मनुष्य वृक्ष-वनस्पतियों से ही कुछ सीखे

October 1969

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आत्मा के लिए भगवान ने जितने शरीर बनाये है, उनमें से एक मनुष्य शरीर ही सर्वांगपूर्ण और सुन्दर है। मनुष्य शरीर के एक-एक अवयव, चक्र, कोण और उपत्यिकाओं में भगवान ने ऐसी-ऐसी शक्तियाँ भरी है, जिनके द्वारा वह सम्पूर्ण त्रैलोक्य में शासन कर सकता है। बुद्धि, विवेक, ज्ञान, श्रवण, दर्शन, धरनब, सन्देश, सम्प्रेषण के लिए वाणी, लेखनी आदि के ऐसे-ऐसे सुन्दर साधन उसे मिले है, जैसे सृष्टि के किसी भी प्राणी को नहीं मिले। भगवान की शक्तियाँ अनन्त है पर वह प्रकाश में नहीं आ सकती। मनुष्य को उसने अपना प्रतिनिधि बनाकर इस आशा से भेजा कि वह अपनी क्षमताओं का उपयोग विश्व-कल्याण और प्राणि मात्र के हित में करेगा। किन्तु बन्दर के हाथ तलवार वाली कहावत की तरह मनुष्य ने उन ईश्वर प्रदत्त शक्तियों का दुरुपयोग ही किया। बेईमान रिश्वतखोर ऑफिसर की तरह उसने किया तो उत्पीड़न, शोषण और अत्याचार ढाये या फिर रोटी-बेटी रुपया पैसा वाले निकृष्ट जीवन में गलकर मर गया और अपने पीछे परमात्मा की दी हुई विभूति-मनुष्य शरीर को भी कलंकित कर गया।

मनुष्य से तो अच्छे पेड़-पौधे जो अपने बन्धन-मुक्त मूक जीवन से भी प्रेरणाओं के स्रोत उड़ेलते रहते है। योग वशिष्ठ में महर्षि वशिष्ठ ने भगवान् राम के तत्त्व-चर्चा करते समय कहा था-

ये च मध्यमधर्माणों मृतिमोहादनन्तरम्।

ते व्योमवायु वलिताः प्रयान्त्योषधि पल्लवम्॥

-3।55।24

हे राम! ऐसे जीव जिनके पुण्य मध्यम श्रेणी के होते है, वह वायु द्वारा उड़कर औषधि फल-फूल आदि वृक्षों की योनियों में जनम लेते हैं अपने-अपने कर्मों का फल भोग कर वे पुनः पुण्यार्जन के लिये मनुष्य शरीर में आते है।

खेद है कि जिस मनुष्य को अपना जीवन पुण्य और परमार्थ की साधना में व्यतीत करना चाहिये था, वह निकृष्ट और हेय जिन्दगी जीता है, जब कि निकृष्ट कहे जाने वाले पेड़-पौधों के आचरण बड़े प्रेरक और प्रकाश देने वाले होते है। मनुष्य चाहे तो इन तुच्छ जीवों से भी बड़ी महत्त्वपूर्ण शिक्षायें ग्रहण कर सकता है।

वनस्पति शास्त्र का एक सिद्धान्त है, हेरेडिटी करेक्टर (वशानसंक्रमण) जो बीज बोया जाता है (पैरेन्ट सीड्स) उसके गुण पैदा होने वाले बीजों (डाटर सीड्स) में ज्यों-के-त्यों आ जाते हैं उदाहरण के लिए मटर के एक बीज में बीमारी के कुछ कीटाणु थे, उसे बो दिया। उस मटर की पौध में जितनी भी फलियाँ लगेंगी, उन सब में उस बीमारी के लक्षण (सिम्पटम्स) विद्यमान् होंगे। जब तक बीज के इस वंश (जनरेशन) को चलता रहने दिया जाता है, बीमारी के सिम्पटम्स अन्त तक बने रहते हैं इससे यह प्रेरणा मिलती है कि मनुष्य की जनरेशन कमजोर और निकम्मी न रहने पाये, इसके लिए मनुष्य अपने स्वास्थ्य शरीर, चरित्र और भावनाओं का निर्माण करें। मानसिक धार्मिक, साँस्कृतिक और आध्यात्मिक दृढ़ता वाले मनुष्य इस तरह की सन्तानें भी पैदा करते है, रोगी, आलसी, अपाहिज तो बिना किये भावी पीढ़ी को दोषी बनाने का पाप लेकर मर जाते है।

