट कठिनाई के चल सकती है।

भारत के उत्तर प्रदेश देहरादून जिले के “जौनसार भाबर” एक क्षेत्र है यहाँ भी बहु−पति प्रथा पीढ़ियों से प्रचलित है। वे लोग अपने को पाण्डवों का वंशज कहते हैं और द्रौपदी द्वारा अपनाई गई बहुपति प्रथा का पूर्ण समर्थन करते हैं। यहाँ जमीनों की जोतें छोटी है उनका विभाजन नहीं होता और पीढ़ी दर पीढ़ी एक परिवार सुविधापूर्वक अपना निर्वाह करता रहता है। जबकि एक पति एक पत्नी के प्रचलन वाले लोगों की जमीनें एक दो पीढ़ी में ही टुकड़े−टुकड़े हो जाती हैं। बढवारे में इतने छोटे टुकड़े हाथ रहते हैं कि उनमें से कोई भी उससे अपना गुजारा नहीं कर सकता। और अपना क्षेत्र छोड़कर कहीं सुदूर स्थानों में नौकरी−चाकरी के लिए भाग जाना पड़ता है। तब बहुपति प्रथा अपनाये हुए परिवार गर्वोन्नत मस्तक से कहते हैं कि हम अपनी उदार सहकारिता से लाभान्वित होते हैं जबकि आधिपत्य अधिकार की स्वार्थ भरी संकीर्णता से भरे लोग न केवल स्वयं भी भारी बोझ के नीचे मरते−खपते हैं वरन् अपने स्त्री बच्चों को भी अनाथ, असहाय बनाते हैं।

एक पत्नी एक पति क्षेत्र में दूसरे का प्रवेश असह्य माना जाता है और इस प्रसंग में खून−खच्चर तक होते रहते हैं। पर यह एक वर्ग विशेष की एक मनोवृत्ति मात्र है इसके पीछे कोई गम्भीर कारण नहीं है।

जौनसार भाबर निवासी इन बहुपति प्रथा समर्थक परिवारों को इसकी हानियाँ बताई जाँय तो वे तेवर बदल कर कहते हैं कि—”यदि एक माता की गोदी में जब चार बच्चे खेल सकते हैं और समान स्नेह संरक्षण प्राप्त कर सकते हैं तो कोई कारण नहीं कि एक पत्नी चार पतियों को सुखी सन्तुष्ट न रख सके। इसमें न तो ईर्ष्या द्वेष की कोई बात है और न खून−खच्चर की। गड़बड़ी आधिपत्य मूलक संकीर्णता ही फैलाती है।”

चीन का एक संरक्षित प्रदेश सियाँग अपनी अन्य विशेषताओं के साथ एक विचित्रता यह भी लिये हुए है कि वहाँ बहुपति प्रथा को प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार किया हुआ है। इस क्षेत्र में गैयाँग नस्ल के लोग रहते हैं। उन्हें ऐसी कोई विवशता नहीं कि बहुपति प्रथा के बिना काम न चले पर वे इसे अधिक उदार−अधिक सामाजिक और अधिक प्रगतिशील मानते हैं और अपने इस प्रचलन पर सन्तोष ही नहीं गर्व भी करते हैं।

उस क्षेत्र में बहुपति प्रथा का प्रचलन रूढ़ि परम्परा के आधार पर नहीं चल रहा−वरन् उन्होंने उसकी हर दृष्टि से उपयोगिता समझी है और उत्साहपूर्वक अपनाया है। इस प्रसंग को लेकर वहाँ कभी कोई ईर्ष्यालु प्रसंग नहीं आता न मनोमालिन्य होता है और न घात−प्रतिघात की बात कोई रोचता है। तिब्बतियों में भी यह प्रथा एक सीमा तक प्रचलित है। सुविधा की दृष्टि से वे प्राय एक पत्नी−एक पति के सिद्धान्त पर ही चलते हैं, पर यदि कोई परिवार बिना लोभ या दबाव का सहारा लिये स्वेच्छापूर्वक बहुपत्नी या बहुपति प्रथा का आश्रय ले तो उसकी कोई भर्त्सना नहीं करता।

