कथा - अथातो ब्रह्म जिज्ञासा

October 1969

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“अथातो ब्रह्म जिज्ञासा” तात्! जिसकी ब्रह्म-दर्शन की जिज्ञासा जितनी प्रबल होती है, वह उतनी ही शीघ्रता से नारायण का दर्शन करता है, ब्रह्म ही क्यों वत्स! जिज्ञासा तो मनुष्य को किसी भी कला, किसी भी विद्या का पारंगत बना देती है। हमारे आशीर्वाद तुम्हारे साथ हैं, तुम आश्रम में रहो और तप करो एक दिन तुम्हें निश्चित हो भगवान् का साक्षात्कार होगा यह कहकर महर्षि ऐलूष ने राजकुमार नीरवता की पीठ पर हाथ फेरा और उन्हें सामान्य शिक्षार्थियों की तरह छात्रावास के एक सामान्य कक्ष में रहने का प्रबन्ध कर दिया।

नीरवता पहली बार अपना सामान अपने हाथों से उठाया। वे प्रथम बार एक ऐसे निवास में ठहरें, जिस तरह के निवास में उनके दास-दासियाँ भी नहीं रहते थे। नीरवता ने उस दिन ही उतना सादा भोजन ग्रहण किया था। आश्रम व्यवस्था के अपमान की बात न रही होती तो वह उस थाल को, जो उनके लिये परोसा गया था, दूर फेंक देते। सायंकाल होने में विलम्ब लगा रहेगा पर जीवन की इन प्रारम्भिक विपरीत दिशाओं में अविलम्ब ही मस्तिष्क में क्राँति, विचार-मन्थन प्रारम्भ कर दिया। इतना शुष्क जीवन नीरवता ने पहले कभी नहीं देखा था, इसलिये उससे अरुचि होना कुछ स्वाभाविक ही था।

शयन में जाने से पूर्व उन्होंने एक अन्य स्नातक को बुलाकर पूछा-तात् आप कहाँ से आये हैं? आपके पिता क्या करते हैं?आश्रम में निवास करते आपको कितने दिन हो गये? क्या आपने सिद्धि प्राप्त कर ली? क्या आपने ईश्वर का साक्षात्कार कर लिया?”

प्रश्न करने की इस शैली पर स्नातक को हँसी आ गयी, उसने कहा- “मित्र! शेष प्रश्नों का उत्तर बाद में मिलेगा, अभी आप इतना ही समझ लें, मैं उपकोशल का राजकुमार हूँ और यह मेरा समापन वर्ष है, आप यहाँ प्रवेश ले रहे है। “तरुण स्नातक ने अपने तेजस्वी ललाट का, वक्ष स्थल उत्पन्न कर ऊपर उठाया और ऋषि ऐलूष जहाँ रहते थे, उस और चला गया।

नीरवता किंकर्तव्यविमूढ़ वस्तुतः मुखाकृति राजकुमारों से कम नहीं पर यह सभी स्नातक इतनी सरल वेषभूषा में, इतने मौन धारी और इतने अनुशासन बद्ध क्या इनकी अपनी इच्छाएँ कुछ हैं ही नहीं? क्या इनकी सुखाकाँक्षायें नष्ट हो गई है? सच पूछा जाये तो नीरवता का माथा फट गया होता, इस तरह के प्रश्नों से, किन्तु अच्छा हुआ उन्हें निद्रा देवी ने विश्राम दिया।

प्रातःकाल सूर्योदय से दो घड़ी पूर्व ही जब भगवती रूपा के आगमन की तैयारी हो रही थी, सब स्नातक जाग पड़े, प्रार्थना हुई, उसी हलचल में नीरवता की निद्रा टूट गई। नीरवता ने शैया का परित्याग किया। शरीर हल्का था। शौच-स्नान से निवृत्त होकर वह गायत्री-वन्दन के लिये आसन पर बैठे। आज आश्रम जीवन का प्रथम दिन था। ध्यान तो नहीं जमा पर चिन्तन से एक बात सामने आई-जब देह नष्ट हो जाती है, तब भी क्या राजा ड़ड़ड़ड़ स्त्री-पुरुष बाल-वृद्ध का भेद रह जाता है, नहीं नहीं। मनने कहा नहीं। जीवन के दृश्य भाग नश्वर हैं, क्षणिक हैं, असन्तोषप्रद है, जब तक मनुष्य पूर्णता नहीं प्राप्त कर लेता, तब तक उसे ऐसी कोई मान्यता नहीं बना लेनी चाहिये। इस चिन्तन से कल वाला बोझ हल्का हो गया। राजकुमार नीरवता ने मान लिया कि वह भी शरीर में अभिव्यक्त, अव्यक्त आत्मा है और उसे पाने के लिये अहंभाव छोड़ना ही पड़ता है।

