जैविक औषधियाँ और जन-स्वास्थ्य से खिलवाड़

October 1969

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17 मई 1958 को लन्दन से छपने वाले दैनिक अख़बार ‘डेली मिरर’ में जीर्ण और खोये हुये स्वास्थ्य को पुनः युवावस्था में बदलने का विज्ञापन छपा था। यह प्रयोग धनी आदमियों को उनकी विलासिता से शेष बचे शरीर को फिर से यौवन में बदलने और खूब पैसा कमाने के लिये किया गया है। हुआ है यह सब मानवता की सेवा के नाम पर उसके पीछे उद्देश्य और औषधि-निर्माण की प्रक्रियाएँ कितनी दानवीय हैं, आज के शिक्षित समाज को यह जानने की आवश्यकता ही कहाँ है। इंग्लैण्ड के एक डा० नीहान्स महोदय को यह औषधि बनाने का श्रेय मिला है। गर्भिणी भेड़ों के भ्रूण निकाल-निकाल कर उनका सत निकाला और उसे जवानी की दवा के रूप में प्रयोग किया। इस दवा से कुछ महीनों के लिये ही उत्तेजना आई और फिर वे सेवन-कर्ता और भी अधिक गई-गुजरी स्थिति में चले गये।

30 नवम्बर 1960 के ‘एलू यूनियट’ दैनिक पत्र (यह पत्र अमेरिका के ब्राजील राज्य में फोर्टालीजा नगर से निकलता है) में ‘वैक्सीनेशन आन सन्टे’ शीर्षक से एक समाचार छपा, जिसमें एक टीका लगाने से 20 व्यक्तियों के पागल होकर मर जाने की सूचना दी गई है। यह टीका 108 व्यक्तियों को तब तक और भी लग चुका था, जो या तो अस्पताल में अपना इलाज करा रहे थे अथवा पागल होकर घरों में भूँक रहे थे।

यह टीका निरन्तर बीस वर्षों तक पशुओं को मार-मारकर और बुरी तरह के प्रयोग और परीक्षणों के बाद फोर्टलीजा को स्वास्थ्य डाइरेक्टोरेट के डाइरेवटर डा लिटन ने इस आशा से बनाया था कि उससे विश्व भर में उनकी ख्याति हो जायेगी और अथाह धन मिलेगा। पर परीक्षण के नीचे आते ही टीके के विषाक्त पहलू सामने आ गये और उसने तीन लाख आबादी वाले इस शहर में हाहाकार मचा दिया। एक घर की तो ऐसे बरबादी हुई, जिसका वर्णन भी नहीं हो सकता। एक लड़के की इस टीके से मृत्यु हो गई। दूसरा बिलकुल कुरूप हो गया। बाप स्वयं भी पागल हो गया। प्रतिशोध वश वह डाक्टर के पास पहुँचा और उसे भी बुरी तरह घायल कर दिया। सारे नगर में इस टीके का आतंक छा गया, तब सरकार ने सड़कों पर लाउडस्पीकर लगवा-लगवाकर लोगों को उससे बचने और जो खरीद चुके हैं, वापिस करने की आज्ञा प्रसारित की, जबकि इससे पूर्व वह सरकारी अधिकारियों द्वारा प्रमाणित भी किया जा चुका था।

यह दुष्परिणाम आज के शिक्षित समाज को यह सोचने के लिये विवश करते हैं कि कुछ अधिकारियों की वैज्ञानिक प्रामाणिकता को ही शिरोधार्य नहीं किया जा सकता। प्रकृति का नियम है, दण्ड -बुरे कार्य के दण्ड से यदि हम बचना चाहेंगे तो वह प्रतिक्रिया और भी तीव्र और सामूहिक होगी, उसका दुष्परिणाम सारे समाज को भोगना पड़ेगा। ऐसा ही सब कुछ आज हो रहा है और यदि हम उससे बचना चाहते हैं तो हमें मनुष्य जीवन के सूक्ष्म, धार्मिक, ईश्वरवादी, मानवतावादी पहलुओं को स्वीकार करना ही पड़ेगा। अन्यथा एक दिन मनुष्य, मनुष्य को ही खाने लगेगा और अब जो थोड़ी बहुत स्नेह, उदारता का प्रकाश रहा है, वह भी निश्चित रूप से नष्ट हो जायेगा।

