बेईमानी का नहीं ईमानदारी का मार्ग अपनाये

October 1969

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(पं० श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित और युग-निर्माण योजना मथुरा द्वारा प्रकाशित ‘ईमानदारी का परित्याग न करें’ पुस्तिका का एक अंश)

लगता ऐसा है कि जल्दी और अधिक कमाने के लिए बेईमानी का प्रयोग करना आवश्यक है। क्योंकि धनवान् लोगों में से अधिकांश ऐसे दीखते है, जिनके क्रिया-कलाप में बेईमानी का काफी पुट रहता है। ईमानदार लोगों में से बहुत करके गरीब दीखते है, इसलिये सामान्य बुद्धि से यही प्रतीत होता है कि हम भी ईमानदार रहेंगे तो गरीब बन जायेंगे। चूँकि इन दिनों धन की प्रमुखता है। धन के आधार पर ही अधिक सुविधा-साधन और सफलता सम्मान की उपलब्धि होती है। इसलिये मोटी बुद्धि से स्थिति का अवलोकन करने वाले और अुिसंख्यक जिस रास्ते चलें, उसी पर चलने वाले लोग आमतौर से उसी ढर्रे को अपना लेते है, जो पास-पड़ोस के लोग अपनाते दीखते है। आज की व्यापक क्षेत्र में फैली हुई बेईमानी का यही प्रधान कारण है।

वस्तुस्थिति को बारीकी से तलाश न करने पर बुद्धि भ्रम हो जाना स्वाभाविक है। बेईमानी की गरिमा स्वीकार करके लोग बुद्धि भ्रम से ही ग्रस्त हुए है। वास्तविकता वैसी है नहीं। बेईमानी से धन नहीं कमाया जा सकता। कमा लिया जाय तो स्थिर नहीं रखा जा सकता। लोग जिन गुणों से कमाते है, वे दूसरे ही है। उनकी आड़ में कुछ अनुपयुक्त लाभ प्राप्त कर लिया जाय तो इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि बेईमानी का परिणाम लाभदायक होता है। साहस, परिश्रम, सूझ-बूझ मधुर भाषण, व्यवस्था आदि वे गुण है, जो उपार्जन करते है। बेईमानी तो अपयश, अविश्वास, घृणा, असहयोग, राजदण्ड, आत्म-ग्लानि आदि दुष्परिणाम ही उत्पन्न करती है। वस्तुतः लोग सद्गुणों के आधार पर कमाते है। बेईमानी की तात्पर्य है, दूसरों को धोखा देना। यह तभी सम्भव है, जब उस पर ईमानदारी का आवरण चढ़ा हो। किसी को ठगा तभी जा सकता है, जब उसे अपनी ईमानदारी एवं विश्वसनीयता के बारे में आश्वस्त कर दिया जाय। यदि किसी को यह शक हो जाय कि हमारे साथ बेईमानी करने के लिए तानाबाना बुना जा रहा है तो वह ठगाई में न आयेगा और चालाकी से मिलने वाला लाभ न मिल सकेगा। बेईमानी तभी लाभदायक हो सकती है। जब वह ईमानदारी की आड़ में भली प्रकार छिपा ली जाय। असलियत जैसे ही प्रकट हुई, बेईमानी करने वाला न केवल उस समय के लिए वरन् सदा के लिए उन लोगों से अपना विश्वास खो बैठता है और लाभ कमाने के स्थान पर उल्टा घाटा उठाता है।

बेईमानी का प्रतिफल घृणा, अविश्वास, असहयोग, राजदंड, और आत्मदण्ड है, उसमें उपार्जन की कोई क्षमता नहीं। उपार्जन तो सद्गुण करते है। उन्हीं में उत्पादन तत्त्वों का समावेश है। जिसने अपनी विश्वस्तता का सिक्का दूसरों पर जमा दिया, अच्छी, सही, खरी चीजें उचित मूल्य पर दी और व्यवहार में प्रामाणिकता सिद्ध कर दी, लोग उस पर मुग्ध हो गये और सदा-सर्वदा के लिए उसके ग्राहक, प्रशंसक एवं सहयोगी बन गये, उन्नति का रहस्य यही है। जिसकी प्रामाणिकता है, उसका भविष्य उज्ज्वल है। किन्तु जो अपनी धूर्तता के कारण बदनाम हो गया। उसका ईश्वर ही रक्षक है। आज के मित्र, कल दुश्मन बनेंगे, कल के मित्र परसों घृणा करने लगेंगे और अन्ततः उसका कोई सच्चा सहयोगी न रह जाएगा। स्वार्थ के लिये चापलूसी करने वाले भी आड़े वक्त काम न आयेंगे। विश्वास करके कोई जोखिम उठाने के लिए वे चापलूस ‘मित्र’ भी समय पड़ने पर तैयार नहीं होते।

हमें यह भ्रम निकाल ही देना चाहिये कि बेईमानी कुछ कमा सकती है। वह शराब की तरह उत्तेजना मात्र है, जिससे ठगने वाला और ठगा जाने वाला बुद्धि भ्रम में ग्रस्त हो जाते है। नशा उतरने पर नशेबाज की जो खस्ता हालत होती है, वही पोल खुलने पर बेईमान की होती है। उसका न कारोबार रहता है, न कोई ग्राहक सहयोगी। दूध पानी और घी में बेजीटैविल मिलाने वाला तभी लाभ कमा सकता है जब वह कसम खा-खाकर अपनी ईमानदारी और चीज के असलीपन की विश्वास दिलाता रहे। यह ईमानदारी और विश्वास की विजय है। जो कमाया गया उसका आधार यही था। यदि वे लोग अपनी दुकान पर पानी और अरारोट मिला दूध, मिलावटी घी का साइनबोर्ड लगावें और अपनी वस्तु के दोषों को प्रकट कर दें, तब पता चले कि क्या बेईमानी अपने विशुद्ध रूप में कुछ कमा सकने में समर्थ है?

