पशुबलि भारतीय धर्म पर एक कलंक

October 1969

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(पं० श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित और युग-निर्माण योजना द्वारा प्रकाशित

‘पशुबलि हिन्दू धर्म का कलंक’ पुस्तिका का एक अंश)

देवता उन्हें कहते है जो दें। प्यार, सेवा, सहायता, सौजन्य, करुणा, सद्भावना और ममता का जो निरन्तर परिचय देते रहते है, वे देवता है। अन्तरिक्ष में रहने वाली परमेश्वर की ऐसी ही अदृश्य शक्तियाँ जो संसार के हित साधन में निरन्तर प्रवृत्त रहती है। देवता, मानी और पजी जाती हे। इन गुणों वाले व्यक्ति भी धरती के दृश्य भूसुर-महामानव-नर नारायण कहलाते हे। चाहे दृश्य हो चाहे अदृश्य जो उच्च अध्यात्म तत्त्वों से सत्प्रवृत्तियों एवं सद्भावनाओं से परिपूर्ण है वे सत्ताएँ देव कही जायेगी और सदा उनका अर्चन अभिनन्दन होता रहेगा। भारतीय धर्म में अनेक देवताओं का अस्तित्व माना गया है यह कुछ नहीं एक ही परमेश्वर की ऐसी विभिन्न शक्तियाँ एवं गतिविधियाँ है जो विश्व मंगल में निरन्तर संलग्न है।

देव पूजन में स्वागत सम्मान के उपयुक्त वस्तुओं का नियोजन अर्पण किया जाता है। धूप, दीप, नैवेद्य, चन्दन, पुष्प, रोली, अक्षत जैसी मांगलिक वस्तुओं में ही वह सात्विकता रहती है जिसे पाकर देवता का परम सतोगुणी सत्ता प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार करे। देव पूजा में दिव्य वातावरण एवं सतोगुणी भावनाओं गतिविधियों एवं वस्तुओं का अर्पण अभीप्सित है। होता भी यही है।

तथ्य के सर्वथा विपरीत कुछ शताब्दियों से अपने देश में हर क्षेत्र में बहुत कुछ ऐसा उद्दण्ड आचरण प्रचलित हो चला है जिसकी मूलतत्त्व के साथ कोई संगति नहीं बैठती। देव पूजा के लिये निरीह पशु पक्षियों की नृशंस हत्या उन्हीं की प्रतिमाओं के सामने की जाय इस कृत्य का किसी भी दृष्टि में कोई औचित्य दिखाई नहीं पड़ता। अध्यात्मिकता का तत्त्व ज्ञान,देवता की प्रकृति एवं स्थिति, पूजा की पवित्रता पर जितना अधिक विचार करते हे उतनी ही बलिदान की प्रचलित प्रथा सर्वथा अनुपयुक्त और अवांछनीय प्रतीत होती चली जाती है। निरीह प्राणियों की हत्या से देवता प्रसन्न होंगे और इस कुकृत्य को उचित मानकर उस कर्ता को कल्याणकारी वरदान देंगे। यह बात यदि वस्तुतः सही हो तो हमें देवत्व की स्थिति पर ही पुनर्विचार करना होगा। तब दया करुणा और देने की प्रकृति को उनके स्वभाव का अंग न मानकर यह कहना होगा कि वे निष्ठुर नृशंस, दुष्ट,शोषण के प्रतीक है। और मूल्य प्राप्त करने के बाद ही अपनी कृपा बेचते है। वह मूल्य भी सज्जनता पूर्ण नहीं-ऐसा नृशंस जिसे स्वीकार करना एक अविकसित बुद्धि के बालक के लिए भी असह्य हो उठे। यदि देवताओं की प्रकृति यही है तो हमें विचार करना पड़ेगा कि उनको अपनी अन्तः चेतना में आमंत्रित करके हम कही भारी भूल तो नहीं कर रहे है। देवत्व की दिशा में चलने की अपेक्षा हम कहीं असुरत्व को तो आमंत्रित नहीं कर रहे हे।

