अकाल मृत्यु के मुँह में हमीं घुस पड़ते हैं

December 1974

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जीव विज्ञानियों के अनुसार मृत्यु तक प्रकार की अत्यधिक गहरी थकान अथवा इतनी प्रगाढ़ निद्रा है जिसमें गिरने के बाद फिर जागृत हो सकना सम्भव नहीं पाता। यदि इस थकान को दूर करने जितने समय तक सुरक्षित विश्राम की व्यवस्था बन जाय और जागने की अवधि तक शरीर के जीवाणुओं को मरने, सड़ने या सूखने से बचाया जा सकें। तो मृत्यु के बाद फिर कुछ समय बाद की उठना सम्भव हो सकता है।

चेतना मरती नहीं थक जाती हैं। बुढ़ापे के कारण नाड़ी संस्थान की लचक घट जाती है कोशिकाओं का नवीनीकरण क्रम शिथिल हो जाता है। शरीर यन्त्र उन्हीं कारणों से कठोर एवं शिथिल होता चला जाता है। जीवनी शक्ति का इसी क्रम से ह्रास होता है और धीरे-धीरे बढ़ती हुई जराजीर्ण अवस्था मृत्यु के समीप तक जा पहुँचती है। इस कठोरता एवं शिथिलता की गति जितनी मन्द होगी उतने ही अधिक समय तक जीवित एवं सक्रिय रहा जा सके गा। थकान धीरे-धीरे पैदा हो दीर्घजीवन का प्रधान सूत्र यही है। प्रगाढ़ विश्राम की सुविधा बीच-बीच में इस प्रकार मिलती रहे कि पिछले दिनों की क्षति को पूरा किया जा सके तो फिर यह सम्भव हो जायगा कि बहुत लम्बे समय तक जीवन बना रहे। हर रात को सोने और हर सवेरे उठने का क्रम एक मध्यावधि मरण एवं पुनर्जीवन ही तो है उसी सामान्य क्रम को विशेष उपचार से दीर्घकालीन बनाया जा सके तो कोशिकाओं पर छाई हुई थकान से उत्पन्न जरठता का निवारण हो सकता है और बूढ़े का फिर से जवान बन सकना शक्य बन सकता है।

जीन फिनाल ने अपनी पुस्तक ‘दि फिलोसोफी आफ लाँग लाइफ’ में लिखा है—मृत्यु की दिशा में आधी यात्रा हम स्वाभाविक रीति से करते हैं और आधी अस्वाभाविक रीति से। स्वाभाविक वह है जिसमें एक नियत क्रम से वृद्धावस्था आती है और परिपक्व आयु भोगकर शरीर मृत्यु की गोद में चला जाता है, अस्वाभाविक वह जिसमें मनुष्य छोटी-मोटी बीमारियों के समय—बढ़ती आयु का लेखा-जोखा रखते हुए—अपनी आयु के मरने वालों की लिस्ट बनाकर यह सोचता रहता है कि अब मृत्यु का समय नजदीक आ गया। यह मान्यता यों महत्व हीन मालूम पड़ती हैं, पर सचाई यह है कि वह अन्त मन में एक सुनिश्चित संकल्प बनकर बैठ जाती है और मृत्यु को जल्दी ही कहीं से पकड़ कर ले आती है। संकल्पों से परिस्थितियों का उत्पादन एक सुनिश्चित सत्य है अतएव समय से पूर्व अस्वाभाविक मृत्यु के मुख में चला जाना भी एक यथार्थता ही है।

वैज्ञानिक विश्लेषण के अनुसार मनुष्य एक अग्नि पिण्ड की तरह-जलते हुए दीपक की तरह है। आग आक्सीजन खाती है और कार्बन डाइ आक्साइड गैस उगलती हैं। बिलकुल यही क्रम मनुष्य का भी है। उसकी श्वाँस प्रश्वाँस क्रिया इसी क्रिया को सम्पन्न करता है। हमारा शरीर—जीवन की एक दिव्य अग्नि की तरह ही ज्वलन्त है। इस भट्टी में यदि उपयुक्त ईधन पड़ता रहे और उन कारणों से बचा जा सके जो उसे ठण्डी कर देते हैं तो फिर मरने में आमतौर से जो उतावली हो जाती है वह न ही और देर तक जीवित रह सकना सम्भव हो जाय।

देर तक जीवित रह सकने के महत्वपूर्ण आधार जिन्दगी के साथ जुड़े हुए हैं, यदि उन्हें ठीक तरह संभाले, संजोये रखा जा सके। उद्धत आचरण और उच्छृंखल विचारों से बचा जा सके तो न केवल देर तक वरन् सुख पूर्वक जीवित रहने का आनन्द बिना किसी अड़चन के लिया जा सकता है। मौत के समीप लाने वाले कारण या समय-समय पर सामने आते रहते हैं पर वे ऐसे नहीं हैं जिन्हें निरस्त न किया जा सके। हम भीतर से हारते हैं तो बाहर से भी पराजय ही आ घेरती है। भीतर से थकते हैं तो चारों ओर से निराशा और असफलता की घटाएँ घिरती चली आती हैं।