किन्तु यह अहंभाव भी कितना बलवान् है कि मनुष्य को बार-बार अपने शिकंजे में कसता ही रहता है। उससे यदि कोई बचाव कर पाता है तो वह है निरन्तर विचार भावनाओं के प्रवाह ओर प्रबल निष्ठाएं। नीरवता ने विचार करने की कला सीखी, भावनाओं को उभार देना सीखा तो भी अहंकार का अपराध अभी पीछा नहीं छोड़ रहा था। वह कभी-कभी सह स्नातकों से ही झगड़ बैठते, कभी-कभी शिक्षकों से भी दुराग्रह कर बैठते। उस समय उन्हें लगता कि उनके पक्ष में न्याय है पर जब भी वह विचार की तुला उठाते और विराट् जीवन की तुलना में अपनी छोटी-सी इकाई को तोलते तो अहंकार तिरोहित हो जाता। मान मर्यादा, मोह, दम्भ, दुराग्रह सब कुछ तिरोहित हो जाता। नीरवता अपने को शुद्ध चेतन, अर्थात् आत्मा अनुभव करते शिक्षण का यह क्रम ही उनके अन्तर को परिवर्तित परिष्कृत और विकसित करता हुआ चला जा रहा था। मान्यताओं के प्रति दृष्टिकोण परिवर्तन के साथ-साथ उनका व्यक्तित्व भी विकास होता जाता। तो भी अभी वे अविराम स्थिति में ही थे। अपरिपक्व अवस्था में ही थे।

आश्रम का नियम था कि सभी स्नातक भिक्षाटन के लिये जाया करते थे। तब भिक्षा केवल सत्कार्य के लिये संन्यासियों को भोजन के रूप में और आश्रमवासी ब्रह्मचारियों को धान्य के रूप में दी जाती थी, इसके अतिरिक्त और कोई भी व्यक्ति भिक्षा नहीं माँग सकता था। आश्रम राजाओं के दान से चलते थे तो भी यह परम्परा थी, स्नातक अपने आपको समाज का एक बालक ही समझें, वे कभी अहंकार न करें, इसलिये भिक्षावृत्ति प्रत्येक स्नातक के लिये आवश्यक थी। वीरव्रत को इस तरह का आदेश प्रथम बार मिला था। एक बार उनका वर्षों का प्रसुप्त अहंभाव पुनः जाग पड़ा था। एक राजकुमार कभी भिक्षा नहीं माँग सकता। इस तरह का प्रतिवाद उनके अन्तःकरण ने किया था, किन्तु पुनश्च वही अर्थात् ब्रह्म जिज्ञासा नीरवता को अपने आपको दबाना ही पड़ा।

भिखारी नीरवता। भिक्षापात्र लिये एक ग्राम में प्रविष्ट हुये। किसी के दरवाजे जाते, उन्हें लज्जा अनुभव हो रही थी। ग्राम प्रमुख की कन्या विद्या ने उस संकोच को पहचाना। उसने एक मुट्ठी धान्य लिया और नीरवता के समीप ले जाकर भिक्षापात्र में डालने की अपेक्षा भूमि पर गिरा दिया। स्नातक ने पूछा-भद्रे यदि जान-बूझकर अन्न को फेंकना ही था तो आप उसे लेकर यहाँ तक लाई ही क्यों?”

विद्या ने हँसकर उत्तर दिया- “तात्! मैंने ही क्यों संसार ही ऐसा करता है, हमने जीवन किसके लिये ग्रहण किया ओर उसका उपयोग कहाँ करते हैं? हम किस उद्देश्य से आते है और वह उद्देश्य हमें पूरा करते कितना संकोच, कितना भारीपन लगता है, क्या यह धान्य बाहर गिराने की तरह का ही अपराध नहीं हुआ। “

नीरवता की आँखें खुल गई। किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति के लिये दृढ़ता अपेक्षित है, ऐसा निश्चय कर लिया जब उन्होंने तो उनकी लज्जा और उनका अहंभाव धुल गया। और वे प्रसन्नतापूर्वक संग्रह भिक्षाटन के लिये आगे बढ़ गये।

भिक्षापात्र को आश्रम के कोष में पहुँचा आये नीरवता, वह अब उस बोझ से हल्के हो चुके थे, जिसने अब तक के जीवन को जटिल, भ्रमपूर्ण और असंतोष में रखा था। नीरवता जब सायंकाल संध्या करने के लिये बैठे तो शून्य की शांति में इस तरह खो गये, जैसे उनका बाह्य जीवन से सम्बन्ध ही न रहा हो। उनकी इन्द्रियाँ, उनका मन, उनकी सम्पूर्ण चेतना देह के अहंभाव से उठकर अनन्त अन्तरिक्ष में फैल गयी थी, वे अब संकीर्ण परिधि से निकलकर अनन्तता की अनुभूति कर रहे थे। अपने आपको निर्मल, स्वच्छ, धुला हुआ, शान्त, संतुष्ट और बहुत हल्का-फुलका अनुभव कर रहे थे।


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