तब, जब ज्वालामुखी फटते हैं

October 1969

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हम जिस पृथ्वी को देख रहे है, वह करोड़ों वर्ष आयु की बुढ़िया है। नबोढ़ा धरती का तो रूप ही कुछ और था। भूगर्भ शास्त्र (जिआँलाजी) के अनुसार अपने आविर्भाव काल में पृथ्वी वातीय स्थिति गैस-फार्म में थी। वह सूर्य की तरह प्रचण्ड ऊर्जा वाला गोला थी, जिसमें जीव का तो क्या जल का रहना भी सम्भव न था। जब भी तब वाष्प रूप में ही था।

ऊर्जा फेंकना ग्रहों का स्वभाव है, उससे उनका ताप क्षीण होता है, ऐसे ही पृथ्वी की गर्मी भी धीरे-धीरे शांत होने लगी। पानी बरसा कुछ उस में भी गर्मी कम हुई और एक दिन पृथ्वी अर्द्ध तरल स्थिति में आ गई। वायु-मंडल के सम्पर्क के कारण पृथ्वी का ऊपरी हिस्सा शीघ्र ठण्डा हो गया और उसमें पपड़ी पड़ती गई, जिसके कारण कहीं पहाड़ बन गये, ऊबड़-खाबड़ पृथ्वी धरातल में क्रमशः ठण्डक के प्रवेश के कारण बनती चली गई।

सृष्टि में वस्तुओं के रूपान्तर होते है, नाश नहीं होता। इस सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य का अस्तित्व किसी भी रूप में तब भी रहा होगा। पृथ्वी गैस रूप में तब भी रहा होगा। पृथ्वी गैस रूप में थी तो जीवन भी तब गैस जैसी हो किसी स्थिति में रहा होगा। धीरे-धीरे जब पृथ्वी गैस रूप में थी तो जीवन भी तब गैस जैसी हो किसी स्थिति में रहा होगा। धीरे-धीरे जब पृथ्वी ठण्डी पड़ने लगी तो उसके परमाणु अधिक स्थूल और दृश्य होते गये इन परमाणुओं से बने शरीर भी धीरे-धीरे स्थूल आकार लेने लगे। पृथ्वी में प्राप्त प्राकृतिक और खनिज तत्त्वों के अनुरूप ही शरीरों में परिवर्तन होता आया है, क्योंकि दिखाई देने वाला शरीर तो पार्थिव प्रकृति के अंश लेकर ही बनता बिगड़ता रहता है। पृथ्वी में जो तत्त्व घटते-बढ़ते है, वही शरीरों में भी घटते-बढ़ते रहते है और तो और वायु-मंडल में जैसी गैसें धूल और रेडियो सक्रिय (रेडियो एक्टिव) तत्त्व भरे पड़े है, मनुष्य शरीर में भी वह तत्त्व आते जाते और अपना प्रभाव दिखलाते रहते हैं, इसी कारण वायु-मंडल के शुद्धिकरण का ध्यान सभी धर्मों ने रखा है। अगरबत्ती जलाने का नियम सभी धर्मों ने इसी दृष्टि से अपनाया। यज्ञ उसका बृहद् और महत्त्वोपयोगी स्वरूप है। इस तुलनात्मक अध्ययन से हम कहते है कि मनुष्य 3/4 से भी अधिक पृथ्वी, जल है, जीवन की गतिविधियाँ इतने अंशों में पार्थिव वातावरण से सदैव प्रभावित होती रहती है।

पृथ्वी जैसे ऊपर से दिखाई देती है, भीतर से वैसी नहीं है। इसके अन्दर अभी भी वह पुराने द्रव्य और संस्कार दबे पड़े है, जो करोड़ों वर्ष पूर्व उसमें सर्वत्र भरे पड़े थे। पृथ्वी ऊपर से ठण्डी होती गई पर अभी उसके गर्भ में अपार ऊष्मा संगृहीत, सुरक्षित है। वह ज्वालामुखी (वालकैनो) के रूप में कभी-कभी फूट पड़ती है तो उसकी शक्ति का पता चलता है। भूगर्भ शास्त्री ज्वालामुखी को पृथ्वी का सशक्त कार्य और गुण मानते है। सन् 1737 में ज्वालामुखी फूटने से इतना भयंकर भूकम्प आया था कि अकेले भारतवर्ष में लगभग 300000 व्यक्तियों की जानें चली गई थीं। 1755 ई॰ सन् में लिसवन (पुर्तगाल) में ज्वालामुखी भूकम्प के कारण 1400000 वर्ग मील पृथ्वी चीमटे की तरह थरथरा गई थी, 1908 में सिसली और कैलेब्रिया के ज्वालामुखी विस्फोट के कारण 77282 व्यक्तियों की जानें गई और 95000 व्यक्ति आँशिक या बुरी तरह घायल हुये।