“वैज्ञानिक अन्ध-विश्वास और उसकी लाल रोशनी” शीर्षक से पिछली जुलाई 69 की अखण्ड-ज्योति में एक लेख दिया गया था, उसमें बताया गया था कि औषधियों के लिये प्राणियों की किस प्रकार हिंसा की जाती है। कैसे-कैसे उत्पीड़ित करके उन पर प्रयोग किये जाते हैं। उनके रक्त, मल-मूत्र से जाने कैसी-कैसी औषधियाँ बनती और जन स्वास्थ्य सेवा के नाम पर प्रयुक्त की जाती हैं। यदि विश्लेषण करके देखा जाये तो यह सब कुत्सित प्रयोग केवल व्यवसाय बहुत धन कमाने अथवा नोबुल पुरस्कार के लोभ में किये गये होते हैं। सेवा तो तथाकथित प्रयोग परीक्षण और औषधि निर्माण का ऊपरी खोल है, जिससे कि हिंसा की कुत्सा ढकी और छिपी रहे।

उत्पीड़ित पशुओं के शरीर का माँस, मल-मूत्र मनुष्य जीवन को किस प्रकार पीढ़ी दर पीढ़ी कुसंस्कारित करता जा रहा है, इसका स्पष्ट निर्णय करना हो तो पाठकों को पंजाब और उत्तर प्रदेश के उन क्षेत्रों की यात्रा करनी चाहिये, जहाँ आम अधिक पैदा होते हैं। इन प्रान्तों में कई देशी आमों के नाम सौंफिया, हिंगहा, केशरी, कपूरी आदि होते हैं। यह नाम इसलिये होते हैं कि इन आमों में सौंफ, हींग, केशर और कपूर की सी सुगन्ध भी भाया करती है। यह सुगन्ध अपने आप नहीं आती। किसान आम की गुठली रोपने से पहले सौंफ, हींग, केशर आदि जिस किसी तरह की सुगन्ध वाला आम चाहता है उसके घोल में उस गुठली को डाल देता है। तीन-चार दिन उसी में पड़ी रहने पर वह गुठली उस वस्तु के गुण ग्रहण कर लेती है। इसके बाद गुठली बो देते हैं, यदि गुठली सौंफ के घोल में रखी गई है तो उस आम के वृक्ष में आने वाले सभी फल सौंफ की सुगन्ध वाले होते हैं। किसी भी आम की गुठली लेकर उसका रासायनिक विश्लेषण करें तो उसमें सौंफ नाम की कोई वस्तु नहीं होगी पर इस आम की गुठली चाहे कहीं भी, चाहे कई पीढ़ियों बाद कहीं लगाई जाये तो भी उसके फलों में तब तक वही सुगन्ध बनी रहेगी, जब तक उससे भी तीव्र प्रभाव से गुठली को संस्कारित न किया जाय।

