शरीर के साथ मृतात्मा का सम्बन्ध

December 1974

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जिस स्थिति को मरण कहा जाता है क्या हम उस समय सचमुच ही मर गये होते है? मरने पर हम कहाँ चले जाते हैं और क्या करते हैं इसका निश्चित निर्णय अभी संदिग्ध स्थिति में हैं। फिर भी इतना तो एक प्रकार से निश्चय ही हो चुका है कि मरने के उपरान्त भी जीवसत्ता किसी न किसी रूप में बनी ही रहती हैं—और कुछ न कुछ करती ही रहती है। मृत्यु के साथ जीवन का अस्तित्व सर्वथा समाप्त नहीं हो जाता।

कई बार तो डाक्टरों की परख के अनुसार पूर्ण मृत्यु घोषित कर दिये जाने पर भी शरीरों में जीवन रहता पाया गया है और मृतकों के पुनः जीवित हो उठने के प्रमाण सामने आये हैं।

एडिनवरी के एक होस्टल में एक लड़की बीमार होकर मरी। डाक्टरों ने उसे मृतक घोषित कर दिया, पर होस्टल का वार्डन उसकी आकृति की देखकर जीवित ही कहता रहा और उसने लाश को तब तक दफन नहीं होने दिया जब तक कि उसमें सड़न उत्पन्न न हो जाय। आमतौर से तीसरे दिन लाशें सड़ने लगती हैं, पर उस लड़की का शरीर तेरह दिन तक वैसा ही रखा रहा। चौदहवें दिन लड़की ने करवट बदली और साँस ली इसके बाद धीरे-धीरे अच्छी हो गई।

एक घटना आस्ट्रिया की इससे भी विचित्र है। अपने मृत मालिक की ताबूत में रखी हुई लाश की पहरेदारी उसके पालतू कुत्ते ने आरम्भ कर दी। किसी को वह पास डडडड फटकने देता था और समीप जाने का प्रयत्न करता उसे काटने को दौड़ता। तीसरे दिन जब ताबूत डडडड ले जाया जा रहा था तो कुत्ते ने कन्धा देने वालों के पैर काट लिये। इस पर ताबूत गिरकर टूट गया। देखा गया कि मृतक की सांसें चल रहा हैं। उसे वारिस घर लाया गया। तब लोगों ने समझा कि कुत्ता अपनी अतीन्द्रिय शक्ति से यह जान रहा था कि उसका मालिक मृतक नहीं बना हैं।

न्यूयार्क की वह घटना डाक्टरों की दुनिया में बहुचर्चित है जिसमें एक मृतक का पोस्टमार्टम करते समय मुर्दा उठकर बैठ गया था और उसने डाक्टर का गला पकड़ लिया था। डाक्टर भयभीत होकर गिर पड़ा और दिल की धड़कन बन्द होने से मर गया किन्तु वह मुर्दा छुरी के घाव को भी सहन करके धीरे-धीरे अच्छा हो गया।

घटना कलकत्ता की हैं। उन दिनों सन् 1896 में अँग्रेजी राज्य था। कई अंग्रेज अधिकारी एक दिन गप-शप कर रहे थे कि उनमें से एक फ्रेंकलेसली का सिर मेज पर झुकता चला आया और देखते-देखते दम तोड़ गया। उसके कुटुम्बी तथा पूर्वज भी दिल के दौरे से ही मरे थे। फ्रेंकलेसली का भी यही हस्न हुआ। मृत शरीर के प्रचलित रस्म पूरे करने के बाद उसे कुनूर के कब्रिस्तान में दफना दिया गया। उसका परिवार उटकमण्ड में रहता था कई अन्य कुटुम्बी भी वहीं दफनाये गये थे। इसलिए परिवारी यही चाहते थे कि इस लाश को परिवार की अन्य लाशों के समीप ही लफन किया जाय। लाश को स्थानान्तरण करने की तथा लाश के लिए स्थान प्राप्त करने की दौड़धूप में कई महीने लग गये।

लाश को स्थानान्तरण करने की क्रिया जब कभी होती है तो यह आवश्यक होता है कि ताबूत खोलकर मृतक को वस्त्र आदि के सहारे पहचाना जाय। लेसली का डडडड भी खोला गया तो देखने वाले चकित रह गये लाश चित लिटाई गई थी उसके हाथ क्रूस की आकृति बनाकर छाती पर रखे गये थे। पर अब तो वह औंधे मुँह लेटा था। कमीज चिथड़े-चिथड़े फटी हुई थी। नया पहनाया हुआ पेन्ट भी घुटनों पर से फटा हुआ था। आँख पर कई जगह खरोंचें थीं तथा मुँह से निकला हुआ खून जमकर सूख गया था। इन चिह्नों से यही अनुमान लगाया गया कि मृतक का प्राण ताबूत में फिर से लौटा होगा। उसने निकल भागने के प्रयत्न किये होंगे किन्तु वैसा सम्भव न हो सकने के कारण दम घुटकर वह मर गया होगा।