आजकल पाश्चात्य शिक्षा और सभ्यता से प्रभावित लोग यौन सदाचार का पालन करते हुए हिचकिचाते है और तर्क प्रस्तुत करते है कि मनुष्य ने प्रकृति से ही प्रेरणाएँ ली है, प्रकृति के अनुसार फिर आचरण करने में हानि क्या है? कुत्ते बकरी, भेड़ें, बैल और दूसरे पशुओं में कामाचार की मर्यादायें अपने परिवार तक में लागू नहीं होती, इसलिये मनुष्य भी वैसा ही करता है तो वह कोई पाप नहीं। पहले विवाह सम्बन्ध दूर किये जाते थे, अब समीपवर्ती वातावरण में ही विवाह करने की परम्परा चल पड़ी। पेड़-पौधे यह बताते है, यदि मनुष्य ने ऐसा किया तो उससे पीढ़ियाँ कमजोर होंगी।

दो अलग-अलग श्रेणी के बीज लेकर संयोजन (क्रासब्रीडिंग) से उत्पन्न हुए बीज (सीड्स) बहुत बलवान् होते है जबकि एक ही वृक्ष के फूल के स्त्रीकेशर और उसी फूल के पुँकेसर में स्वयंसेचन की क्रिया से जो बीज पैदा होता है, वह बिलकुल कमजोर होता है। यदि प्रकृति का यह नियम रहा होता कि निकटवर्ती परिवार में यौन सदाचार का पालन न किया जाये तो पेड़-पौधों का यह आदर्श और उदाहरण सामने न आता।

पराग (पालिनग्रेन) एक प्रकार के पीले कण है, जो फल के पुँकेसर में होते है। जब पराग कण स्त्री केशर के वर्तिनाग्र (स्टिगमा) तक पहुँचता है उसे परागण कहते है। परागण की क्रिया में स्वयं सेचन सरल है, एक ही पुल के पुँकेसर का पराग कर स्त्रीकेशर के वर्तिकाग्र (स्टिगमा) तक आसानी से पहुँच जाता है, यह क्रिया पराग-झड़ना (पोलीनेशन) कहलाती है। क्रास-ब्रीडिंग में दूरी और मेल जोल की परेशानी होती है, इस तरह का तर्क किया जा सकता है, किन्तु भगवान ने विकास की सुविधाओं से किसी को वंचित नहीं रखा। भौंरे-तितलियाँ और मधु-मक्खियाँ पराग का मधु चूसते हुए एक फूल पर बैठते है, रस तो वे चूस लेते है पर इतने स्वार्थी नहीं कि केवल अपना ही काम करके चल देते है। वे अपने पैरों में पराग के कण चिपका लेते है और फिर वहाँ से उड़कर दूर किसी मादा फूल के वर्तिकाग्र (स्टिगमा) में जो बैठते है, इस तरह नर-मादा फलों का दूरवर्ती सम्बन्ध हो जाता है। इस तरह ग्रास-ब्रीडिंग से उत्पन्न हुए बीज बड़े बलवान् होते है।

