संघर्ष ही जीवन है और प्रमाद ही मरण

December 1974

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ऊष्मा रगड़ से पैदा होती है। यह ऊष्मा ही विविध प्रकार की हलचलों की जननी है। हलचलें परिणाम उत्पन्न करती हैं। हमारे मनोरथ किसी इच्छित परिस्थिति के प्राप्त करने के लिए आतुर होते हैं। उस आतुरता की पूर्ति के लिए अमुक स्तर की हलचलों का उत्पन्न होना आवश्यक होता है। यह हलचलें किसी ऊष्मा की अपेक्षा रखती हैं। यह ऊष्मा रगड़ का क्रम चलने पर निर्भर है।

प्रकारान्तर से इसी बात का यों भी कहा जा सकता है कि रगड़ ही उस ऊष्मा को जन्म देती है जो हमारे मनोरथ पूरे करने वाली परिस्थितियाँ एवं हलचलों का सृजन कर सके। किसी के मनोरथ अनायास ही पूरे नहीं हो जाते। छप्पर फाड़ कर किसी पर सम्पत्तियाँ या सफलताएँ टपक पड़ेंगी ऐसा सोचा तो जाता है, पर होता नहीं। छोटे−बड़े प्रत्येक मनोरथ की पूर्ति के लिए समुचित श्रम करने एवं मनोयोग नियोजित करने की आवश्यकता पड़ती है। जो इस शाश्वत सत्य से बचने क प्रयत्न करेगा, बिना उचित मूल्य चुकाये समृद्धि प्रगति या सुखद परिस्थितियों के मिलने की कल्पना करेगा उसे निराश ही रहना पड़ेगा। नियति के विधान में प्रबल पुरुषार्थ की परीक्षा लेकर उपयुक्त अनुदान देने की व्यवस्था है। इसके अपवाद यदाकदा ही देखने को मिलते हैं।

हवा के आकाश तत्व से टकराने पर—अग्नि उत्पन्न होती है यही बिजली या गर्मी है। गर्मी से जीवन उत्पन्न होती है। पेड़−पौधों से लेकर विभिन्न आकृति−प्रकृति के जीवधारियों तक की उत्पत्ति गर्मी से होती है। जीवन गर्मी से उत्पन्न हुआ और गर्मी रगड़ से उत्पन्न हुई। यह सृष्टि की आदि प्रक्रिया आगे चलकर संसार के समस्त जड़−चेतन परिकर में काम करती है। रगड़ का प्रतिफल ही विभिन्न प्रकार के उन उत्पादनों के रूप में दृष्टिगोचर होता है जो हमारे मनोरथों की पूर्ति में आधार भूत भूमिका प्रस्तुत करते हैं।

रगड़ का दूसरा नाम है संघर्ष। जीव की उत्पत्ति जिस रतिक्रिया से होती है वह जनक जननी की जननेन्द्रियों की संघर्ष चेष्टा में निरत करती है। इसी ऊष्मा उत्तेजना से डिम्ब कीट और शुक्रकीट अपनी निष्क्रियता को छोड़कर सचेतन उत्साहित होते हैं और भ्रूण स्थापना का प्रकरण आरम्भ होता है। जिस मिथुन कर्म से नवीन प्राणियों की सृष्टि होती है उसे संघर्ष के अतिरिक्त और क्या कहा जाय? रगड़ की गर्मी से ही विविध−विधि भौतिकी हलचलें इस सृष्टि से होती हैं और उन्हीं से शक्ति धाराओं का उद्भव होता है। अन्तरिक्ष के साथ रगड़ खाती हुई धरती की तेज चाल ने ही उसमें आकर्षण शक्ति उत्पन्न की है। सूर्य की किरणें धरती से टकराकर जब वापिस उछलती हैं तभी वह गर्मी और रोशनी हमें मिलती है जिससे जीवन विकास की अनेकानेक सम्भावनाएँ उत्पन्न हो सकीं।

