एलबर्ट स्वाइत्जर ने अपनी पुस्तक ‘रेबरन्स फाँर लाइफ’ में व्यक्त किया है। कि हम जिन्दगी को इसलिए प्यार करते हैं कि उसमें जीवनी शक्ति मौजूद है। हम जीना चाहते हैं। − इसलिए कि जीवन तत्व में पृथक रहने पर तो केवल अन्धकार ही शेष रह जायगा। हम जीना चाहते हैं−इसलिए कि जीवन तत्व से पृथक रहने पर तो केवल अन्धकार ही शेष रह जाएगा। जीवन रहित स्थिति की कल्पना भी अत्यन्त कष्ट साध्य है। इसलिए मरणोत्तर जीवन की मान्यता को त्याग नहीं जा सकता। हिन्दुओं का पुनर्जन्म, मुसलमानों का प्रलय जागरण− नास्तिकों का जीवाणु नवीनीकरण आदि परस्पर विरोधी मान्यताओं के बीच यह एकरूपता विद्यमान है कि हमारा आत्यन्तिक विनाश नहीं हो सकता,जीवन किसी न किसी रूप में हमारे साथ जुड़ा ही रहेगा। हमें जीवन रहित स्थिति में कभी भी किसी भी स्थिति में करना पड़ेगा।
जार्ज बर्नार्डशा ने जीवन का विश्लेषण करते हुए लिखा है− ‘जिसे एक निश्चित समय के लिए, निश्चित जिम्मेदारी के साथ हमारे हाथों में सौंपा गया है। अगली पीढ़ी के हाथों में इसे सौंपने से पहले मैं चाहता हूँ कि यह पूरे आलोक के साथ जले और उनका मार्ग दर्शन करे जिन्हें प्रकाश के अभाव में निराशा भरा जीवन जीना पड़ रहा है।’
मनुष्य अन्यों के प्रति संवेदना शून्य होता चला जा रहा है।
लिप्सा एवं अहंता की पूर्ति उसे स्नेह−सहयोग का रसास्वादन करने की तुलना में अधिक मधुर लगने लगी है। दार्शनिक हेमिनावे की दृष्टि में यह मनुष्यता की पराजय है जो विनाश से कम दुर्भाग्य पूर्ण नहीं। वे कहते हैं अगले दिनों मनुष्य विनाश से बचा भी रहा, किन्तु पराजय के बन्धनों में बँध गया तो उसकी जीतित स्थिति में भी मृत्यु की ही सड़न भर जाएगी। सड़े और मरे हुए आदमी यदि साँस लेने और चलते फिरते जीवधारियों की स्थिति में अपना अस्तित्व बनाये भी रहे तो भी इस धरती पर मानवी सौंदर्य का तो अभाव हो ही जाएगा। संवेदना की व्यापकता के बिना बाहर से सम्पन्न और कुरुर ही बना रहेगा।
जर्मन दार्शनिक हारमन हेजी ने अपने उपन्यास ‘सिद्धार्थ’ का समापन करते हुए लिखा है कि जड़ और चेतन में कोई अन्तर नहीं। विकास क्रम से आगे बढ़ता हुआ पत्थर चेतन बनता है। चट्टान से धूलि− धूलि से कीड़ा और कीड़े से पशु−पशु से मानव − मानव से सन्त और देवता बनकर क्रमशः प्रगति की सीड़ियाँ पार करना जाता है। पत्थर बुद्ध बनता है −बन सकता है − प्रश्न केवल समय की दूरी का है। प्रगति के पथ पर बढ़ते हुए ही हम सब यहाँ तक आये हैं। जो पिछड़े हैं उन्हें हम तक पहुँचना है और हम जहाँ हैं वहाँ से उस स्थान तक बढ़ेंगे जहाँ तक कि संसार की श्रेष्ठतम चेतना का विकास हुआ है। जीवन की सफलता इसी मार्ग पर चलते हुए सम्भव होगी।
जीवन का अशुभ पक्ष जो इन दिनों हमारे सामने है वस्तुतः बहुत ही कुत्सित,निराशाजनक और विक्षोभ कारी है। तत्वदर्शी टालस्टाय ने जन समाज के साथ ही अपनी भी विडंबना भरी −दुरंगी मन स्थिति और क्रिया पद्धति को विश्लेषण भरी −दुरंगी मन स्थिति और क्रिया पद्धति का विशेषण किया तो वे तिलमिला उठ। एक बार तो वे इस जीवन छद्म से इतने रुष्ट हुए कि अपने आप को गोली मारने पर तक उतारू हो गये।