सन् 1933 में जापान के दो प्रमुख नगर टोकियो और योकोहामा के ध्वंस को शताब्दियों तक नहीं भूला जा सकेगा। यह विध्वंस ज्वालामुखी फटने का ही परिणाम था उसमें 142800 मनुष्य मरे, 103733 घायल हुए और कितने लोगों का कुछ पता ही नहीं चला वे कहाँ चले गये। क्वेटा (भारत) में 1935 में 56000 प्राणियों को आहत करने का श्रेय भी ज्वालामुखी को ही है। इसी वर्ष मध्य इटली के 370 शहर और गाँव ज्वालामुखी की अग्नि में हवन हो गये थे। उसमें कोई 30 हजार व्यक्ति मारे गये थे।

निरन्तर फूटते रहने वाली ज्वालामुखी पेटियाँ है (बालकैनिक वैल्ट) के ज्वालामुखियों की संख्या तो और भी अधिक है विसूवियस और एटना तो विश्व-विख्यात ज्वालामुखी है। जापान, इटली और अलास्क् में उनकी संख्या सर्वाधिक है, प्रमुख पेटियाँ - (1)प्रशान्त महासागरीय पेटी में फारमोसा, फिलीपीन्स, न्यूगिनी। (2)अन्धमहासागरीय पेटी में मैडेरिस, कैनेरी, सेन्ट हैलेना आदि। (3) हिन्दमहासागरीय पेटी में वाली जावा, सुमात्रा आदि द्वीपों पर(4) भूमध्य सागरीय पेटी में सिसली, इटली टर्की, ग्रीस आदि और (5) समुद्रतल में स्थित उत्तरी अमेरिका के अल्तूशियन द्वीप से जापान तक फैले हुए कोई 430 ज्वालामुखी निरन्तर फूटते और प्रकृति की प्रबलतम एवं प्रचण्ड क्षमता का परिचय देते रहते है।

पृथ्वी की यह शक्ति उसकी मूलभूत स्थिति के विद्यमान् होने के कारण है। पृथ्वी ऊपर से ठण्डी हो गई, किन्तु अनेक पर्तों के दबाव के नीचे अब भी प्राचीनतम गैसीय और तरल स्थिति विद्यमान् है। पृथ्वी का कुल व्यास 7998 मील है, उसका हृदय (कोर ) इस हिसाब से 3999 मील होना चाहिये। अभी तक अधिकतर 5॥। मील दूरी तक, वह भी प्रशान्त महासागर में उतरा जा सका है। अनुमान है कि 4000 मील की दूरी पर पृथ्वी के सभी खनिज और धातुएँ या तो गैस स्थिति में होंगी या तरल स्थिति में। एक से एक महत्त्वपूर्ण वस्तुएँ भूगर्भ में छिपी पड़ी है। पेट्रोलियम और मिट्टी के तेल पृथ्वी की गहराई में ही मिलते है। सोने चाँदी और मुख्यतया कोयले की खानें गहराई में ही है। साधारण स्थिति में ऊपरी पृथ्वी का दबाव अधिक और भीतर की गैसों का दबाव कम रहता है, इसलिये 4000 मील अन्तराल की स्थिति का पता नहीं चल पाता, किन्तु क्षरण द्वारा पृथ्वी का दबाव भीतरी गैसों की तुलना में कम होते ही भीतर की शक्ति उबल पड़ती है और पृथ्वी को फोड़कर अपने साथ चट्टानों का पिघला रूप लावा और संग्रहित गैसों की प्रबलता लेकर पृथ्वी को फोड़कर मीलों आकाश में उछलने लगती है। इस समय विनाशकारी दृश्य उपस्थित है उठते है। लावा चारों और फैल जाता है, भूकम्प उठ खड़े होते है, चारों ओर भाग-दौड़ मच जाती है।

ऐसी विस्फोटक स्थिति सृष्टि के आविर्भाव काल में नहीं थी। तब पृथ्वी कठोर नहीं थी, भीतर का लावा भी सरल रूप में था, इसलिए वह कभी फूटता भी था तो चश्मों की तरह पृथ्वी को हौले-हौले फोड़कर तरल रूप में वह निकलता था।

मनुष्य की आदि-शक्तियों के बारे में पहले कोई असमंजस न था। शारीरिक भोग वासनाओं और इन्द्रिय जन्य आसक्ति तब इतनी कड़ी न हुई थी कि आत्म भाव को व्यक्त होने में कोई कठिनाई होती। आज से पिछले इतिहास की सभी पर्तें यह बताती है कि तब लोगों में अध्यात्मिकता का भाव बिलकुल सहज रूप में था। भौतिक आकर्षण कम थे, इससे आध्यात्मिक तथ्यों के प्राकट्य में कोई कष्ट न होता था।