वेस्ट एण्ड वाच कम्पनी की घड़ियाँ, फोर्ड मोटरें, पार्कर के पैन लोग महँगी होने पर भी खुशी खुशी खरीदते है, क्योंकि वस्तु की प्रामाणिकता पर हर कोई भरोसा करता है। उनकी दिन प्रति दिन उन्नति होती चली जा रही हे। इसके विपरीत नकली, कमजोर, खराब चीजें बेचने वाले आये दिन दिवालिया होते रहते है। पूँजी गँवा बैठते है और फिर उस बदनामी के कारण नया काम कर सकने में भी सफल नहीं होते। बेईमानी देर तक छिपी नहीं रह सकती। पारे को पचाया नहीं जा सकता और पाप छिपाया नहीं जा सकता है। प्रकट होते समय दोनों ही भारी कष्ट देते हे।

व्यापार की ही भाँति जीवन के हर क्षेत्र की सफलता का स्थायित्व कठोर श्रम, सद्गुण, सद्व्यवहार, सचाई, ईमानदारी एवं प्रामाणिकता पर निर्भर रहता है। चालाकी से एक बारगी किन्हीं को चमत्कृत करके अपना उल्लू सीधा किया जा सकता है। पर उस लाभ को स्थिर नहीं रखा जा सकता। चोर, डाकू, जुआरी, गिरहकट आये दिन बहुत पैसा कमाते रहते हैं पर उस कमाई को स्थिर रखना या सदुपयोग करना उनके बस की बात नहीं होती। बादल की छाँव की तरह अनीति की कमाई भी अपव्यय और दुर्व्यसनों में देखते देखते समाप्त हो जाती है।

सम्पत्ति से नहीं, सद्बुद्धि और सत्प्रवृत्तियों से उन्नति होती है। धनवान् नहीं, चरित्रवान सुख पाते है। ईमानदारी से यदि कम भी कमाया जाय तो वह अनीति से अधिक कमाने की अपेक्षा अधिक श्रेयस्कर है। पसीने की कमाई फलती फूलती है और हराम का पैसा पानी के बुलबुले की तरह नष्ट हो जाता है। इतना ही नहीं, विदाई के बाद वह बहुत पश्चाताप, सन्ताप और अपयश छोड़कर जाता है।

यदि बेईमानी से ही धन कमाया जाता है तो आवश्यक नहीं कि धनवान् ही बना जाय। संसार में अधिकांश गरीब ही रहते है। हम भी उन्हीं में से एक रहें तो क्या हर्ज है? किन्तु वास्तविकता यह है कि धन ही नहीं, स्वास्थ्य, संतोष और सम्मान के क्षेत्रों में भी समृद्ध और सफल चरित्रवान एवं ईमानदार लोग ही बनते है। सफलता प्राप्त कर लेना ही काफी नहीं, उससे आत्म संतोष, जनकल्याण एवं स्वस्थ परम्परा का भी अभिवर्धन होना चाहिये। सही तरीके से प्राप्त की हुई सफलता ही वास्तविक सफलता है। यदि किसी ने कोई उन्नति या उपलब्धि अनुपयुक्त रीति से प्राप्त की है तो उससे अनेकों का वैसा ही करने की इच्छा उत्पन्न होगी और समाज में एक ऐसी प्रथा चल पड़ेगी, जो हर किसी के लिए अहित परिणाम ही उत्पन्न करती रह सके।

सद्गुणों का खाद और सचाई का पानी पाकर ही व्यक्तित्व का पौधा बढ़ता और फलता फूलता है। जादू से हथेली पर सरसों जमाई तो जा सकती है, कौतुक तो देखा जा सकता है पर उसका तेल निकालकर धन कमाया जा सके, ऐसा सम्भव नहीं होता। बेईमानी का चमत्कार तो देखा जा सकता है पर उसके सहारे सच्ची प्रगति और स्थिर सम्पदा का लाभ नहीं उठाया जा सकता। यदि हम वस्तुतः कुछ कहने लायक और आनन्द दे सकने लायक उपलब्धियाँ प्राप्त करना चाहते है तो एक ही रास्ता है कि हम ईमानदारी और भलमनसाहत को जीवन नीति की तरह हृदयंगम करें और सद्गुणों की सम्पदा से अपने व्यक्तित्व को सुसज्जित करते चले। जिस प्रकार रुपये के बदले दुकानों पर बिकने वाली चीजें आसानी से खरीदी जा सकती है, उसी प्रकार सद्गुणों के मूल्य पर प्रगति की किसी भी दिशा में द्रुतगति से अग्रसर हुआ जा सकता है।

बेईमानी की रीति नीति स्वीकार करने का प्रतिफल अपने लिए विपत्ति और समाज के लिए दुर्गति के रूप में ही प्रस्तुत होगा। हमें इस कंटकाकीर्ण पगडंडी पर चलने की अपेक्षा ईमानदारी के राजमार्ग पर ही चलना चाहिये। बेईमानी के दुष्परिणामों के अनुभव के आधार पर जानने की अपेक्षा यही अच्छा है किस मार्ग पर चलने वालों की दुर्गति देखे और उतने से ही सावधानी बरतने लग जाएँ। इतिहास के किसी भी पृष्ठ पर यह तथ्य देखा जा सकता है कि विभूतियों और सम्पत्तियों का लाभ केवल उनके लिए सुरक्षित रहा है, जो सद्गुणी, चरित्रवान और ईमानदार है।


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