ईश्वर विश्वास और आत्म-विकास की परम्परा

October 1969

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विज्ञान मनुष्य को किस तरह के आचरण की प्रेरणा देता है? थोड़ी देर के लिये इस प्रश्न को मन से बिल्कुल निकाल दें और यह देखें कि विज्ञान करता क्या है तो हमें पता चलेगा कि विज्ञान की दौड़ भी शाश्वत आकांक्षाओं की पूर्ति के लिये है। अर्थात् वह स्वीकार करता है कि संसार में कुछ रहस्यपूर्ण अन्तिम सत्य भी है, जो अभी यंत्रों द्वारा जाना नहीं गया। संक्षेप में अपूर्णता से पूर्णता की प्राप्ति का प्रयत्न ही विज्ञान है।

विज्ञान दुःखी लोगों को, बच्चों को खिलौने देकर प्रसन्न करने के समान, प्रसन्न करता है। नक्षत्रों की गति विधि के बारे में भविष्य-वाणी करता है, परमाणुओं की रचना और पदार्थों में क्या है, उसका विश्लेषण करता है। वह इस प्रकार मनुष्य जीवन की रक्षा का प्रयत्न करता है। प्रकृति की अनन्त क्लिष्टता को तो बताने का प्रयास करता है, किन्तु उत्तेजना, क्रोध, प्रेम, लालसा, उत्कण्ठा आदि भाव क्या हैं, क्यों हैं, कहाँ से उद्भव होते हैं, यह कुछ नहीं बताता और इसीलिये वह भगवान् के सम्बन्ध में सोचने को विवश करता है। विज्ञान इस प्रकार स्वयं ही ईश्वर का भाव (आइडिया) प्रदान करता है।

अपने 23 जुलाई के कथन में ह्यू स्टन (अमेरिका) के अन्तरिक्ष उड्डयन के संचालक डा वार्न ने चन्द्र-यात्रा की सफलता पर अपनी अभिव्यक्ति प्रस्तुत करते हुए बताया- “इस महान् सफलता से हमें ऐसा लगता है कि मनुष्य जीवन के सम्बन्ध में हम अब तक कहीं मूर्खतापूर्ण दृष्टिकोण न लिये बैठे हों।” इन शब्दों में अपने भौतिकवादी दृष्टिकोण से फिसलने और आध्यात्मिक सत्य को स्वीकार करने का स्पष्ट संकेत है। ब्रह्माण्ड की दूरियाँ जितनी कम होंगी, ईश्वरीय सत्ता के अस्तित्व का भाव उतना ही तीव्र होगा। इसलिये विज्ञान ईश्वर को प्रमाणित करता है, ऐसा मानने में कोई संकोच नहीं होना चाहिये।

वृद्धावस्था में जब मृत्यु समय समीप होता है तो भगवान् की याद बहुत तीव्र हो उठती है। नीत्से और फ्रायड जैसे महान् नास्तिकतावादी और व्यक्तिवादी चिंतकों को भी अपने जीवन के अन्तिम चरण में अपने सिद्धान्तों को करवट देनी पड़ी थी। जिन परिस्थितियों में विज्ञान सीमित और असफल हो जाता है, वहीं वह ईश्वरीय चिन्तन देने के लिये विवश हो जाता है।

पूर्ण स्वतन्त्रता, बुद्धि एवं सद्विवेक के रूप में भगवान् ने अपना तेज मनुष्य को प्रदान किया। इसी को कहते हैं कि भगवान् तुम्हारे अन्दर है। हमारे भीतर की जो विभिन्न प्रकार की प्रवृत्तियाँ हैं, वह दरअसल ईश्वर को मापने की इकाई हैं। जैसे कोई पत्थर में भार है, यह तो हम जानते हैं पर कितना भार हैं, यह जानने के लिये भार की ही कोई मन, सेर, छटाँक, पौण्ड आदि इकाई काम में लाते हैं। थान के बान कपड़ों में विस्तृत लम्बाई होती है पर उसे नापा तभी जा सकता है, जब गज, फिट, इंच के रूप में लम्बाई नापने की छोटी से छोटी इकाई हो। यह व्यक्ति इतिहास का कितना जानकार है, उसके लिये उस व्यक्ति से इतिहास के ही छोटे-छोटे प्रश्न पूछ कर उसके शान की तौल करते हैं। ईश्वर की इकाई मनुष्य है, मनुष्य सदैव योजना बद्ध तरीके से कुछ विशेष प्रकार की इच्छाएँ और आदर्श मान्यतायें लेकर जी रहा है, इसलिये हम विश्वास करते हैं कि एक विस्तृत क्षेत्र में भी ऐसी प्रवृत्तियों वाली मूक किन्तु सशक्त चेतना काम अवश्य करती है।

भगवान् को ‘ठोस’ रूप (फिजिकल फार्म) में नहीं जाना जा सकता। उसे आध्यात्मिक प्रयत्नों द्वारा उसी प्रकार अनुभव किया जा सकता है, जिस तरह विद्युत, चुम्बकत्व शब्द और ताप का कोई ठोस रूप नहीं हैं, किन्तु विशेष परिस्थितियों में उन्हें अनुभव किया जा सकता है।