बहुपति प्रथा के समर्थन में परिवार का चिरस्थायी सुसंगठन बना रहना प्रधान कारण बताया जाता है। बड़े भाई की शादी कर दी जाती है और शेष भाई भी उसीसे प्रणय सम्बन्ध रखते हैं। समय का उचित विभाजन रहने से यह दाम्पत्य जीवन नारी पर भी अनुचित दबाव नहीं डालता। सन्तानें अपने कानूनी पिता को पिताजी तथा उसके अन्य भाइयों को मझले पिताजी छोटे पिताजी आदि कहते हैं। इससे परिवार की सम्पत्ति का बटवारा नहीं होता, समृद्धि बनी रहती है और परिवार छिन्न−विच्छिन्न नहीं होने पाते। पारस्परिक स्नेह सम्बन्ध की शृंखला उसमें झीनी नहीं पड़ती वरन् और अधिक मजबूत होती है। वे लोग अपने इन्हीं तर्कों को बड़े जोर−शोर और आत्मविश्वास के साथ उन लोगों के सामने प्रस्तुत करते हैं जो बहुपत्नी प्रथा को अनुपयुक्त बताते हैं। इस समर्थन में स्त्रियाँ और भी दो कदम आगे रहती हैं। वे अपने को अधिक सुखी, अधिक सुरक्षित, अधिक स्नेह संचित अनुभव करती हैं और एकाकी पति वाली महिलाओं की तुलना में अपने को अधिक उदार मानती हैं। और कहती हैं मैं अक्षय सुहागिन हूँ। आजीवन मुझे विधवा होने का दुर्भाग्य नहीं सहना पड़ेगा। एक पति के न रहने पर भी अन्य पतियों के कारण उसका सुहाग सौभाग्य अक्षुण्ण ही बना रहेगा। बच्चों को भी कभी अनाथ बनने की आशंका नहीं रहती।

अफ्रीका में बहुपत्नी प्रथा का प्रचलन बहुत उत्साह से है। इसमें पुरुष नहीं महिलाओं की अधिक उत्साह है। काँगो देश की महिलाएँ उस पुरुष की भर्त्सना करती हैं जिसके घर में एक ही पत्नी हो ऐसे परिवार उन्हें बहुत असुविधाजनक लगते हैं और वे पतियों को अन्य पत्नियाँ लाने के लिए बाध्य करती हैं। अन्यथा वे उस मरघट जैसे सुनसान घर को छोड़कर अन्य किसी भरे पूरे घर में चली जाती है। इसी प्रकार संसार के अनेक भागों में मातृ प्रधान परिवार प्रथा प्रचलित है उनमें पतियों को दास या पैर का जूता बनकर रहना पड़ता है। पतियों के बदलने बचने, पीटने या कई पति रखने की वहाँ स्त्रियों को पूरी छूट है। इस प्रथा को उन समाजों में पूरी मान्यता प्राप्त है।

सभ्यता के विकास के साथ−साथ इन दिनों बहुपत्नी प्रथा और बहुपति प्रथा को अवाँछनीय माना जाता है। केवल आक्रमणकारी और बर्बर लोग ही संसार पर अपना आधिपत्य जमाने की दृष्टि से संख्या वृद्धि की दृष्टि से बहुपत्नी प्रथा का समर्थन करते हैं। बहुपति प्रथा को अंगीकार करने वाली महिलाएँ वेश्या कुल्टा कही जाती हैं और उन्हें न तो सामाजिक सम्मान मिलता है न कानूनी समर्थन लुक–छुपकर ही यह सब चलता है इन दिनों पतिव्रत की तरह ही पत्नी व्रत का ही समर्थन किया जाता है और विज्ञ समाज इसी पक्ष में है।

किन्तु एक नया तर्क और नया आधार बुद्धिजीवी वर्ग की ओर से बहुपति प्रथा समर्थन में प्रस्तुत किया जान लगा है, जोरदार शब्दों में प्रसार किया जाने लगा है। इन समाज शास्त्रियों का कथन है कि बढ़ती हुई जनसंख्या की विभीषिका का सामना करने के लिए यही उपाय सबसे सरल और सुविधाजनक सिद्ध होगा, वे कहते हैं कि यदि मनोभूमि में सहकारिता—सामूहिकता और उदारता के तत्व बढ़ जाँय तो यह प्रचलन हानि रहित तो है ही पारिवारिक जीवन में सुविधा सद्भावना एवं समृद्धि की बढ़ोतरी भी करेगा। संयुक्त परिवार प्रथा सुदृढ़ होगी और परिवार नियोजन की समस्या सहज ही हल हो जायगी।

तार्किक कहते हैं कि जब हर क्षेत्र में सामूहिकता की उपयोगिता सिद्ध हो रही है तो दाम्पत्य−जीवन में यह प्रयोग सफल क्यों नहीं होगा? उत्साही नर−नारियों ने पाश्चात्य देशों में यह प्रयोग कार्यान्वित भी करना आरम्भ कर दिया है। देखादेखी अनेक परिवार इसी आधार पर है कि एकाधिकारवादी दाम्पत्य जीवन की अपेक्षा उनका गृहस्थ जीवन कहीं अधिक सुख−सुविधाओं से सम्पन्न है।

आज हमें पतिव्रत धर्म पत्नीव्रत धर्म का ही समर्थन करना उचित प्रतीत होता है, पर उसके प्रतिक्षा में जो प्रयोग चलते रहे हैं—चल रहे हैं—वे भी कम दिलचस्प नहीं है। समय ही बतायेगा कि इन अजीब लगने वाले तर्कों का कुछ महत्व भी है या नहीं।


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