मध्य कालीन अन्धकार युग में इस देश में अनेक प्रकार की मूढ़ताओं का उद्भव हुआ है। उसने धर्म क्षेत्र को भी अछूता नहीं छोड़ा। दया की देवी-करुणा की सरिता ममतामयी माता भगवती महाशक्ति मनुष्यों को करुणा, सहृदयता, सज्जनता और उदारता की ही प्रेरणा दे सकती है। उसे ऐसे वीभत्स स्वरूप में प्रस्तुत करना कि “उसे नृशंस निर्दयता पसन्द है” वस्तुतः भगवती अम्बा को ही नहीं समस्त देव सत्ता का ही कलंकित करना है। देवता यदि माँस लोलुप है, हत्या देखकर प्रसन्न होते है, करुणा का परित्याग कर नृशंस आचरण करने की प्रेरणा करते है-तो उनमें और असुर में क्या अन्तर रहा? यदि ऐसा ही सच होता तो फिर देव और असुर की परख करना असम्भव ही हो जाता।

मध्य कालीन मूढ़ता और बौद्धिक विकृतियों की ही यह एक झाँकी है कि हम देवताओं के सामने मूक ओर निरीह पशुओं का हृदय विदारक उत्पीड़न ओर चीत्कार भरा वध करने को उचित मानने लगे। उचित ही नहीं मानते वरन उसे करने के लिए भी उत्साह पूर्वक अग्रसर होते है। कितने ही प्रान्तों में- कितने ही मठों में देवी भवानी अथवा भैरव की प्रतिमाओं के सामने आये दिन इन मूक प्राणियों की रक्त धारा बहती रहती है। इसे बलिदान कहा जाता है। बलिदान शब्द त्याग, उदारता एवं तपश्चर्या के अर्थ में प्रयुक्त होता है। बलिदान अपना किया जाता है। शास्त्रों में अलंकार रूप से काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद मत्सर जैसे दुर्गुणों को पशु कहा है और उनका वध करने की-परित्याग करने पुण्य प्रक्रिया में बलिदान के रूप में इंगित किया है। यह कैसा बलिदान जिसमें कर्ता को अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिये- मनोकामनाएँ पूरी कराने के लिए देवता को रिश्वत प्रस्तुत करते हुए एक दुष्ट कर्म करना पड़े। देवता यदि किसी के प्राण लेकर अपनी क्रूरता को तुष्ट करने लगे ओर रिश्वत लेकर मनोकामनाएँ पूरी करने लगे तो फिर हम मनुष्यों के सामने घोर अन्धकार ही अन्धकार है। हमें करुणा, दया, सेवा और उदारता की शिक्षा प्रेरणा कौन देगा? देवताओं में से देवत्व चला गया तो हमें मनुष्यों में उसका संचार कैसे होगा? जब देवताओं ने आसुरी प्रकृति अपना ली तो हम मनुष्यों के लिये पैशाचिकता ही स्वाभाविक बन जाएगी। तब धर्म का स्वरूप ‘अनर्थ’ के अतिरिक्त ओर क्या रह जायेगा? फिर देवत्व की व्याख्या दयालुता के अर्थ में कौन करेगा?