लियो टालस्टाय साँसारिक दृष्टि से सुसम्पन्न व्यक्ति थे। स्टीफेन ज्विग ने लिखा है वे अपने साथियों से सवरे अधिक स्वस्थ थे। उनकी प्रतिभा और बौद्धिकता आज स्विनी थी। कला में अनोखी ताजगी। बड़ी जमींदारी के स्वामी होने से आर्थिक सुविधा की −कुलीन प्रतिष्ठा की− विश्व विख्याती लेखक होने से प्राप्त ख्याति की −पत्नी और परिवार की,उन्हें सब प्रकार सुविधा थी साँसारिक दृष्टि से कोई ऐसा कारण न था जिसके आधार पर उन्हें दुखी या अभाव ग्रस्त ठहराया जा सकें।
फिर भी जब उन्होंने जीवन के अन्तरण में धूसी हुई कुत्साओं और कुण्ठाओं का सूक्ष्म पर्यवेक्षण किया, तो लगा कि बाहर की चमक−दमक होते हुए भी अन्तर में घोर अन्धकार छाया हुआ। कुरूपता और दरिद्रता का कुहराम मचा रहा हैं। वे इस स्थिति में इतने खिन्न हुए मानो कोई भयंकर दुर्घटना का शिकार उन्हें होना पड़ा हो। उन्होंने अपनी डायरी में लिखा है−चिन्तन की गहराई में उतर कर आत्म−निरीक्षण करने पर लगता है −जीवन की धारा रुक गई और अशुभ में अंग−अंग को जकड़ लिया। किसी काम में मन लगता,सब कुछ उजड़ा और नीरस दिखाई पड़ता है।
उन दिनों वे बहुत निराश और उद्विग्न दिखाई पढ़ते थे। जीवन जिसे हम प्यार करते है और जीना चाहते हैं क्या यही है,क्या हम वस्तुतः मलीन हैं और मलीनता में ही मरना खपना चाहते है, यदि ऐसा ही है तो फिर सौंदर्य,कला एवं आदर्श की बात क्यों की जाय? भीतर और बाहर एक ही क्यों न रहा जाय
टालस्टाय ने जीवन के अंधेरे पक्ष को जितना अधिक देखने का प्रयत्न किया उतने ही वे अधिक निराश होते गये। एक समय में उनकी आत्म−ग्लानि चोटी तक जा पहुंची थी और लगता था कि वे कहीं आत्महत्या न कर बैठे। उनने अपनी शिकारी बन्दूक इसलिए ताले में बन्द करके चाबी कहीं अन्यत्र पहुँचा दी थी कि कहीं वे उसकी नली अपनी ही कनपटी पर रखकर घोड़ा न दबा दें।
जीवन का विचित्र विश्लेषण करते हुए उनने उन दिनों लिखा था −ये अनुभव कहते हैं कि अनेक और अन्य किसी के जीवन में कोई रस नहीं है। जीवन सिवाय पीड़ा मौत तथा निरन्तर क्षय के और कुछ नहीं हैं। ऐसे जीवन का कोई अर्थ है? मैं खोज रहा हूँ कि क्या जीवन में कोई रस और तथ्य हैं? यदि वह न मिला तो इस विडम्बना पूर्ण जिन्दगी का अन्त कर डालने का मैंने निश्चय कर लिया हैं। निराशा से छूटने के लिए जरूर किसी दिन अपने को गोली मार लूँगा
टालस्टाय अपने आप से बार−बार पूछते थे −मैं क्या जी रहा हूँ −मेरे अस्तित्व का क्या प्रयोजन हो सकता है− मुझे कैसे जीना चाहिए −क्या मौत का चारा बनने से बचा नहीं जा सकता। इन प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करने के लिए उन्होंने शोपनहार − प्लेटो कान्ट −पास्कल और प्रख्यात दार्शनिकों को अत्यन्त गहराई के साथ पढ़ा और यह समझने क प्रयत्न किया कि वस्तुतः जीवन हैं क्या? अन्तर अन्तरंग और बहिरंग में इतना ज्यादा अन्तर किस कारण उत्पन्न हो गया।
दार्शनिकों से समाधान न पाकर टालस्टाय धर्म की ओर मुड़े। श्रद्धा की खोज में अन्त करण को टटोलते हुए वे एक दिन रो पड़े और सहसा चखते हुए बोले −प्रभु मुझे धर्म के अचल में ढक लो −मुझे शान्ति दो −भक्ति से मुझे सरस कर दो ताकि जीवन को समझ सकूँ और उसके रस का आस्वादन कर सकूँ।