प्रगतिशील जीवन नीति का आवश्यक ही नहीं अनिवार्य अंग है—संघर्ष। इससे बच निकलने की बात सोचना निरर्थक है। संघर्ष से बचने पर हमें मरण ही हाथ लगेगा। श्वाँस−प्रश्वाँस, रक्त −संचार, माँस−पेशियों का आकुंचन, प्रकुंचन, हृदय की धड़कन, ज्ञान−तन्तुओं का विद्युत प्रवाह सभी शरीरगत क्रिया−कलापों के अंतर्गत घड़ी के पेंडुलम की तरह एक संघर्ष प्रकरण अनवरत रीति से चल रहा है। जीवन का यही लक्षण है। यदि शरीर इस महा मंथन से बचने की चेष्टा करेगा तो मरण सामने आ खड़ा होगा। संघर्ष का एकमात्र विकल्प मरण ही है। जो संघर्ष से डरता है उसे पूर्ण मृतक न सही अर्ध मृतक से अच्छी स्थिति प्राप्त नहीं हो सकती उसके लिए किसी प्रकार मौत के दिन पूरे करते रहने के अतिरिक्त प्रगति के सभी द्वार बन्द है। उसे सभी मनोरथ छोड़कर किसी प्रकार दिन कटते रहने से आगे की बात सोचनी ही नहीं चाहिए। अन्यथा आकाँक्षा करना और निराशा होना एक नया सिर−दर्द बनकर मनःस्थिति उत्पन्न करता रहेगा।

भूमि का पेट चीरकर ही उसमें अनाज बोया जाता है। घास−पात को छीलने, उखाड़ने से ही उपयोगी पौधों की रक्षा सम्भव है। वन्य पशुओं और पक्षियों से खेत की रखवाली किये बिना किस किसान को मनचाही फसल हाथ लगी है। कुदाल, हल, फावड़ा, हंसिया जैसे शस्त्र लेकर जब वह भूमि से लड़ने, खोदने, जोतने के लिए तत्पर होता है तब उसी पुरुषार्थ का प्रतिफल उसे धन−धान्य के रूप में उपलब्ध होता है।

लुहार की भट्टी गरम करते—धातुओं के तपाते और भारी हथौड़ों का प्रहार करते हुए देखकर यह सहज ही समझा जा सकता है कि धातु जैसी कठोर प्रकृति संरचना को भी पिघलाना, मोड़ना और ढालना सम्भव हो सकता है, पर यह सम्भावना सभी मूर्तिमान होती है जब उसके साथ कठिन संघर्ष की आवश्यक व्यवस्था जमाकर रख ली जाय।

पहलवान अपनी माँस पेशियों के साथ लड़ता है। दण्ड बैठक से लेकर डम्बल, मुद्गर तक अनेकानेक व्यायाम साधन उसे जुटाने पड़ते हैं और अंग प्रत्यंग में बसी हुई कोमल आरामतलबी के साथ भारी उठक पटक करने में निरत होना पड़ता है। तेल मालिश में रही बची कसर भी पूरी करली जाती है। जो इस झंझट से बचने का प्रयत्न करेगा उसका पहलवान बन सकना अशक्य है। उस प्रकार के स्वप्न देखने लगने पर तो उसका क्षोभ एवं उद्वेग ही बढ़ेगा।

रक्त के श्वेत कण विजातीय द्रव्यों एवं रोग कीटाणुओं से लड़ने के लिए जब तक तत्पर सक्षम रहते हैं तब तक शरीर बीमार नहीं पड़ता पर जब श्वेत कणों में शिथिलता आती है तो आये दिन नये−नये रोगों के आक्रमण का सिलसिला चल पड़ता है और वह तब तक चलता ही रहता है जब तक मौत आकर उस झंझट का अन्तिम निपटारा नहीं कर देती।

मक्खी, मच्छर, खटमल, पिस्सू जैसे नगण्य से कृमि कीटक मनुष्य की सतर्कता को चुनौती देते हैं। हवा में उड़ने वाले अदृश्य विषाणु प्राणघात करने की घात लगाते है। यदि उनसे बचने की क्षमता और सजगता न रहे तो हमें प्रकृति की स्वाभाविक हलचलें सर्दी−गर्मी ही धर दबोचेगी। वे तत्व उदरस्थ कर जाने में सफल हो जायेंगे जो देखने में अत्यन्त नगण्य एवं तुच्छ प्रतीत होते हैं। असावधानी से पकाया और खाया गया भोजन भी विष का काम करता है।

