देव, दानव, मनुष्य, ऋषि-मुनि गन्धर्व, किन्नर तथा यक्ष सभी परेशान थे। आकाश हैरान हुआ खड़ा था। पृथ्वी स्तब्ध। सम्पूर्ण वनस्पतियाँ, उसके अभाव में जीवन हीन सी पड़ी थी। किन्तु सूर्यदेव थे, कि निकलने का नाम ही नहीं ले रहे थे। उन्होंने साफ मना कर दिया था उगने से। आखिर हार कर स्वयं प्राची उनके पास पहुँची। अनुनय भरे स्वर में बोली- “चलो प्रिय! तुम्हारी अनुपस्थिति में सब चेतना हीन से हो रहे है। बड़ी उत्कट प्रतीक्षा हो रही है तुम्हारी।”
लेकिन सूर्यदेव बहुत क्रुद्ध थे। शिकायत के स्वर में बोले-मैं नहीं जानता था कि यह संसार इतना कृतघ्न है। अनादि काल से जो मेरी पूजा करता चला आ रहा था देवता कह कर। वही मानव अब कोरी बुद्धि के विकसित हो जाने पर मुझे केवल आग का गोला कहता है। ऐसे संसार के लिए अब मैं एक किरण तक नहीं दूँगा।”
प्राची ने सुना और तनिक गाम्भीर्य में डूब गई। फिर सूरज से बोली-तुम इतना समझते हुए भी अनजान बन गये प्रिय! बुद्धि का तो काम ही है पत्थर फेंकना। और मन का काम है, उन्हें झेलना। मन यदि समुद्र जैसा बन जाय तो उसमें ऐसे ऐसे न जाने कितने पत्थर समा जायेंगे। हाँ, और यदि उसे कच्चा घड़ा बना लिया तो एक ही चोट में वह टूट कर बिखर जाएगा। अब तुम जैसा उचित समझो करो पर मन को सीमित करके नहीं।”
सूर्यदेव ने प्राची को नमन किया और अपने रथ पर आरूढ़ हो गये। तम से आच्छादित धरा प्रखर आलोक से दीप्त हो उठी।