कथा - अपरिग्रह का अर्थ

October 1969

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भगवान् महावीर राजगृह में थे। अपरिग्रह पर उनकी व्याख्यान माला चल रही थी। प्रतिदिन हजारों की संख्या में प्रजा आती और अपनी संग्रह लोभ वृत्ति महात्मा के चरणों में छोड़ जाती। सारा देश तब समता के सागर में हिलोरें लेने लगा। धनिक वर्ग निर्धनों के हित के लिये अपना सर्वस्व अर्पण करने लगा। भौतिकवादी दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने के लिये यह आवश्यक था, सो लोगों में आध्यात्मिक वृत्ति विकसित होते ही प्रजा में सुख-शांति सौम्यता का वर्षण होने लगा।

गाथापति महाशतक उन दिनों राजगृह में सर्वश्रेष्ठ धनिक था। उसके व्यापार में कोटियों स्वर्ण मुद्रायें लगी हुई थी। महाशतक का जितना धन उसके व्यापार में लगा था, उससे अधिक उसके सुरक्षित कोष में। उसकी विलासिनी धर्म-पत्नी रेवती इस धन का अधिकांश सुखोपभोग स्वयं करती थी। महाशतक उसे अपना सौभाग्य मानता था, इसलिये वह बहुत दिन हो जाने पर भी तथागत की सेवा में उपस्थित नहीं हुआ।

पर भगवान तो मानों उसी के उद्धार के लिये ठहरे हुये थे। प्रवचन सुनने वालों की भीड़ बढ़ती ही जा रही थी। राजगृह के सम्पन्न धनपति अपना कोष प्रजा के लिये दान कर चुके थे, यह चर्चा प्रतिदिन महाशतक तक पहुँचती किन्तु उसके कानों में जूँ तक न रेंगी।

एक दिन महाशतक ने अभूतपूर्व घटना सुनी। एक बालिका भगवान् महावीर के पास पहुँची और उनके चरणों में श्रद्धा सुमन अर्पित करती हुई बोली-महाभाग मेरे जीवन में क्षणों का अक्षय कोष सुरक्षित है, क्या यह परिग्रह नहीं है कि मैं अपनी आयु का उपयोग अपनी ही सुख-समृद्धि में करूँ। धन के संग्रह की भाँति अपने ही सुखों में जीवन का उपयोग का संग्रह नहीं। यदि हाँ तो आपके चरणों में मेरा जीवन समर्पित है। आज्ञा हो देव! मैं प्रजा की भलाई का कार्य किस प्रकार करूँ।

आयुष्मते! तुम धन्य हो। शीश पर वरद-हस्त फिराते हुए भगवान महावीर ने कहा-जिस देश के नर-नारी समाज के प्रति इतना आदर भाव रखते है, वहाँ न कोई निर्धन रहेगा, न दीन और दरिद्र। भद्रे! ऐसे पुण्यतीर्था की रक्षा के लिए एक ही आवश्यकता शेष रहती है और वह यह कि उसे ज्ञान की धारा और विवेक के प्रकाश से निरन्तर स्ना रखा जाये सो तुम जाओ और सारे देश में मानवीय सदाचरण और ज्ञान की धारा बहाओ।

इस घटना का समाचार महाशतक के पास पहुँचा तो उसकी आत्मा हाहाकार कर उठी। देश का बच्चा-बच्चा समाज के उत्कर्ष के लिए उत्सर्ग होने को तैयार है और वह अक्षय कोष का स्वामी होकर भी प्रजा के हित के लिये कुछ भी करने को तैयार नहीं। उसके मन में अपने ही लिये तीव्र घृणा उठ खड़ी हुई। उस रात महाशतक अच्छी तरह नींद भी नहीं ले सका।

रेवती से परामर्श किये बिना ही महाशतक दूसरे दिन प्रातःकाल तथागत के चरणों में उपस्थित हो गया। उसने अपना सम्पूर्ण वैभव तीर्थंकर के चरणों में समर्पित कर दिया। भगवान ने उसके शीश पद आशीर्वाद के हाथ फेरते हुए कहा-उठो तात्! जिस देश में तुम्हारे जैसे पुरुषार्थी व्यक्ति इतना त्याग करने को कटिबद्ध हो सकते है, उसमें धर्म और संस्कृति अपराजेय रहती है, उसे देश के नागरिकों में परस्पर मनोमालिन्य नहीं रहता। संगठन और परस्पर हित की दृष्टि रखने वाली प्रजा का कोई भी अहित करने में समर्थ नहीं हो सकता। महाशतक को उस दिन जितना सन्तोष ओर हल्कापन अनुभव हुआ, उतना किसी महाभोग से भी नहीं हुआ था।”