इसी प्रकार यही बीज पक चुका है तो ही उसके डाटर बीज अच्छे खाद्य वाले होंगे। इससे मनुष्य को एक सन्देश मिलता है कि वह गृहस्थाश्रम पूर्ण और परिपक्व अवस्था के बाद आरम्भ करे। भारतीय संस्कृति में 25 वर्ष तक ब्रह्मचर्य और विद्याध्ययन की अनिवार्यता थी। उससे बच्चों के शरीर ही नहीं मन और बुद्धि भी पर्याप्त परिपक्व हो जाते थे इसीलिये उनका गृहस्थ भी सुखी होता था और आज जबकि छोटे-छोटे बच्चों के विवाह कर देय जाते है, तब क्या यह आशा की जा सकती है कि आने वाली पीढ़ी मजबूत होगी? पीढ़ियाँ समर्थ और शक्तिशाली तभी होगी, जब कामाचार में परिपक्वता, चारित्रिक दृढ़ता का पालन किया जायेगा।

कम फल देने वाले पौधों के बीज ऐसी जगह ले जाये जहाँ उसे विकसित होने के लिए पर्याप्त जल-वायु ताप, खाद्य पदार्थ और हवा की नमी (माएश्चर) उपलब्ध हो, वह बीज भी अधिक फल देने वाली जाति के बदल जाते है। वही सिद्धान्त मानवीय जीवन में भी काम करता है। हमारे समाज में अनेक पिछड़े और पद-दलित लोग पड़े है, वह भगवान के बनाये या कर्मभोग के दोषी नहीं। मनुष्य की योनी कर्मभोग प्राप्त कर लेने के बाद ही मिलती है, यहाँ जन्म लेने के बाद उसका अच्छा बुरा होना, बढ़ना विकसित होना या दीनता, दरिद्रता की स्थिति में पड़े रहना अधिकांश परिस्थिति वश होता है। इसलिये विचारशील लोग अपनी योग्यता का थोड़ा भाग अपने स्वार्थ में लगाकर अधिकांश शक्तियाँ समाज सेवा में जुटाते है। शिक्षा, स्वाध्याय, स्वास्थ्य, सहयोग आदि के द्वारा कम शिक्षित और दलित लोगों को भी आगे बढ़ाते है, इसका सामूहिक फल प्रत्येक मनुष्य के लिए लाभदायक ही होता है। इसका एक दूसरा पहलू भी है और वह यह कि कमजोर मनुष्य अविकसित मनुष्य बाह्य परिस्थितियों से सीखकर भी अपनी क्षमताएँ और योग्यताएँ इसी प्रकार बढ़ा सकता है।

मनुष्य सामाजिक प्राणी है, वह परस्पर सहयोग,दूसरों के अनुभवों और ज्ञान के सहारे से ही तो आज की इस विकसित अवस्था तक पहुँचा है। इसलिये वह भी केवल लेने का ही अधिकारी नहीं, वह जन्म से ही समाज का ऋणी है, इस ऋण का भुगतान उसे परस्पर सहयोग ओर सहानुभूति द्वारा करना चाहिये।

वृक्ष-वनस्पतियों में एक सिम्बायसिस सिद्धान्त काम करता है। द्विदल वनस्पतियाँ (लिग्विम कार्प्स) जैसे चना, मटर, अरहर, मूँगफली, मूँग, मोंठ आदि की जड़ों में एक प्रकार की गांठें होती है, जिनमें गुलाबी रंग का एक विशेष रस (सीरप) भरा होता है। उस रस में जीवाणु (बैक्टीरिया) होते है, जो एरियेशन क्रिया के द्वारा वायु मण्डल से बहुत-सा नाइट्रोजन एकत्रित करते रहते है। यह संचित नाइट्रोजन उस पौधे के ही काम आता हो, जिसकी वह जड़ है ऐसा नहीं। ऊपर की पौधे काट ली जाती है, तब वह जड़े मिट्टी में ही रह जाती है। गाँठों के रूप में सुरक्षित नाइट्रोजन अब मिट्टी में मिल जाती है और उसकी खोई हुई उर्वरता को फिर से जगा देती है। सामाजिक जीवन में मनुष्य जन्म उनका सराहा जाता है, जो अपने संचय का थोड़ा लाभ ही अपने लिये रखते है, शेष समाज की उपयोगिता और समर्थता बढ़ाने में व्यय कर देते है।