सिकन्दर ने एक स्वप्न देखा—कोई अप्सरा उसके सामने अति उल्लास पूर्वक नृत्य कर रही है। वह उठा और उसी समय स्वप्न विचारक को बुलाया और इस दृश्य का परिणाम पूछा। उसने बताया कि निकट भविष्य में कोई अति महत्वपूर्ण सफलता आपके हाथ लगने वाली हैं। सिकन्दर के उत्साह का ठिकाना न रहा। उसने दूसरे ही दिन उस देश पर चढ़ाई करदी जिसके लिए वह योजनाएँ बना रहा था। बहुत ही शानदार विजय हाथ लगी। टाथर नगर प उसका झण्डा फहराने लगा।

स्वप्न में देखी गई अप्सरा का कोई अस्तित्व था या नहीं यह ठीक से नहीं कहा जा सकता, पर उसे जो साहसिक उमंग की उपलब्धि हुई उसे हजार अप्सराओं से अधिक कहा जा सकता है। वैसा आन्तरिक उल्लास जिसे भी मिलेगा वह सिकन्दर जैसी ही सफलताएँ प्राप्त करता चला जायगा, यह असंदिग्ध है।

असंयम मरण और कुछ नहीं हमारी निरन्तर की भूलों का ही दुष्परिणाम है। यदि सतर्कता बरती जाय तो हम शताब्दियों तक जी सकते हैं और अन्तिम साँस तक हँसते-खेलते उल्लासपूर्ण मनःस्थिति में रह सकते हैं। ध्यान यदि आन्तरिक संतुलन का रखा जा सके तो बाहरी क्रिया-कलाप में रहने वाली अवाँछनीय भूलें सहज ही घटती और मिटती चली जायेंगी।

बुढ़ापा आयु के आधार पर नहीं विचारों के आधार पर आता है। यदि ऐसा न होता तो तीस वर्ष के लोग बूढ़े और सत्तर वर्ष के जवान क्यों दिखाई पड़ते?

वैज्ञानिक जेक्त लूटो ने कितने ही प्राणियों का शारीरिक तापमान गिराकर उसकी प्रतिक्रिया का अध्ययन किया है और पाया है कि इससे इनका जीवन काल आश्चर्य रूप से बढ़ गया। उनका कथन है कि यदि मनुष्य का स्वाभाविक तापमान 98.6 से घटाकर आधा अर्थात् 49.3 किया जा सके तो आयु 20 गुनी बढ़ सकती है। 70 वर्ष जीने योग्य शरीर को 1400 वर्ष जिन्दा रखा जा सकता है।

मानवी जीवकोशों की सुदृढ़ता को परखते हुए कोलबिया विश्वविद्यालय के डा. एच. एस. ष्टड्डक्ड्ड ने कहा है यदि स्नायु उत्तेजना और रासायनिक विकृतियों से शरीर की रक्षा की जा सके तो मनुष्य की संरचना उसे 800 वर्ष तक जीवित रहने का अवसर दे सकती है।

कालगैट विश्व-विद्यालय के मनोविज्ञान विभाग ने अपने परीक्षणों से यह निष्कर्ष निकाला है कि शारीरिक श्रम की तुलना में नीरस मानसिक श्रम से कहीं अधिक थकान आती है।

खाद्य−पदार्थों में पाई जाने वाली ऊष्मा जिसे कैलोरी’ कहते हैं यदि कम मात्रा में मिले तो थकान आवेंगी। यह मान्यता भी अभी पूर्णतया निरस्त नहीं हुई है। पिछली शताब्दी के यह निष्कर्ष अभी भी दुहराये जाते हैं कि भोजन में ऊष्मा की मात्रा समुचित हो तो थकान से बचा जा सकता है।

यह माना जाता है कि 150 पौण्ड वजन का कोई व्यक्ति सोते समय 65 कैलोरी प्रति घण्टा खर्च करता है। लेटे रहने में 77, पढ़ने में 100, टाइप करने जैसे कामों में 145, चलने-फिरने में 200 और कड़ा परिश्रम करने में 300 कैलोरी प्रति घण्टा के हिसाब से खर्च होती है।

डा. वाल्डविन के अनुसार मनुष्य शरीर का तापमान तो 98.6 डिग्री रहता है, पर उसे अनुकूल 68 डिग्री तापमान का वातावरण ही पड़ता है। इससे अधिक ठण्डक या गर्मी होने पर उसकी कैलोरी शक्ति अधिक मात्रा में खर्च होने लगती है और थकान जल्दी चढ़ती है। डा. डीनाल्ड ए. लेयर्ड के अनुसार कोलाहल भर वातावरण में रहने वाले मनुष्य के 20 प्रतिशत थकान उस शोरगुल के कारण ही चढ़ती रहती है।

