कथा :- सच्चा-सहचर

October 1969

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सिद्धि के क्षण समीप थे। सहाद्रि तब अपनी वनवासी गुफा छोड़कर कहीं नहीं जाते थे। गुरु का आदेश भी ऐसा ही था, उन्हें पता था साधना के परिपक्व अवस्था तक पहुँचने में साधक के चित्त उसी प्रकार चंचल होते हैं। उनके आहार में से लवण और मधु दोनों निकाल दिए गये थे। सहाद्रि अस्वाद व्रत और निर्झर के शीतल के अतिरिक्त और कुछ भी ग्रहण नहीं करते थे।

प्रातः कालीन बयार के शीतल मन्द झोंके ऐसे सुखद लग रहे थे, जैसे माँ की गोद। सहाद्रि का ध्यान उस दिन चरम बिन्दु तक पहुँच रहा था। आत्मा, परमात्मा की दिव्य ज्योति में समा जाने के लिये उतावली हो रही थी, तभी भव्य एकान्त को चीरता हुआ कोकिल स्वर और साथ में पायलों की ड़ड़ड़ड़ झंकार सहाद्रि के अन्तस्तल को बेध गया। समाधि भंग ही गई, नेत्र खुल गये, ड़ड़ड़ड़ हो गया। सामने दाड़िम-प्रभा बिखेरने वाली राजनर्तकी अलोपा सम्पूर्ण साज-शृंगार के साथ उपस्थित थी। वह वन-विहार के लिये आई थी। योगी के अंग सौष्ठव और साधना से दीप्त मुखमण्डल ने उसे इस ओर आने को आकृष्ट किया। आलोपा अपने आपको रोक नहीं पाई थी।

आलोप ने पखवाड़ा सहाद्रि के आश्रम में ही बिताया और जब वहाँ से लौटी तब सहाद्रि अपने योग से, तप से पूर्णतया भ्रष्ट हो चुके थे। हीरा कौड़ियों के मोल बिक चुका था। वासना के इन्द्रजाल ने सिद्ध के प्रकाश का अपहरण कर लिया था। लक्ष्य की ऊँचाई तक आ जाने पर सहाद्रि इतने वेग से गिर कि अब उनके लिये उतनी ऊँचाई पर चढ़ना इस तरह असम्भव लगा, जैसे चींटी के लिये समुद्र पार करना। हृदय क्षोभ और आत्म-ग्लानि से भर गया। सहाद्रि पश्चाताप की अग्नि में जलने लगे। एक मास तक उन्होंने कुछ खाया-पिया नहीं और इसी अवस्था में उन्होंने अपना प्राणान्त कर लिया।

कहते हैं, योग भ्रष्ट को भगवान् दूसरे जन्म में वह सब परिस्थिति अपने आप प्रदान करते है, जिससे वह अपने आत्म-कल्याण की शेष दूरी स्वल्प प्रयत्न में ही सुविधा-पूर्वक पूरी कर ले। सहाद्रि का जन्म भी ऐसी ही परिस्थिति में महान्, सम्पन्न और ईश्वर भक्त घर में हुआ। पूर्व जन्मों के सभी संस्कार सहाद्रि में प्रारम्भ से ही विद्यमान् थे पर अब वह रिपुदमन के पुत्र विश्वजित् के नाम से पुकारे जाते थे।

बालक विश्वजित् तब बालक ही था, वह एक दिन मिट्टी में खेल रहा था। सचिव पुत्र को मिट्टी से क्यों खेलते देख कर राजा ने पूछा-शरीर मिट्टी से बना है, सो उसे मिट्टी में खेलने से बढ़कर आनन्द खिलौनों में नहीं मिलता।”

राजा इस उत्तर से बड़ा विस्मित हुआ। उसने बालक को राज्य-संरक्षण में लेने की इच्छा से कहा- “वत्स! तू हमारे साथ चलो हम तुम्हें अच्छे वस्त्र स्वाद युक्त भोजन और आभूषणों से युक्त सुखद जीवन के सब साधन अनुभव करोगे।”

विश्वजित् ने गम्भीर होकर उत्तर दिया- “राजन्! मनुष्य का एकमात्र सहचर तो परमात्मा है, जो उसको छोड़कर अन्य किसी की शरण ढूँढ़ते है, वह संसार में व्यर्थ भटकते है।” वह कहकर बालक घर की ओर चल पड़ा! महाराज उसे विस्मय विस्मित नेत्रों से देखते ही रह गये। पूर्व जन्म के शुभ संस्कार जब उदय होते है, तब ऐसी ही ज्ञान गरिमा अनायास प्रस्फुटित देखी जाती है। अन्त में विश्वजित् महान् तपस्वी बनकर उस युग के बिल-क्षण सिद्ध-पुरुषों की पंक्ति में जा विराजे।


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