प्रजातन्त्र पद्धति के जन्म दाता दार्शनिक रूसो अपनी गरीबी के दिनों में किसी छोटी घरेलू नौकरी में लगे हुए अपना निर्वाह करते थे। मालिक के घर एक प्रीतिभोज हुआ। अतिथि गण किसी ऐतिहासिक घटना पर चर्चा करे रहे थे। बात मतभेद से बढ़कर विवाद तक पहुँच गई। चाय परोसते हुए रूसो ने नम्र शब्दों में अपनी वृ्रप्तटता के लिए क्षमा माँगते हुए उन पुस्तकों के संदर्भ बताये जिनमें विवाद के विषय पर प्रमाण का उल्लेख था। पुस्तक मँगाई गई और समाधान मिल गया।
घरेलू नौकर की इतनी विद्वता देखकर आगंतुकों ने उससे पूछा−भला तुमने किसी विद्यालय में शिक्षा पाई। रूसो और भी नम्र हो गये। उनने इतना ही कहा − मैंने मुसीबत के स्कूल में शिक्षा पाई हैं क्योंकि वहीं किसी प्रतिभा का निखारने के लिए सबसे उपयुक्त शिक्षा केन्द्र रहा है।