काश,हमारा व्यक्तित्व भी समुद्र जैसा गरिमायुक्त होता

December 1974

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सूर्य की गर्मी से समुद्र जल की ऊपरी सतह गरम हो जाती है और वह गरम पानी ध्रुवों की आकर्षण शक्ति से खिंचकर उत्तर या दक्षिण की ओर भागने लगता है। नमक की मात्रा इस ऊपरी सतह से नीचे खिसक कर तली वाले पानी में बढ़ जाती है। वह इतना गाढ़ा और भारी हो जाता है कि एक तरह से अचल बनकर ही रहता है। जिस प्रकार धनीमानी और सुविधा सम्पन्न वर्ग के लोग सम्पत्ति पाकर अचल हो जाते है। उनकी प्रगतिशीलता नम्रता और गर्मी समाप्त हो जाती है। ऐसी ही जड़ता, यह अधिक नमक घुला नीची सतह का पानी भी पकड़ लेता है। ऊपरी सतह में गर्मी रहती है—श्रमशीलता और कर्मठता की गर्मी मनुष्य को भी हलका−फुलका और गतिवान बनाये रहती है यही बात समुद्र की ऊपरी सतह के जल के बारे में भी है।

धरती पर जल 70 प्रतिशत है। थल केवल 30 प्रतिशत है हम इस थल की उधेड़−बुन में ही लगे रहते है उसी को—जो आँखों से दिखाई पड़ता है— सब कुछ मान बैठे है। चमकीला चन्द्र खिलौना हमारे आकर्षण का केन्द्र बना और पर्वत जितनी धन राशि खर्च करके वहाँ तक पहुँचने का प्रयत्न किया गया। विडम्बना यह है कि जो आँखों से दिखाई नहीं पड़ता वह समुद्र गर्भ अत्यधिक उपयोगी—बहुमूल्य और निकटवर्ती होते हुए भी उपेक्षा पात्र बना रहा। यदि उसके सम्बन्ध में भी आकाश की तरह खोज की गई होती तो मनुष्य ने अब की अपेक्षा कहीं अधिक सुविधा एवं सम्पत्ति को करतल गत कर लिया होती पर इस मानवी बुद्धि स्थूलता को क्या कहा जाय जो प्रत्यक्ष पर ही ध्यान देती हैं और उसे महत्व हीन समझती है जो आंखों से ओझल है। आन्तरिक जीवन—विचार सम्पन्नता का वैभव भी कब हमारी समझ में आता है मात्र कागज के नोट बटोरने में ही जिन्दगी का बहुमूल्य भाग ऐसे ही अस्त−व्यस्त और नष्ट−भ्रष्ट हो जाता है।

समुद्र की गहराई और उसकी भीतरी बनावट आश्चर्य जनक है। उसके भीतर प्राय 40 हजार मील लम्बी तो पर्वत श्रृंखलाएँ ही फैली हुई हैं। दूसरी ओर सामान्य तल से काफी गहरी और 8 से 30 मील तक चौड़ी खाइयाँ भी सर्वग्रासी मुँह फाड़े सहस्रों मील जगह घेरे पड़ी है। मनुष्य का अन्तरंग भी कितनी ही विकासोन्मुख ऐसी पतन की महागर्त दुष्प्रवृत्तियों का विस्तार भी कम नहीं है।

सन् 1873 में अन्वेषक ‘चैलेञ्जर’ ने अटलाँटिक महासागर का एक नक्शा तैयार किया था उन दिनों वह सर्वांगपूर्ण माना गया था अब उसमें बहुत सुधार कर दिये गये हैं। प्राचीन काल में मानवी चेतना के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा जा चुका है पर उसे अन्तिम नहीं कहा जा सकता क्रमिक विकास की प्रक्रिया ने अब चेतना तत्व सम्बन्धी ऐसे रहस्यों का उद्घाटन किया है जिनसे पूर्व प्रतिपादनों में चार चाँद ही लगे हैं।

अटलाँटिक सागर यों एक है पर उसके गर्भ में फैली हुई श्रृंखलाओं ने भीतर ही भीतर दो भागो में विभक्त कर रखा है। इस विभाजन का प्रभाव उस समुद्र के जल बहाव को भी प्रभावित करनी है। यद्यपि यह विभाजन आंखों से या साधारण उपकरणों से समझ में नहीं आता तो वह है तो है ही। मनुष्य सत्ता यों एक है पर उसके भीतर देवता और असुर का विभाजन स्पष्ट है। इन दोनों में जिसकी जितनी ऊँचाई चौड़ाई होती है उसी आधार पर जीवन दिशा प्रभावित एवं गतिशील होती है। उन्नति अवनति का—दिशा निर्धारण का—सारा आधार इसी भीतरी स्थिति पर ही निर्भर रहता है यों देखने में यही लगता है कि परिस्थितियों ने एवं चेष्टाओं ने ही सब कुछ करके रख दिया है। समुद्र की पर्वत श्रृंखलाएं जल प्रवाह को गति देती हैं और मानवी अंतरंग की शुभ अशुभ स्थिति उसे किसी दिशा विशेष में बढ़ने के लिए बाध्य कर देती है।