यह क्रिया परस्पर आदान-प्रदान द्वारा भी सम्भव है। धान के खेतों में चना बहुत अच्छा उगता है, क्योंकि धान अपना वह अंश छोड़ जाता है, जो चने के लिये उपयोगी होता है, बदले में चना भी वैसा ही करता है, जिससे दुबारा उस खेत में धान की फसल अच्छी होती है। दोनों एक दूसरे की कृतज्ञता निबाहते है और मनुष्य से कहते है कि और अधिक नहीं तो जितना दूसरों से ग्रहण करता है अपनी योग्यताओं, विशेषताओं के अनुसार कम से कम उतना तो औरों के विकास में योगदान दिया ही जाना चाहिये। अरहर और ज्वार साथ-साथ बोये जाते है, दोनों दो जाति के पौधे है पर परस्पर सहयोग से दोनों फलते-फूलते रहते है। अरहर नाइट्रोजन खींचती है और उसका थोड़ा सा अंश अपने काम में लेकर ज्वार को दे देती है और इस तरह दोनों ही विकसित होते रहते है।

आम की सघन छाया में पान की बेलें बड़ी आसानी से विकसित हो लेती है, आम ऐसा करने से इनकार कर दे तो पानों का अस्तित्व ही कहाँ रहे। नारियल की छाया में ही इलायची फलती-फूलती हैं छोटों को बड़े खा जाते है, यह सिद्धान्त गलत है। सच्ची बात यह है कि छोटों को बड़ों से संरक्षण, प्रेम, स्नेह और उदारता मिलनी चाहिये। प्रीव (रैसीडुअल इफैक्ट) वनस्पति पर ही नहीं, मनुष्य जीवन भी लागू होता है। यदि हम उसका पालन करें तो समाज की शान्ति और व्यवस्था में भारी योगदान दे सकते है।

वृक्षों में सामूहिकता की भावना का आदर्श चीकू के पेड़ में देखने को मिलता है। लोग कहते है कि अकेला हो तो शक्ति का मनमाना उपभोग करने को मिलता है पर उससे मनुष्य की प्रसन्नता नहीं बढ़ सकती। एकाकी मनुष्य न किसी से प्रेम कर सकता है, न उदारता व्यक्त कर सकता है। न्याय-नीति सेवा और सदाचार के फलितार्थ भी अकेले में नहीं भोगे जा सकते, यह बात मनुष्य को चीकू से सीखनी पड़ेगी। अकेला चीकू फल तो देता है पर कम लेकिन जब उसके बहुत से साथी भी आ जाते है तो यद्यपि उसकी खुराक के साझीदार बढ़ जाते है तो भी वह अधिक फल देने लगता है। उसकी आत्मिक प्रसन्नता बढ़ती सौजन्य और सौहार्द्र को आधार मिलता है, तब चीकू अधिक फल देने लगता हैं यदि मनुष्य भी उस धरातल पर विचारपूर्वक काम कर सका होता तो आज संसार में जो अशान्ति और संघर्ष है, वह न होता उसके स्थान पर परस्पर प्रेम, सहयोग, उदारता, सहानुभूति की परिस्थितियाँ होती। स्थायी विश्व-शांति के यही आधार है, यदि उन्हें हम अपने अन्दर से विकसित नहीं कर सकते तो अब पेड़-पौधों से वह शिक्षायें ग्रहण करनी होगी और उनकी तरह अपना सम्पूर्ण जीवन सेवा, सेवा, सेवा, उत्सर्ग, उत्सर्ग, उत्सर्ग में ही बिताना पड़ेगा।


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