अपनी बात को हम कितना ही सही क्यों न मानें, पर साथ ही यह भी ध्यान रखे की मतभेद वाले पक्ष भी हमारी ही तरह अपनी बात को सही समझने वाले हो सकते हैं। सत्य तक पहुँचने के लिए मस्तिष्क खुला रखना चाहिए और ‘ही’ की कट्टरता में ‘भी’ की सम्भावना के लिए गुंजाइश छोड़नी चाहिए। —अरस्तू