शोध कर्त्ता हैरी हेस ने प्रशान्त महासागर का सर्वे क्षण करते हुए उस समुद्र के गर्त में ऐसे 15 द्वीप ढूँढ़े हैं जो कभी पानी से ऊपर थे किन्तु धरातल की उथल-पुथल के कारण वे समुद्र में डूब गये। ऐसे हजारों अभागे द्वीपों के सम्बन्ध में प्रमाण प्राप्त हो रहे हैं जो कभी भूतल की शोभा बढ़ा रहें थे किन्तु अब अतल की गहराई में जाकर सब की दृष्टि से ओझल हो गये और अपनी प्राकृतिक सौंदर्य सुषमा से वंचित बन गये। ठीक इसी तरह आज के कितने ही भूखण्डों को किसी समय का समुद्र तल घोषित किया जा चुका है। ऐसे कितने ही हिमाच्छादित पर्वत हैं जो कभी समुद्र में डूबे पड़े थे। प्रवृत्तियों के उछाल प्रबल परिस्थिति बनकर सामने आते हैं और व्यक्तियों को नीचे से ऊपर उठाते अथवा ऊपर से नीचे गिराते देखे जाते है प्रकृतिगत उथल-पुथल थल को जल में और जल को थल में बदल सकती है। आन्तरिक उथल-पुथल भी यदि कल्पना मात्र न रहकर प्रचण्ड संकल्प शक्ति के रूप में उदय हो तो आज की अपेक्षा कल का जीवन क्रम आश्चर्यजनक रीति से बदला हुआ पाया जा सकता है और उसके दूरगामी परिणामों को देखकर अजनबी दर्शक अवाक् रह कसता है।

हिन्द महासागर में 8 हजार फुट ऊँची और 3600 मील लम्बी एक पर्वत शृंखला है। वह अण्डमान द्वीप समूह के समानान्तर चलती है। यह इन्डोनेशिया ओर भारत तक फैले हुए समुद्र को भीतर ही भीतर दो भागों ढूँढ़ निकालने वाले नाविक अलफानमी निकि तिन का दावा था कि यह पर्वत शृंखला अति प्राचीन काल में भूभाग थी और आस्ट्रेलिया, अफ्रीका तथा एशिया को एक ही थल भाग बनाये हुए थी। इस भूखण्ड के समुद्र तल में डूब जाने के कारण यह तीनों महाद्वीप अलग अलग बने। पहले इतनी बड़ी भूमि तक ही विस्तार वैभव की शृंखला में जुड़ी हुई थी।

समाज और परिवारों की संयुक्त प्रक्रिया कितनी सुविधाजनक एक कितनी शक्ति शाली है इसे मानने में किसी की कोई आपत्ति नहीं हो सकती। संगठन की—एकता की शक्ति इस समय की मूर्धन्य सामर्थ्यों में से एक हैं। किन्तु दुर्भाग्य इसे कहीं भी अक्षुण्ण नहीं रखता। आये दिन बँटवारे होते रहते है और इसका दुखदायी परिणाम दुर्बलता एवं विश्रृंखलता के रूप में सामने आते रहते हैं। असुविधाएँ बढ़ती हैं और अड़चने खड़ी होती है जैसी कि अफ्रीका एशिया और आस्ट्रेलिया की अर्वाचीन पृथकता-और प्राचीन एकता की तुलना करने से स्पष्ट हो जाती है। थोड़ा सा भूखण्ड डूबा—स्वयं मरा और पीछे वालों के लिए अड़चनें खड़ी कर गया। ठीक इसी प्रकार कुछ स्वार्थी तत्व व्यक्ति गत महत्वाकांक्षाओं के लिए एकता को नष्ट करने पर उतारू हो जाते हैं। समझते हैं सबके साथ रहने में नहीं उछल कर चलने और अलग रहने में लाभ है। इसका परिणाम क्या हो सकता है यह इस पर्वत शृंखला से पूछना चाहिए जिसने सामान्य से असामान्य बनने की उछल—कूद की और छब्बे बनने की इच्छा वाले चौवे के दुवे रह जाने वाली उक्ति चरितार्थ करके रह गई। वह स्वयं डूब गई—अपनी स्थिति दयनीय बना गई साथ ही उन भूखण्डों के लिए चिर कालीन विपन्नता खड़ी कर गई जो पृथक-पृथक उपरोक्त तीन महाद्वीपों के रूप में दिखाई पड़ते हैं और जिनका अलगाव असंख्यों के लिए असंख्य समस्याएँ उत्पन्न कर रहा है। भारत पाकिस्तान का विभाजन भी इसका एक दुर्भाग्यपूर्ण उदाहरण है।

हिन्द महासागर की सबसे अधिक गहराई पाँच मील नापी गई है जो दक्षिण पश्चिम आस्ट्रेलिया के समीप है। इस क्षेत्र के समुद्र तल में काला मैंगनीज—लोहा, तांबा, टिन, निकिल, जस्ता मालीवडेतम आदि धातुओं का प्रचुर भण्डार जमा पड़ा पाया गया है। मलेशिया और इन्डोनेशिया के बीच टिन धातु का इतना बड़ा भण्डार है जितना सारी पृथ्वी पर भी नहीं है। यह धातु संपदा उथले समुद्रों में अपेक्षाकृत कम अनुपात में पाई जानी है।