रेवती जिस बात के लिए तैयार नहीं थी, वह आखिर हो ही गयी। जैसे ही उसने सुना महाशतक ने सारा कोष प्रजा के लिए दान कर दिया, मार खाई नागिन के समान वह फुफकार कर उठी। सारा धन उसने सिर पर उठा लिया। खटपाटी लेकर उस दिन रेवती कोप-भवन जा पहुँची।

महाशतक घर पहुँचा तो दास-दासियों ने सारी बात कह सुनाई। महाशतक को उससे कोई क्षोभ नहीं हुआ। निरन्तर गिरने वाली जल की बूँदें जिस तरह कमल-पत्र का भेदन करने में असमर्थ होती है, उसी प्रकार परिग्रह के पाप से मुक्त महाशतक की आत्मा में किसी प्रकार का विचार नहीं उठा। वह सीधे कोप-भव पहुँचा ओर बहुतेरा समझाया, किन्तु रेवती स्त्री हठ त्यागने को तैयार न हुई।

उस दिन से महाशतक के सामान्य प्रजा का सा आहार, वस्त्र और जीवनोपयोगी वस्तुएँ ही लेना प्रारम्भ कर दिया। रेवती के लिए यह और अपमान की सी बात लगी। सो उसने भी बदला लेने का निश्चय किया।

दूसरे दिन रेवती ने चुपके से गौशाला के दो शिशु बच्चों का वध कराकर वे पाकशाला भिजवाये और रसोइये को स्वादिष्ट व्यंजन बनाने का आदेश देकर आज साज-शृंगार में लग गई। सायंकाल उसने माँसाहार के साथ मदिरा भी पी। फिर वह सीधे महाशतक के आवास कक्ष की ओर चली गई जो इन दिनों साधना कक्ष में बदल चुका था। इससे पूर्व कि महाशतक कुछ कहे, उसने अपने आपको उसी गोद में समर्पित कर दिया।

वासना और वैराग्य में विजयी हुआ क्रोध। महाशतक को अपनी पत्नी की इस मूर्खता पर बड़ा क्रोध आया। उसने कल्पना भी न की थी कि रेवती अब पुनः मदिरापान कर उसकी आत्म-निर्माण की साधना में विघ्न उपस्थित करेगी। विद्युत की कड़क जिस प्रकार बिना कहे दीवारों से प्रतिध्वनित होकर गूँजती है, महाशतक का क्रोध भी उसी प्रकार वर्तमान परिस्थिति से टकराकर द्विगुणित हो उठा। उसने अपनी पत्नी रेवती को जो भी कह सकता था, दुर्वचन कह और दाँत पीस कर उसे मारने को दौड़ा। महाशतक ने अब तक जितना सहन कर लिया था वही उसके लिए कम नहीं था। महाशतक ने पत्नी रेवती को कड़ककर डाँटा ही था कि-सामने तथागत आ गये। सावधान करते हुए उन्होंने पूछा-तात तुमने तो अपरिग्रह का व्रत लिया है, फिर उसे तोड़ने का यह साहस क्यों कर रहे हो।”

विस्मय अवाक्, महाशतक पूछ बैठा-भगवन् आप ऐसा क्यों कह रहे है, मैं तो अपने संकल्प की रक्षा ही कर रहा हूँ। रेवती मेरे व्रत में आड़े आ रही है, सो मैं तो उसे दंड देने के लिये समद्यत हुआ हूँ।”

तात्! यह न भूलों कि-तथागत ने कोमल करुणा शीलता में कहा-आत्मा के अन्तराल में मधुर शब्दों का भी कोष भरा हुआ है ओर जो उसे गुप्त रखता है, प्रजा की भलाई के लिए बाँटने का साहस नहीं कर सकता वह भी परिग्रह का ही पापी है। तात्! केवल धन का प्रजा के लिए उत्सर्ग ही नहीं वरन् अपने जीवन, अपनी प्रतिभा अपनी योग्यता और आत्मिक गुणों का प्रजा के लिए दान व्यर्थ है।”

महाशतक को अपनी भूल का पता चला। उसने रेवती से अभद्र शब्दों के लिए क्षमा माँगी और एक बार फिर भगवान के चरणों में गिर गया। इस बार उसके पीछे रेवती भी शीश झुकाये विनीत मुद्रा में खड़ी प्रतीक्षा कर रही थी कि महाशतक उठें और मैं भी तथागत की पद-रज स्पर्श का धन्य बनूँ।


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