धर्म की गहराई में वे उतरे तो पाया कि वह अलग है जो ईसा में कहा था और वह अलग है जो पादरियों द्वारा अपने शिष्य भक्तों को कहा समझाया जा रहा है।
टालस्टाय जीवन की,जीवनोद्देश्य की खोज गहराई तक करते रहे। इसके लिए उन्होंने बहुत समय तक अपने परम प्रिय साथी−यश और धन प्रदान करने वाले लेखन कार्य का भी बन्द रखा। जब जीवन का कोई उद्देश्य न दो, रोटी खाना इंद्रिय भोगों में निरत रहना और अपने सहित सबको झुठलाना,सताना ही यदि जिन्दी है तो उसे जीने से क्या? जब मनुष्य की भावना और विवेकशीलता ऊँची हो सकती हैं तो उसकी क्रिया में वैसा विवेकशीलता ऊँची हो सकती है तो उसकी क्रिया में वैसा ही दर्शन क्यों न होना चाहिए? यदि वैसा सम्भव न हो फिर जीने का आनन्द ही क्या रहा और उससे लाभ ही क्या मिला।
अपने युग के तत्वदर्शी ऋषि टालस्टाय लम्बे विचार मन्थन के उपरान्त इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि वर्तमान युग का अवाँछनीय वातावरण मनुष्य को दुष्टवृत्तियों के लिए आकर्षित और प्रेरित करता है इसी से जीवन मलीन बन जाता है। मूलतः वह मलीन है नहीं। जीवन को जीवन की तरह जीने का अवसर मिल इसके लिए जन मानस में धर्म निष्ठा को समुचित स्थान मिल सके ऐसा सामाजिक वातावरण बनाया जाना चाहिए।
जीवन वस्तुतः छद्म है नहीं। मनुष्य ने अपने आपको भुलाकर − बहक कर उसे गर्हित बना लिया है। यदि वह अपनी भूल को समझने और सुधारने के लिए तत्पर हो सके तो वस्तुतः वह महान ही बनकर रहेगा जैसा कि वह मूलतः है भी।
जापान के महाकवि नागूची की एक कविता है जिसमें वे कहते हैं। सूर्य का तेज,चन्द्रमा का सौंदर्य तारों की छवि, वायु का वेग बनाया गया था पर जब उसने अपने को मिट्टी का ढेला भर माना तो आसमान की आँखों से आँसू छलके और वेदना बिजली बनकर तड़पी, देवताओं के चेहरे उदास हो गये और सृजेता की वेदना बह निकली −हाय,मनुष्य ने अपना स्वरूप क्यों भुला दिया।
सुकरात का यह अन्तिम कथन प्रसिद्ध है कि−मैं एथेन्सवासी या यूनानी नहीं, वरन् विश्व नागरिक हूँ।
,लोभ −मोह की संकीर्णता से ऊपर उठकर जब दूरदर्शी विवेक को अपनाया जाता है तो यह सोचना पड़ता है कि हम थोड़े लोगों के लिए प्रयोजनों के लिए नहीं जन्मे हैं। हमें विश्व परिवार को पीड़ा और पतन के वर्तमान दुर्दशा से उबार कर विश्व नागरिक बनकर जीना है और उसी के लिए मरना खपना है।
मनुष्य से बढ़कर इस संसार में और कुछ नहीं,पश्चात वह अपने आपको जाने और जीवन की गरिमा को समझते हुए उसके सदुपयोग का प्रयत्न करे।
महर्षि व्यास ने मनुष्य तत्व का रहस्योद्घाटन करके हुए एक मर्म वचन कहा है। वे लिखते हैं −’गुह्म ब्रहतदिदं ब्रवीमि’। नहि मानुषात। अर्थात् एक भेद भरी बात बताता हूँ। इस संसार में मनुष्य से बढ़कर श्रेष्ठ और कहीं कुछ नहीं हैं।
यदि जीवन का मूल्यांकन किया जा सके और प्रलोभनों से मुक्त होकर दिव्य जीवन जीने के लिए कटिव हुआ आनन्द हमारी अपनी मुठ्ठी में ही कैद है।