इस संसार में ऐसे उपयोगी तत्व बहुत हैं जिन्हें प्राप्त करने की हमें अभिलाषा, आकाँक्षा रहती है। इन्हें प्राप्त करने के लिए अथक परिश्रम और दूरगामी विवेक चिन्तन का आश्रय लेकर ही उपार्जित किया जा सकता है। विद्या, बुद्धि, बलिष्ठता, प्रतिभा एवं गुण, कर्म, स्वभाव सम्बन्धी उत्कृष्टता के आधार पर ही सर्वतोमुखी प्रगति के पथ पर अग्रसर हुआ जा सकता है। यह विभूतियाँ अनायास ही किसी को प्राप्त नहीं हो जाती। प्रबल इच्छा शक्ति एवं अथक अभ्यास के आधार पर ही इन्हें उगाया, बढ़ाया जाता है। यही बात बाह्य सफलताओं के सम्बन्ध में भी है। धन से लेकर यश तक अनेकानेक सम्पदाएँ अनवरत श्रम−शीलता की अपेक्षा करती है। केवल पुरुषार्थी ही उन्हें प्राप्त करते हैं। जिन्होंने बिना उचित परिश्रम किये इन्हें पाया वे उन्हें न तो सुरक्षित रख सकते हैं और न उनके सदुपयोग से प्राप्त हो सकने वाले लाभ से लाभान्वित होते हैं।

इस सृष्टि का एक नियम उपयोगी का चुनाव भी है। प्रकृति चाहती है कि उसके उद्यान में केवल मजबूत पौधे हो जीवित रहें और शोभा बढ़ायें। माली आये दिन खरपतवार उखाड़ कर फेंकता है और टेड़ी−मेढ़ी डालियाँ काट छाँटकर अलग करता है। बीमार और अविकसित पौधे हटाने पड़ते हैं ताकि उनके द्वारा घेरी गई जमीन एवं खुराक की बचत करके मजबूत पौधों को बढ़ाने का उपयुक्त साधन बन सके। कमजोर शरीर और कमजोर मन लेकर हम इस सृष्टि को कुरूप ही बना सकते हैं। प्रकृति को यह सहन नहीं। दैव को दुर्बल का घातक माना गया है। दार्शनिक इस क्रम की उपयुक्त ता की पुष्टि इस प्रतिपादन के साथ करते हुए सुने जाते हैं कि संसार की सुदृढ़ता और सुन्दरता बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है अन्यथा गन्दगी, दुर्बलता और कुरूपता के अतिरिक्त यहाँ कुछ बचेगा ही नहीं।

सज्जनोचित व्यवहार करना और सदाशयता की शान्ति प्रिय नीति अपनाना उचित है। पर यह भूल नहीं जाना चाहिए कि इस संसार में दुष्टता की कमी नहीं और वह अपना पहला शिकार सहज विश्वासी भोले भाले लोगों को बनाती है। ठगी और जालसाजी के शिकार प्रायः ऐसे ही लोग होते हैं। हम सज्जन भर बनें पर यह न भूल जायें कि दुर्जनता के वातावरण की साधना हमें चारों ओर से घेरे हुई है। उससे सतर्क रहे बिना कोई गति नहीं। आक्रमण को अवश्य नहीं तो असफल बना सकने वाली सामर्थ्य तो हमें जुटानी ही चाहिए।

दुष्टता का आक्रमण प्रायः वहाँ होता है जहाँ वह प्रतिरोध की सम्भावना कम देखती है। जहाँ प्रबल प्रतिरोध की आशंका रहती है वहाँ दुष्टता भी अपना पंजा फैलाते हुए डरती है। दुष्टता के आघात आक्रमण सहते हुए बर्बाद होने की अपेक्षा यह उत्तम है कि आत्म−रक्षा की मोंचबिन्दी करने के लिए पहले से ही इतनी सुदृढ़ दीवार खड़ी कर कि उससे टकराने की हिम्मत करने से पहले प्रतिपक्षी को हजार बार सोच−विचार करना पड़े। शक्ति का प्रदर्शन किया जा सके तो शक्ति के प्रयोग की आवश्यकता कम ही पड़ती है।