इटली में मान्टुआ नगर के समीप मजोला ग्राम में भी ऐसी ही एक घटना घटी। लावरीनिया मेर्ली नामक एक गर्भवती महिला की मृत्यु मृगी का विकट दौरा आने के कारण हो गई। लाश को ताबूत में बन्द कर दिया गया। उसके कुटुम्बियों के आने के इन्तजार में दो दिन लाश बिना दफनाये रखी रहने दी गई। जब वे आये और अन्तिम दर्शन के लिए ताबूत खोला तो देखा गया कि मृतक ने बाहर निकलने के लिए भारी प्रयत्न किया है इसमें उसका शव क्षत विक्षत हुआ है। इतना ही नहीं उसने सात महीने के गर्भ को जन्म भी दिया है। जच्च-बच्चा दोनों ही दम घुटने से मरे। हालाँकि मृत्यु की घोषणा कुशल डाक्टर की परीक्षा के बाद की गई थी इस घटना में मृत्यु के बाद फिर से जीवन लौट आने की बात सिद्ध हुई। यह घटना 3 जुलाई सन् 1890 की है।

अभिलेखों में ऐसी ही एक घटना पादरी श्वार्त्स की है। भारत के एक देहाती प्रिशन में काम करते हुए उसकी मृत्यु हुई। कुटुम्बियों के इके होने तक लाश को रखा रहने दिया गया और तीसरे दिन अंत्येष्टि की व्यवस्था बनी। जब परिवार के लोग रस्म के अनुसार प्रार्थना के भजन गा रहे थे तो देखा गया कि मृतक के भी होठ हिलने लगे और वह भी मन्द स्वर से उस भजन को गाने में साथ देने लगा। यह जीवन चिह्न देर तक नहीं रहे उसकी फिर मृत्यु हो गई, पर इसमें सन्देह नहीं कि वह एकबार मृत्यु के मुख से फिर वापिस लौट आया था।

हिम प्रदेशों में ठण्ड के दिनों में रीछ बर्फ में दबकर जम जाते हैं। तब उनमें जीवन के बहुत कम चिह्न शेष रह जाते हैं। यहाँ तक कि श्वाँस किया और दिल की धड़कन भी अनुभव में नहीं आती। इस स्थिति में पड़े रहने के बाद गर्मी आते ही वे सजीव होने लगते हैं और साधारण रीति से काम करने लगते हैं।

शरीर को घोषित मृत्यु केवल इतना ही सिद्ध करती है कि अब शरीर में पंचतत्वों की स्थिति इस योग्य नहीं रही कि उससे जीवितों जैसा काम लिया जा सके। वह सड़ने जा रहा है फिर भी उसके भीतर या बाहर शरीराभिमानी आत्मा का अस्तित्व बना रहता है। मृत्यु के समय तरह-तरह के धर्मोपचार इसीलिए किये जाते हैं कि शरीर और आत्मा का सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद होने की स्थिति में प्राणी को अत्यधिक अशांति का अनुभव न हो वह शान्तिपूर्वक इस शरीर त्याग के आघात को सहन कर सके।

मृत शरीरों को सुरक्षित रखने की प्रथा मिश्र आदि में रही हैं। इसके पीछे भी यही तर्क काम कर रहा था कि आत्मा के किसी अंश की उपस्थिति शरीर के साथ बनी रहने के कारण वह अपने प्रियजनों के निकट बना रहेगा। शरीर का कोई अंश सुरक्षित रखने की बात भी इसी दृष्टि से सोची गई थी। भगवान् बुद्ध के कुछ दाँत और हजरत मुहम्मद साहब के कुछ वाल अभी तक सुरक्षित रखे हुए हैं। मृत शरीर पर कब्र या समाधि बनाने को प्रथा भी इसी आधार पर हैं। अंत्येष्टि के उपरान्त हड्डियाँ एवं भस्म को गंगा आदि पवित्र तीर्थों में बहाने के सम्बन्ध में यही सोचा जाता है कि शरीर के साथ आत्मा का यदि कुछ सम्बन्ध जुड़ा होगा तो घर-परिवार की अपेक्षा गंगा आदि तीर्थों में उस सारे सरंजाम का चला जाना अधिक श्रेयस्कर है।

अमेरिका में कई शरीरों को अभी भी लम्बे समय तक के लिए शीतल रसायनों के साथ इसलिए सुरक्षित रखा गया है कि उन्हें निश्चित अवधि तक शारीरिक थकान दूर करने का अवसर मिल जाय और फिर से वे जीवित हो सके। यह तथ्य यह संकेत करते हैं कि जीवन अनत है और वह मृत शरीर के साथ भी किसी कदर—किसी समय तक अपना अस्तित्व बनाये रहता है यदि कोई ऐसा उपाय हाथ लग सके तो मतृ शरीर की असमर्थता दूर करदें तो शरीरों का बार-बार मर-मरकर जीवित होना सम्भव हो सकता है जैसा कि मरने की घोषणा कर देने के उपरान्त शरीरों के पुनर्जीवित हो उठने की बात कितने ही प्रमाणों द्वारा सिद्ध है।


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