मेयोक्लीनिक के डा. केन्द्रिल ने कहा है चिड़चिड़ापन मनुष्य की थकान का सर्वविदित चिन्ह है। लेहीक्लीनिक के डा. एलेन का मत भी यही है—वे कहते हैं चिड़चिड़ा मनुष्य दया का पात्र है क्योंकि वस्तुतः वह गहरी थकान का मरीज होता है। उस पर क्रोध करने या बदला लेने से तो इस मरीज का और भी अहित होगा।

विज्ञानी पैट्रिक गेडेस ने अवाँछनीय प्रजनन और अत्यधिक कामुकता को जल्दी बूढ़े होने और जल्दी मरने का कारण बताते हुए कहा हैं—”आमतौर से यह कहा जाता रहा है कि मनुष्य का मरना निश्चित है इसलिए जाति नाश को बचाने के लिए उसे बच्चे पैदा करने चाहिए। यह दलील मृत्यु का डर दिखा कर बच्चे पैदा करने का उत्साह पैदा करती है, पर सच बात उलटी है। आदमी इसलिए मरता है, कि वह जल्दी और अधिक बच्चे पैदा करता है। वह जितनी दिलचस्पी बच्चे पैदा करने में लेगा उतनी ही जल्दी मरेगा। मौत से डरकर बच्चे पैदा करने की उपेक्षा यह अधिक बुद्धिमत्तापूर्ण है कि कम बच्चे पैदा करे और अधिक जिये।”

मौत का सबसे बड़ा आकर्षण कामोपभोग है जो तत्काल जितना मधुर लगता है, उतना ही अधिक वह जीवन शक्ति को समाप्त करने का आधार बनता है। कितनेक अबोध युवक नर−नारी अपने आपको बेतरह निचोड़ने में पिल पड़ते है। वासना की गर्मी उनकी जीवनी शक्ति को निरन्तर जलाती चली जाती है। सन्तानोत्पादन से स्त्रियाँ अपना स्वास्थ्य खो बैठती है और पिता को बच्चों के भरण−पोषण में अपना आपा बेतरह घुला देना पड़ता है। इस दुहरी विपत्ति को मोल लेने में युवा दंपत्ति कितने अधिक उत्साही देखे जाते हैं इससे प्रतीत होता है कि उन्हें जीवन और मरण के अन्तर का कुछ भी ज्ञान नहीं है।

एपिक्टेट्स कहते थे— रोग से स्वास्थ्य प्रबल है और मौत से जिन्दगी बलवान है। संसार बड़ा है, पर मनुष्य उससे भी बड़ा है। मनुष्य से भी क्या कोई बलिष्ठ हो सकता है इसका उत्तर एक ही है—’हाँ−उसका आत्मा−भी इतना बड़ा है जिसकी सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती।’

मिस्र के पिरामिडों में गढ़ी हुई ममियो की बगल में कुछ उपदेश सूत्रों सहित शिलालेख रखे हुए पाये गये हैं जिन पर लिखा था—”शरीर की बजाय वातावरण को सुन्दर बनाओ काया की नहीं आत्मा की रक्षा करो। रोगी का इलाज उतना जरूरी नहीं जितना उसे यह समझाना कि निरोग कैसे रहा जा सकता है। मन को स्वच्छ रखो तो सौंदर्य में कभी कमी नहीं पड़ेगी।

सूक्ष्मदर्शी महा पण्डित वट्रेण्डरसेल ने चेतावनी दी है इस वैज्ञानिक युग में अब हमारे सामने एक ही मार्ग शेष है कि प्रकृति की ओर वापिस लौटे शहरों से भाग कर गांवों में अपना सिर छिपायें। भड़कीली विडंबनाओं से बचें और सादगी की हलकी फुलकी रीति−नीति अपनाये। यदि जीना है तो उसके अतिरिक्त और कोई मांग नहीं थकान शारीरिक श्रम से भी होती है और अपौष्टिक आहार से भी आती है,पर ये दोनों ही कारण कम महत्व के हैं। उनसे उतना हर्ज नहीं होता जितना मानसिक तनाव और अप्राकृतिक रहन−सहन अपनाने के यदि भीतर से हलका फुलका रहा जा सके तो स्नायु संस्थान को उत्तेजित करने वाले बाह्य कारण कुछ अधिक हानि न पहुँचा सकेंगे।

थकान के बारे में पिछले दिनों इतना ही समझा जाता रहा है कि कठिन और लगातार शारीरिक श्रम करने से थकान आती है। पर अब उसकी जड़ मानसिक स्थिति में खोजी गई है। डा. स्ट्रेट फोर्ड का कथन है कि जब तक आशाओं, योजनाओं और उत्तरदायित्वों की प्रेरणा छाई रहती है तब तक उत्साह भी बना रहता है और बल भी। पर जब वे बोझ सिर से उतर जाते हैं तो आदमी बुरी तरह थक जाता है और निठल्ला मस्तिष्क थकान से चूर चूर होकर जराजीर्ण होता चला जाता है।

जापान के महाकवि योननाणोची की एक कविता है—हे प्रभु, तू और कुछ दण्ड भले ही देना, पर थकान मत देना। मुझे भय है कि यह कुलटा मेरा और तेरा वियोग करा देगी।*


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