मुख्य संकट ईश्वर में अविश्वास नहीं प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में इस तथ्य से तो कोई इनकार कर ही नहीं सकता कि कोई अज्ञात सत्ता सृष्टि में काम कर रही है। मुख्य बाधा उसके गुणों सम्बन्धी है। हम प्रतिदिन लोगों को अन्याय करते देखते हैं पर उन्हें दण्ड नहीं मिलता, इसलिये ईश्वर की न्याय परायणता और सर्वव्यापकता वाली बात गलत हो जाती। यदि भगवान् सर्वशक्तिमान है तो वह प्रारम्भ से ही पूर्ण मनुष्य का निर्माण क्यों नहीं करता? क्यों मनुष्य अनैतिकता के लिये आकृष्ट होता है। यह प्रश्न वास्तव में गम्भीर हैं और उनका तो तार्किक उत्तर हमारे पास नहीं है।

पर यदि हम यह विश्वास कर लें कि ईश्वर सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक और सबके साथ न्याय करने वाला है तो हमें यह भी विश्वास करना पड़ेगा कि इतने बड़े विराट् ब्रह्माण्ड की व्यवस्था जिसमें प्रत्येक जीवित प्राणियों वाले ग्रह-नक्षत्रों के लिये सूर्य प्रकाश, चन्द्र प्रकाश, वृक्ष-वनस्पति अन्न, जल आदि से लेकर उन्हें क्रियाशील रखने तक की जिम्मेदारी को पूरा करने के लिये, वह समय से बँधा हुआ (बाउण्ड) नहीं हो सकता। हमारे लिए आयु के सौ वर्ष बहुत अधिक है पर जिसके लिये समय कोई अवरोध (डाइमेन्शन) है ही नहीं, उसके लिये सौ वर्ष एक क्षण की भाँति है, एक क्षण मनुष्य को आत्म-विकास के लिये दिया गया था और उसे भगवान ने पूर्ण स्वतन्त्र इसलिये बनाया कि वह किसी भी सुविधाजनक माध्यम से अपने आत्म-विकास की प्रक्रिया को पूर्ण कर ले यदि उस क्षण का उपयोग मनुष्य समझ बूझकर नहीं करता, जैसा है उससे भी पदच्युत होने का हठ करता है तो दूसरे क्षण उसकी क्या स्थित हो यह देखना भगवान का काम है। “कर्मणा गहनो गति” में आत्म-प्रवंचना और आत्म-विकास की सिद्धि की इस रहस्यमयता को ही विस्मय से देखा है।

मान लीजिए एक व्यक्ति का जीवन 100 लाख वर्ष है और उसके लिये 10 लाख आदमियों और समस्याओं का प्रबन्ध करना है तो वह मनुष्य के उपरोक्त तर्कों को सन्तुष्ट कदापि नहीं कर सकेगा। लेखपाल, तहसीलदार को हर समय केवल अपने ही हलके के बारे में नहीं उलझाये रख सकता, क्रम-क्रम से वह सबको देखता है। कलक्टर गवर्नर और राष्ट्रपति के कार्य-क्षेत्र जितने बड़े है, उन्हें अपने ढंग से काम करने के लिये उतने ही अधिकार प्रदान किये गये है और उन कर्तव्य और अधिकारों का प्रयोग वह अपने नियमों और संवैधानिक ढाँचों में करता है, वह प्रत्येक व्यक्ति की बात हर समय सुनने के लिये बँधा नहीं रहता।

एक व्यक्ति यदि केवल गिनती ही करे तो 200 तक गिनने में उसे एक मिनट का समय लग जायेगा। 12000 तक गिनने के लिए उसे पूरा एक घण्टा और 288000 तक गिनने के लिए उसे एक सम्पूर्ण दिन लगाना पड़ेगा, इस बीच पहले गिने अक्षरों की यदि पुनरावृत्ति न हो और वे पूर्ण स्वतन्त्र जान पड़ें तो यह नहीं माना चाहिये कि गिनने वाला कमजोर है या उसे गिनती गिनना नहीं आता। उस गिनने वाले को मालूम है कि अभी तो 105120000 तक गिनना है, उसके लिए एक वर्ष पड़ा है। सृष्टि का प्रथम व्यक्ति यदि उस दिन से गणना करना शुरू करे जिस दिन सृष्टि का आविर्भाव हुआ हो तो केवल एक अरब तक गिनने के लिए उसे 9512 वर्ष 34 दिन 5 घंटे 20 मिनट का समय लगेगा। जबकि अकेली पृथ्वी पर केवल मनुष्यों की संख्या 3 अरब के लगभग है, तब फिर हर व्यक्ति के साथ ईश्वरीय हस्तक्षेप यदि 28536 वर्ष 102 दिन और 16 घंटे तो देने ही पड़ेंगे।