संसार में सज्जनता अधिक है और दुर्जनता कम। पर दुष्टता को बार बार सफल होने का लाभ इसलिए मिल जाता है किस सज्जनता जब संघर्ष का समय आता है तो हतप्रभ होकर बैठ जाती है और उद्दंड असुरता स्वल्प शक्ति सम्पन्न होते हुए भी प्रतिरोध के अभाव में मनमाना लाभ कमा लेती है। असुरता की विजय का कारण उसकी वरिष्ठता नहीं समझी जानी चाहिए वरन् यह सोचना चाहिए कि देवत्व के साथ साहसिकता की समुचित मात्रा न रहने से उसे अपने अधूरेपन का दण्ड भुगतना पड़ा। सज्जन को सशक्त भी होना चाहिए और संघर्ष रत भी।

हम स्वयं भले हैं—भले आचरण करते हैं तो उसका अर्थ किसी भी प्रकार यह नहीं होता कि दूसरे लोग भी वैसा ही करेंगे। वृषभ की सज्जनता मान्य है, पर सिंह, व्याघ्र से वैसी ही आशा नहीं की जा सकती। दुष्टता के साथ सज्जनता भरा व्यवहार यही हो सकता है कि उसे पनपने और सफल होने का अवसर न मिलने दिया जाय। सुरक्षात्मक व्यवस्था इतनी मजबूत रखी जाय कि टकराने पर दुष्टता को अपना शिर फूटने का खतरा स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगे।

अकारण किसी से लड़ने, फिरने या अन्यायपूर्वक आतंक फैलाने की बात बुरी है। उसे छोड़ना चाहिए और छुड़ाना भी। इतनी तैयारी तो रखने ही चाहिए कि उद्दण्ड अनाचार को निरस्त करने के लिए आवश्यक सामर्थ्य की कमी अनुभव न हो। इसके लिए शरीर बल, मनोबल, साधन बल सभी जुटाने चाहिए। साथ ही सज्जनों की समर्थ संगठन शक्ति का ऐसा विकास करना चाहिए कि कहीं भी आक्रमण होने पर सज्जनों की सेना उससे निपटने के लिए एक जुट होकर सामना कर सकें।

हमें ऊँचा उठना हो— आगे बढ़ना हो तो गुण, कर्म स्वभाव की—क्षमता एवं प्रतिभा की सम्पदा बढ़ानी चाहिए। शरीर को बलिष्ठता एवं मन को विद्या बुद्धि से सुसम्पन्न बनाना चाहिए। अभीष्ट उपलब्धियों के लिए कठोर एवं अनवरत परिश्रम करने की आदत डालनी चाहिए। स्मरण रखना चाहिए, अधीर अव्यवस्थित, उत्तेजित और शंकालु मस्तिष्क एक प्रकार का ऐसा अभिशाप है जो किसी भी दिशा में सफलता के दर्शन नहीं होने देता। धैर्यवान, साहसी, आशान्वित, मनस्वी लोग ही दूरगामी योजनाएँ बनाते हैं—मार्ग की कठिनाइयों को समझते हैं—आवश्यक साधन जुटाने हैं और इन प्रयत्नों में निरत रहते हुए जिन व्यवधानों का सामना करना पड़ता है उनसे निपटने की शान्त चित्त से तैयारी करते हैं।

प्रगतिशील एवं सफल सन्तुष्ट जीवन की सकने के लिए जिन क्षमताओं और साधनों की आवश्यकता है उन्हें हम अन्तःक्षेत्र में और बाह्य क्षेत्र में संघर्ष रत रहकर ही उपलब्ध कर सकते हैं। क्या आत्मिक और क्या भौतिक सभी उपलब्धियाँ केवल उन्हीं के लिए सुरक्षित हैं जो अभावों और प्रतिरोध से जूझने के लिए अभीष्ट साहस एवं प्रयास कर सके। वस्तुतः संघर्ष ही जीवन और प्रमाद ही मरण


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