क्रिया का स्वरूप नहीं उद्देश्य देखा जाय

December 1974

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चमड़े की आंखें सिर्फ यह देख पाती हैं कि किसने क्या किया? जिस क्रिया के सम्बन्ध में जैसी भली या बुरी लोक मान्यता है उसी के अनुरूप उस क्रिया को श्रेष्ठ अथवा निष्कृष्ट ठहरा दिया जाता है। पर यह कसौटी बहुत ही मोटी अवास्तविक है।

देखा यह जाना चाहिए कि किसने किस क्रिया को क्यों किया? यह उद्देश्य ही किसी कर्म के स्तर को नापने का सही मापदण्ड है। उच्च उद्देश्य की पूर्ति के लिए ऐसे कर्म भी किये जा सकते हैं जो लोक−प्रचलन के अनुसार निन्दनीय ठहराये जाते हैं। उदाहरण के लिए सत्य और अहिंसा को ही लें। उनकी आदर्शों महत्ता लोक और वेदों में सर्वमान्य है। किन्तु स्थिति विशेष ऐसी भी हो सकती है जब इनका पालन पाप−कर्म एवं दण्डनीय अपराध ठहराया जाय। सेना के रहस्य गोपनीय होते हैं। कोई सैनिक यदि सत्य पर से पर्दा उठाने के नाम पर उन रहस्यों को प्रकट कर दे और शत्रु पक्ष को उसकी जानकारी मिल जाय तो समस्त राष्ट्र को उस रहस्योद्घाटन के कारण अपार क्षति सहनी पड़ेगी और वह सत्यवक्त अपराधियों की पंक्ति में खड़ा करके निन्दा का पात्र घोषित किया जायगा और मृत्यु दण्ड का फल भोगेगा। सत्य वचन ही पर्याप्त नहीं उसके पीछे यह तथ्य भी रहना चाहिए कि उस उच्चारण का क्या परिणाम होगा? कोई सैनिक युद्ध के मोर्चे पर अचानक अहिंसावादी बन जाय और प्राणी हत्या को पाप मानकर गोली चलाना बन्द करे दे तो इस सिद्धान्तवाद का परिणाम सुरक्षा व्यवस्था नष्ट होकर देश की पराजय के रूप में भी सामने आ सकता है। यह असामयिक और अदूरदर्शितापूर्ण भावुक सिद्धान्त पालन औचित्य और विवेक की कसौटी पर कभी भी खरा नहीं ठहराया जायगा।

न्यायाधीश द्वारा किसी जघन्य अपराधी को मृत्युदण्ड सुनाना और जल्लाद द्वारा उसे फाँसी के तख्ते पर लटकाना प्रत्यक्षतः निर्दयतापूर्ण कृत्य कहे जा सकते हैं, पर विवेकवान जानते हैं कि यह निष्ठुरता, न्याय और लोकरक्षण की दृष्टि से कितनी आवश्यक है। ऐसे प्रसंगों पर यदि दया, करुणा की भावुकता उमड़ने लगे तो संसार में अपराधियों को खली छुट मिल जायगी और फिर वे निर्भय होकर ऐसे कुकृत्य करेंगे जिनसे एक को मृत्यु से बचाकर हजारों को मौत के घाट उतरने की भूमिका बन जायेगी। यहाँ अहिंसा का पालन, दया का प्रदर्शन उथली भावुकता और अदूरदर्शिता ही समक्षी जायगी।

निकृष्ट उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ऐसे काम भी किये जाते रहते हैं जो मोटी दृष्टि से साधुतापूर्ण प्रतीत होते हैं। साधु सन्त का वेष बनाकर दुष्ट कर्म करते फिरने वाले इसलिए वह आवरण ओढ़ते हैं कि उनके कुकृत्य सहज ही लोगों की आंखों में न आवें। कितने ही लोकोपयोगी संस्थाएँ बनाकर ऐसी ही धंधेबाजी करते हैं। विधवाश्रम, अनाथालय, गौशाला आदि के बहाने कितने ही लोगों ने अपने घर भरे हैं। बाहर से देखने में यह लोग पुण्य परमार्थ में संलग्न दिखाई पड़ते है, पर वस्तुतः उनका प्रयोजन लोगों की धर्म भावना और दया करुणा का दोहन करके अपना स्वार्थ सिद्ध करना भर होता है। चन्द्रा संग्रह अब अपने ढंग का एक अनोखा व्यवसाय बन गया है। भिक्षावृत्ति अपनायें हुए लोगों में से अधिकाँश उसके लिए अनधिकारी होते है, पर वे बाहर से कुछ ऐसा प्रदर्शन करते हैं जिससे लोगों को उदारतापूर्वक देने की प्रेरणा मिले। इन लोगों की बाह्य गतिविधियाँ धर्मानुकूल पर भी भीतर से विपरीत स्तर की होती है अस्तु उनका समर्थन दूरदर्शिता एवं विवेकशीलता के आधार पर किया नहीं जा सकता। चिड़ियों को जाल में फँसाने के उद्देश्य से अन्न के दाने बखेरने वाले चिड़ीमार का बाह्य कृत्य दानशीलता जैसा लगता है पर उसके पीछे जो उद्देश्य छिपा है उसे देखते हुए वह अन्न दान भी कुकृत्य की ही श्रेणी में गिना जायगा। कर्म का स्वरूप नहीं—कर्त्ता का उद्देश्य ही विचारणीय है।


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