सृष्टि के समय को कोई आदि अन्त नहीं, उसी कर्मफल के साथ भगवान को अल्पकालिक व्यवस्था की भाँति नहीं जोड़ा जा सकता। उसकी कार्य-विधि अपनी तरह की हे और उसे हम केवल आत्म-विकास के गहन अध्ययन और मनुष्य के लाखों वर्ष के अतीत का इतिहास पढ़कर ही निश्चित कर सकते है।

मनुष्य अपनी अवस्था में रहकर ही अपना उद्देश्य पूरा कर सकता है। उसे चाहिये तो यह था कि वह ईश्वरीय योजनाओं में साथ देता। यह मानता कि आत्म-प्रगति का सारा भार अपने ऊपर ही है और इस तरह वह किसी व्यक्ति, भाग्य या भगवान पर निर्भर न होकर अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिये आप ही प्रयत्नशील होता।

प्रगति के लिए, विकास के लिए, साधनों के समान स्वतन्त्रता भी आवश्यक है, तभी तो मनुष्य किसी तरह का उद्यम उद्योग सफल कर सकता है। आत्म-विकास के लिए स्वतन्त्रता की आवश्यकता थी सो मनुष्य को भगवान ने कर्म के लिए स्वतन्त्र कर दिया। गीताकार ने कहा-कर्मण्येवाधिकारस्ते कर्म करने के लिये तू स्वतन्त्र है, किन्तु उद्धरेदात्मनात्मान” अपने आपको उद्धार भी तू आप ही कर। भगवान ने किसी बात के लिये नियन्त्रण नहीं लगाया यदि वह ऐसा करता तो वह स्वयं भी पूर्णग्रह का दोषी ठहराया जा सकता था।

उसने अपना प्रकाश भी दिया है ताकि मनुष्य सही अर्थों में अपने व्यक्तित्व और महानता, अनुसन्धान और आदर आप करें। अपनी बुद्धि के द्वारा वह आप निर्णय करे कि उसे किन कामों से सुख और सन्तोष मिलता है, किससे नहीं। उसने बुद्धि को ज्यादा से ज्यादा चौड़ा करके अपनी तरह विराट की सम्भावनाओं पर विचार करके अपना कर्तव्य निर्धारित करने की क्षमता भी दी हैं ईश्वर प्रदत्त मुक्त इच्छा (फ्री विल) का उपयोग हमें आप ही करना पड़ेगा और ईश्वरीय अनुभूति की ओर अग्रसर होना पड़ेगा, इसके लिए परमात्मा दोषी नहीं, प्रतिबन्धित भी नहीं। हाँ वह साक्षी अवश्य है और जब भी कोई मनुष्य घृणित या अपकर्म करता है तो वह भीतर ही भीतर यह अवश्य कहता है कि “इससे तुम्हारी आत्मा का हनन हो रहा है, यह कर्म न करो।" अब यह मनुष्य की इच्छा है कि वह उससे रुके या न रुके।

ईश्वर विश्वास हमें अच्छाई को, गुणों को, एक या अनेक भगवान के रूप में प्रदर्शित करता है। बुराई को वह उसी प्रकार बुरी आत्माओं के रूप में दर्शाता है। अच्छाई भविष्य में प्रसन्न जीवन का द्योतक है, इसलिये हम उसे आत्म विकास के लिये अनिवार्य कर देते है, बुराई का भविष्य भी उसी प्रकार सदैव बुराई और अप्रसन्नता में दिखाई देता है, इसलिये बुराई को आत्म-विकास के मार्ग का अवरोध मानकर निरन्तर शुद्ध और स्वच्छ जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं

कोई भी ईश्वरवादी महापुरुष हुए है उनके जीवन में अच्छाइयाँ ही अच्छाइयाँ हम पाते है, इसलिए हमें यह कहने का अधिकार हो जाता है कि अच्छे से अच्छे बर्ताव, व्यवहार वाला व्यक्ति ईश्वर को भी आप पा लेता है, किसी अन्य सहारे और साधन की उसे आवश्यकता भी नहीं होती।

अच्छाई के विकास में हमें चिन्ता, दुःख, और भय भी सामने आये तो भी उसके सुखप्रद परिणाम की आशा से हमें उस प्रक्रिया को बन्द नहीं कर देना चाहिए। सरल शुद्ध और सहन करने योग्य दुःखों ने सदैव आत्मा को बलवान ही बनाया है, उसे ईश्वरीय दिव्य शक्तियों की अनुभूति ही कराई है। यदि यह दुःख प्रेम, दया, कृतज्ञता और विश्वास का अन्त करते हो, तब हमें एक वीर योद्धा की भाँति उनका सामना भी करना चाहिये, इससे हम शुद्ध सरल और अनुभूति प्रद सुख प्राप्ति की दिशा में ही अग्रसर होंगे। आत्म-विकास का यही लक्ष्य भी है। ऐसा ही अभ्यास अपने जीवन में करना चाहिये।


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