हो सकता है किसी माँसाहारी को अपने अभक्ष्य भोजन को भी देवता का प्रसाद समझकर खाने की सूझ सूझी हो और उसने वध की क्रिया को देव बलिदान कहकर लोलुपता में देव प्रसन्नता की उड़ान उड़ी हो। हो सकता है प्राचीन काल के तलवार युद्ध में सैनिकों को हाथ साध करने का अभ्यास भैंसे, बकरी की गरदन पर कराया जाता है। और सोचा गया हो कि यह कृत्य किसी अभ्यासी के मन की करुणा उसे विचलित न कर दे इसलिये उसे देव बलिदान का रूप दे दिया जाय। हो सकता है किन्हीं पुजारियों और उनकी मंडली ने माँसाहार की लोलुपता तृप्त करने के लिये भोले भक्तों को पशुबलि की सूझ सुझाई हो। हो सकता है किसी मठाधीश ने माँस चमड़ा और हड्डियों का अनायास ही बहुत सा लाभ पाने का रास्ता खोजा हो। हो सकता है किसी ने देवताओं की प्रकृति तक में दुष्टता सिद्ध करके अपनी दुष्टता की स्वाभाविकता और आवश्यकता प्रतिपादित की हो। कह नहीं सकते इस पशुबलि प्रचलन के पीछे क्या कारण थे। और यह प्रथा कैसे चल पड़ी? कारण जो भी रहा हो यह एक तथ्य हो कि सत्य और अहिंसा, दया और करुणा का आधार लेकर खड़ा हुआ भारतीय धर्म- देवताओं के सामने पशुबलि जैसी नृशंस प्रक्रिया का समर्थन नहीं कर सकता।

हो सकता है किन्हीं पुस्तकों में संस्कृत के कुछ श्लोक इस समर्थन में जुड़े हो। उन्हें अवांछनीय तत्त्वों द्वारा की गई घुस पैठ या मिलावट ही कहा जा सकता है। ऐसे दो पाँच श्लोक प्रस्तुत करके भारतीय धर्म की आत्मा को नहीं झुठलाया जा सकता। देवी सपना देकर या किसी अन्य प्रकार से ऐसा संकेत करती है कि मुझे हत्या और माँस द्वारा प्रसन्न किया जाया यह कल्पना आदि से अन्त तक निर्मूल है। जिस दिन देवी का हृदय इतना कठोर हो जाएगा उस दिन उसे माता या देवी कहलाने का अधिकार ही न रहेगा। वरदान, अनुदान या आशीर्वाद जिस दिन माँस मदिरा के मूल्य पर खरीदे जाने लगेंगे उस दिन वरदान दे सकने वाली अध्यात्म शक्ति का संसार से पलायन ही हो जाएगा। इन मान्यताओं में रत्ती भर भी सचाई नहीं है कि-देवता पशुबलि चाहते है या इस कुकृत्य द्वारा उन्हें प्रसन्न सन्तुष्ट किया जा सकता है। यदि कर्मफल का सिद्धान्त सत्य है। और यदि हत्या की गणना पाप कर्मों में है तो निश्चित रूप से इस नृशंस आयोजन से सम्बन्ध रखने वाले ओर समर्थन करने वाले अपनी आत्मा ओर परमात्मा के सामने पापी के रूप में ही प्रस्तुत होंगे और अपने कुकृत्य भोगेंगे।

समय आ गया कि हम अन्धकार युग की विकृतियाँ का संशोधन करे और जो अवांछनीय एवं अनुचित हे उसे तिरस्कृत बहिष्कृत करने के लिए साहस पूर्वक आगे आयें। पशुबलि भारतीय धर्म पर कलंक है। इस कार्लोच के रहते हम सत्य और अहिंसा का प्रतिपादन कैसे कर सकते है? फिर हमें भारतीय धर्म को असत्य और हिंसा का प्रतीक ही कहना पड़ेगा। देवताओं को दयालुता का प्रतीक रहने दिया जाय। जिन्हें माँसाहार करना हो उसे व्यक्तिगत रूप से करें। बेचारे देवताओं को उसमें सम्मिलित न करें। मन्दिरों की पवित्रता अक्षम्य रखी जानी चाहिए। पूजा प्रक्रिया में सात्विकता जुड़ी रहनी चाहिये। धर्म कृत्यों का वातावरण सद्भावना पूर्ण रहना चाहिए। इसके लिए यह नितान्त आवश्यक है कि पशुबलि जैसी नृशंस प्रक्रिया को किसी धर्म स्थान या धर्म आयोजन में तनिक भी स्थान या समर्थन न मिले।


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