धीरे-धीरे आध्यात्मिक शक्तियाँ दबने लगीं। ऊपरी आवरण कठोर होने लगे, शरीरों की वासनायें तीव्र होने लगी। इससे आत्म तत्त्व का स्थिति शक्ति और स्वरूप को भूला जाने लगा। शरीर के गहन ड़ड़ड़ड़ में धरती के समान ही वह आत्म-शक्तियाँ भरी हुई है, जो शाश्वत ओर सनातन है, किन्तु हमारे बाह्य जीवन इतने कठिन और जटिल हो गये है कि उनकी और हमारा ध्यान ही नहीं जाता।

कभी-कभी परिस्थितियों के प्रतिघात के कारण बाह्य आवरण हल्का और कमजोर पड़ जाता है। भोग वासनायें कई बार स्वयं ही शिथिल पड़ जाती है, कई बार विवेक और वैराग्य के उदय होने पर उनकी निस्सारता प्रकट हो जाती है। हम सोचने लगते है कि मनुष्य जीवन, जो समय की अधिक से अधिक 100 पगडण्डियाँ पार करते ही समाप्त हो जाता है, क्या क्षणिक भोग-वासनाओं तृष्णा और महत्त्वाकाँक्षाओं की पूर्ति के लिये ही मिला है। क्या बाह्य जीवन से मनुष्य चिरन्तन सुख शांति और सन्तोष का अनुभव कर सकता है। इस तरह की भावनाओं के उदय से बाह्माडम्बरों की पर्तें ढीली पड़ जाती है। और आध्यात्मिक शक्तियाँ अपनी सम्पूर्ण विशेषताओं के साथ फूट पड़ती है। द्वन्द्व उठ खड़ा होता है और विघटन की सी, क्राँति की सी, विचार-मन्थन की सी स्थिति उत्पन्न हो उठती है। इस हलचल पूर्ण स्थिति में अशान्ति, विचारों की मारकाट तो दिखाई देती है पर उससे अन्ततः दुर्वासनाओं, कुटिलताओं, महत्त्वाकाँक्षाओं और इन्द्रिय जन्य आकर्षणों का ही सत्यानाश हो जाता है और शुद्ध जीवन-ज्योति का प्रकाश फैलने लगता है।

ज्वालामुखी प्रकृति का सशक्ततम कार्य है और आत्मा चिर-शक्ति की अप्रतिम अभिव्यक्ति। पृथ्वी के अन्तराल में बसे ज्वालामुखी के समान मनुष्य शरीर में व्याप्त आत्मतत्त्व जब जागृत होता है तो उससे हजारों लाखों अतृप्त अशान्त और विक्षुब्ध आत्मायें प्रकाश और शीतलता अनुभव करती है यह शक्ति सद्गुणों के रूप में फूटती और सब पर कृपा एवं स्नेह की वर्षा करती चली जाती है। जो भी उसके सम्पर्क में आते, लोहे से स्वर्ण बनते चले जाते है। ऐसी सद्गुणों की स्रोत आत्म-सत्ता का जहाँ भी प्राकट्य होता है, वहीं सुख-शांति और निर्मलता की धारायें वह निकलती है। ज्वालामुखी की प्रचण्ड शक्ति से अस्थिर असावधान लोग हानि उठाते है पर उनसे मानवता की बड़ी सेवा होती है। पृथ्वी के जिस भूभाग में सर्वाधिक ज्वालामुखी फूटते रहते है, वह सबसे अधिक धनी आबादी वाले प्रान्त है, क्योंकि लावा पृथ्वी की पकी पकाई उर्वरा शक्ति है, उससे पृथ्वी की उपज बहुत अधिक बढ़ जाती है। कई बार बहुमूल्य धातुएँ लोगों को उस चमत्कार की तरह मिल जाती है, जिस प्रकार सद्गुण सम्पन्न आत्मानुवर्ती महापुरुषों के संसर्ग से स्वल्प क्षमता वाले लोगों को भी अपार शक्ति मिल जाती है। सुदूर भूभाग में दया, करुणा, स्नेह, आत्मीयता, सहयोग, सौजन्य की उर्वरता ऐसे महापुरुष ही बढ़ाते है और अपने पीछे ज्वालामुखी के समान शांति और सन्तोष का वातावरण छोड़ते हुए, इस संसार से विदा होते है। संसार में 432 ज्वालामुखी प्रमुख है, यदि इतनी ही सद्गुणों की स्रोत आत्म-शक्तियाँ इस देश, इस पृथ्वी पर जाग पड़े तो देखते देखते संसार सुख शांति, समानता और समृद्धि से लहलहाने लगे।


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