संस्कार भौतिक प्रकृति के गुण नहीं अत्यन्त सूक्ष्म और मनोमय चेतना है पर उसकी सत्यता उपरोक्त प्रयोग से ही परखी जा सकती है। अब जबकि भेड़, सुअर, बन्दर, कुत्ते, बिल्ली, चूहे, कबूतर आदि पशु-पक्षियों के दुर्गुण युक्त मल-मूत्र रक्त-माँस शरीर में औषधि रूप में जायेंगे तो उसके क्या प्रभाव होंगे? यह हममें से प्रत्येक व्यक्ति को विचारणा ही चाहिये। यह अन्धाधुन्ध प्रयोग संस्कार ही नहीं स्वास्थ्य के लिये भी बड़े घातक हैं। अमेरिका, इंग्लैण्ड और फ्राँस में आज ही जितना अधिक वीर्य-रोग बढ़े हैं, वही इतनी बड़ी चिन्ता के कारण हैं कि वहाँ कुछ दिनों में ही पैदा होने वाला कोई भी बच्चा ऐसा न होगा, जो वीर्य रोग से बचा होगा। रूस को विश्व में बढ़ रहे पूँजीवाद का उतना खतरा नहीं, जितना अपने देश के नवयुवकों में बढ़ रही नपुंसकता का था। इंजेक्शनों, औषधियों और आहार में सिवाय विष, कीटाणु और रक्त-माँस के, हमारे शरीरों में और जाता भी क्या है। अब उसके दुष्परिणामों की कल्पना भी हमें ही करनी चाहिये।

आज का वैज्ञानिक संसार औषधि क्षेत्र में खूब उन्नति कर रहा है। नया रोग पैदा होने में कम समय लगता हैं, उसके इलाज बनने में देर नहीं लगती। चमत्कारी औषधियाँ तुरन्त तैयार होती हैं और सजी-सजाई वेषभूषा में सभ्य ओर शिक्षित लोगों तक पहुँचती है। लोग दवाओं की प्रशंसा भी करते हैं, पैसे भी देते हैं और अनजान में ही नये-नये रोगों की जड़ें अपने शरीर में भरते चले जाते हैं। इन बुराइयों की विस्तृत जानकारी कोई पढ़ना चाहें तो उसे प्रसिद्ध अमेरिकी वैज्ञानिक डा डब्ल्यू हिम्स की पुस्तक - ‘डाक्टरों के विरोध में’ (रिवेल्ट अगेन्स्ट डार्क्टस) और डा नार्मन बार्नबी एमूडी की पुस्तक डाबटरी अन्धेर और पाप’ (मेडिकल चाओस एण्ड क्राइम) पढ़ना चाहिये। उन्होंने इन पुस्तकों में लिखा है कि आधुनिक विज्ञान बिलकुल खोखला है और औषधियों के नाम पर मानवता एवं जनस्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। इन्होंने लिखा है कि स्टेप्टोमाइसीन के प्रयोग से आँखों और कानों में खराबी आती है। पेन्सिलीन से चमड़ी में दूषित प्रतिक्रिया होती है। क्लोरटेट्रासाइक्लीन और आक्सीटेट्रासाइक्लीन के प्रयोग से पेट में अन्न पचाने वाले कीटाणु नष्ट हो जाते हैं, इनमें तीव्र विष होता है। क्लोरम्पैनिकोल हड्डियों के द्रव में खराबी उत्पन्न करता हैं, जिससे शरीर का रक्त सूख जाता है। एलोपैथी की प्रायः सभी औषधियाँ तीव्र प्रतिक्रिया वाली होती हैं और उससे शरीर के किसी न किसी हिस्से की शक्ति का ह्रास और विषवर्द्धन ही होता है।

सब लोग स्पष्ट जानते हैं कि डी डी टी कीड़ों को मारने वाली एक विषैली औषधि है तो भी उसे जानबूझ कर खाद्य पदार्थों में मिलाया जाता है और यह सब डाक्टरी निरीक्षण में इस दृष्टि से किया जाता है, जिससे कि उन पदार्थों में किसी प्रकार के कीटाणु न पड़ें। विदेशों से आने वाले अनाज में दस लाख टन अनाज में सात टन डी डी टी होती है। जिस प्रकार पीढ़ी दर पीढ़ी और अधिक दूषित प्रभाव डालते चले जाते हैं, उसी तरह इन औषधियों के सूक्ष्म संस्कार आने वाली पीढ़ी को किस तरह कमजोर और अष्टावक्र बनायेंगी, उसका सहज में ही अनुमान नहीं लगाया जा सकता।


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