गहराई और सम्पदा का सीधा सम्बन्ध है। उथले,ओछे मनुष्य अपनी तड़क भड़क दिखाते फिरते तो हैं पर उनका व्यक्तित्व दिवालिये, कंगालों जैसा रहता हैं। जिसमें गम्भीरता—गहराई, शालीनता, गरिमा और दूरदर्शिता है उन्हीं भारी भरकम कहे जाने वाले—महान समझे जाने वाले व्यक्तित्वों में अनेकों स्तरों की सम्पदाएँ एवं विभूतियाँ पाई जाती हैं। वैभव दिखाई भले ही न पड़े पर आवश्यकतानुसार उसका उपयोग कभी भी हो सकता है। अगले दिनों जब धरती वालों को धातुओं की कमी पड़ेगी तब निश्चित रूप से इसी समुद्र तल में छिपे भण्डार को ऊपर लाया जायगा। परिष्कृत व्यक्तित्व गहरे समुद्रों की तरह हैं उनकी महानता यो विज्ञापित भले ही न होती हो पर अवसर आने पर उसका बहुमूल्य उपयोग हो सकता है और उस उपयोग से संसार को असंख्य प्रकार के लाभों से लाभान्वित होने का अवसर मिल सकता है।

जड़ और चेतन की एकता सिद्ध करने वाला एक अद्भुत प्राणी समुद्र में पाया जाता है जिसे ‘कोरल पालिप्स’ कहते हैं। बोतल जैसी आकृति का लिवलिवा यह प्राणी किसी समुद्री चट्टान को पकड़ कर बैठ जाता है। कन्ही जाता आता नहीं। उसमें विचित्र आकर्षण शक्ति होती है। उसी से उस क्षेत्र में बिखरी रहने वालर कोरेलिनेसी नामक समुद्री वनस्पति खिंचती चली आती हैं और उस कीटक के शरीर में लिपट कर आत्मसात होती रहती हैं। कीड़ा बढ़ता रहता है और मूँगे की चट्टान बनती रहती हैं। या चट्टानें बढ़ते-बढ़ते ऐसे मजबूत और विशालकाय द्वीपों का रूप धारण करती रहती है जिनका भारी तूफान और भूकम्प भी कुछ नहीं बिगाड़ सकते। मूँगा बहुमूल्य पदार्थ है जो सस्ते रत्नों में गिना जाता है और चाव पूर्वक गरीब अमीरों द्वारा आभूषणों के साथ धारण किया जाता है।

मूँगा जड़ भी है और चेतन भी। चेतन इसलिए कि उसकी उत्पादक सत्ता सजीव है। जड़ इसलिए कि उसे निर्जीव चट्टान की तरह देखा और काम में लाया जा सकता है। यह समस्त विश्व जड़-चेतन सत्ता से उसी प्रकार समन्वित है जैसा कि मूँगा। जड़ के बिना जड़ की हलचलें संभव नहीं। इसलिए जड़ बुद्धि संसार को पदार्थ मात्र मानती है और सचेतन प्रज्ञा के लिए यह समस्त पसारा चेतन ब्रह्म सत्ता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

परिस्थितियों और साधनों की प्रगति के लिए आवश्यकता असंदिग्ध है पर साथ ही यह भी स्पष्ट है कि यह सहायता व्यक्ति गत चुम्बकत्व के बिना किसी के भी पास खिंचती हुई नहीं आ सकती। मूँगा कीट कहीं जाता नहीं अपने आकर्षण से ही आहार के उपयुक्त वनस्पतियों को घसीट कर पास बुला लेता है और वे सहज ही अपनी वरमाला उस प्रचण्ड पुरुषार्थी के गले में डालकर समर्पित होती चली जाती हैं। घास के समर्पण और मूँगा के चुम्बकत्व को अन्योन्याश्रित देखा जा सकता है और यह अनुभव किया जा सकता है कि दोनों पक्ष एकाकी रहने पर नितान्त दुर्बल थे पर उस एकाकार स्थिति ने कैसा चमत्कार परिणाम प्रस्तुत किया। तुच्छ सी घास मूँगा जैसी बहुमूल्य बन गई और अपने में चुम्बकत्व उत्पन्न करके वह तुच्छ सा कीटक विशालकाय एवं प्रशंसा पात्र रत्न द्वीप बन गया। जिन व्यक्तित्वों ने अपने में मूँगा कीट जैसा चुम्बकत्व उत्पन्न किया वे स्वयं धन्य बने और अपने साथी सहयोगियों को धन्य बनाया। इस रहस्यमय प्रशिक्षण को मूँगा कीट उन बुद्धिमान कहलाने वाले मनुष्यों के सामने प्रस्तुत करते रहते हैं जो समुन्नत बनने के इच्छुक तो हैं पर प्रगति के मूल्यवान सिद्धान्ती से प्रायः अपरिचित ही बने रहते हैं।


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