अपनों से अपनी बात

October 1969

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नैतिक एवं साँस्कृतिक पुनरुत्थान की महती प्रक्रिया को व्यापक बनाने के लिए अपना ज्ञान-यज्ञ इस युग का महानतम अभियान है। आन अविवेक ने विवेक का स्थान ग्रहण कर लिया है, इसे पदच्युत करना है। यह उचित न होगा कि अज्ञान की दसों दिशाओं में विजय दुंदुभी बजे और ज्ञान एक कोने पर पद दलित बना बिलखता रहे। जनमानस में अनाचार के प्रति सम्मान एवं आकर्षण और आदर्शवादिता के प्रति तिरस्कार, बहिष्कार की प्रवृत्ति बढ़ चले, यह असह्य है। मानव-जीवन में उत्कृष्टता के लिये स्थान न मिले और पशु प्रवृत्तियों के आधार पर सारी रीति-नीति चल पड़े, इसे दुर्घटना जैसा दुर्भाग्य ही कहना चाहिये। आदर्श चर्चा कहने और सुनने को बहुत मिलती है पर व्यवहार में उसके दर्शन भी नहीं होते। जो सोचा और किया जाता है, वह निकट कोटि का होता है। वासना और तृष्णा के अतिरिक्त और कोई आकांक्षा ही शेष नहीं रहे तो ऐसे मानव समाज को नर पशुओं का झुण्ड ही कहा जायेगा। इन परिस्थितियों में व्यक्ति को असंतोष की आग में जलते रहने और समाज को असंख्य विपत्तियों एवं उलझनों में उलझे हुए सर्वनाश की ओर बढ़ चलने के दुष्परिणाम ही भुगतने पड़ सकते है। सो ही सर्वग्राही विभीषिकाओं में हम व्यक्ति और समाज को बुरी तरह ग्रस्त, संतप्त और विक्षुब्ध बना देख भी रहे है।

इस स्थिति को यथावत् नहीं चलने दिया जा सकता। देर से जिस दिशा में कदम बढ़ते चले आ रहे हैं, उन्हें और भी आगे बढ़ते रहने देने में भारी जोखिम है। अब हम सर्वनाश के किनारे पर बिलकुल आ खड़े हुए हैं। कुमार्ग पर जितने चल लिये उतना ही पर्याप्त है। अगले कुछ ही तक विवेक को मूर्धन्य न बना लेंगे, तब तक चैन न लेंगे। उत्कृष्टता और आदर्शवादिता की प्रकाश किरणें हर अन्तःकरण तक पहुँचाएँगे और वासना और तृष्णा के निकृष्ट दल-दल से मानवीय चेतना को विमुक्त करके रहेंगे। मानव-समाज को सदा के लिए दुर्भाग्य ग्रस्त नहीं रखा जा सकता उसे महान् आदर्शों के अनुरूप ढलने और बदलने के लिए बलपूर्वक घसीट से चलेंगे। पाप और पतन का युग बदला जाना चाहिए। उसे बदल कर रहेंगे। इसी धरती पर स्वर्ग का अवतरण और इसी मानव प्राणी में देवत्व का उदय हमें अभीष्ट है और इसके लिए भागीरथ तप करेंगे। ज्ञान की गंगा का भूलोक में लाया जायेगा और उसके पुण्य जल में स्नान कराके कोटि-कोटि नर-पशुओं को नर-नारायणों में परिवर्तित किया जायेगा। इसी महान् शपथ और व्रत को ज्ञान यश के रूप में परिवर्तित किया गया है। विचार क्राँति की आग में गन्दगी का कूड़ा-करकट जलाने के लिए होलिका-दहन जैसा अपना अभियान है। अनीति और अनौचित्य के गलित कुष्ठ से विश्व-मानव का शरीर विमुक्त करेंगे। समग्र काया-कल्प का युग परिवर्तन का लक्ष्य पूरा ही किया जायेगा। ज्ञान-यश की चिनगारियाँ विश्व के कोने-कोने में प्रज्वलित होंगी। विचार-क्राँति का ज्योतिर्मय प्रवाह जन-जन के मन को स्पर्श करेगा।

अपना महान् अभियान गतिशील ही नहीं सफल भी होना है। व्यक्ति का दृष्टिकोण ऊँचा उठेगा तो वह देवताओं की तरह शांति प्राप्त करेगा। आदर्शों की प्रतिष्ठापना होगी तो समाज में स्वर्गीय परिस्थितियाँ उत्पन्न होंगी। आज की विपत्तियाँ, उलझनें और विभीषिकाएँ दैवी प्रकोप नहीं, सारा संकट मनुष्य कृत है। पथ-भ्रष्ट होकर हमने विवशताओं का वरण किया है, अब हम सही रास्ते पर चलेंगे और उसकी स्वर्णिम सतयुग जैसी परिस्थितियाँ वापिस लायेंगे, जिनमें रहकर अपना और समस्त विश्व का उत्कर्ष कर सकें। इस शस्य श्यामला धरती पर सुख सुविधाओं की कोई कमी नहीं। श्रम, धन और मस्तिष्क को जितनी मात्रा में द्वेश, दुर्भाव और विनाश के आयोजनों में लगा रहे हैं, उन्हें पलट कर प्रेम, सहयोग और निर्माण में प्रयुक्त करेंगे तो कोई कारण नहीं कि इस धरती पर स्वर्ग का अवतरण न हो। केवल दिशा बदलने भर की बात है। सोचने का तरीका उलट जाय तो सब कुछ बदल ही जायेगा। हम सर्वसाधारण को विवश करेंगे कि गलत ढंग से सोचने की अपेक्षा सही ढंग से सोचें। इन्द्रियों की तृप्ति और बेटे के लिये दौलत जोड़ने की क्षुद्रता से यदि व्यक्ति को बचाया जा सके और उसे अपनी क्षमताएँ लोक मंगल के लिए नियोजित करने में प्रवृत्त किया जा सकें तो तुच्छ दीखने वाले यही आज के नर पशु, कल के ड़ड़ड़ड़, हनुमान, हरिश्चन्द्र, प्रहलाद, शिवि-दधीचि शिवा-प्रताप भीम-अर्जुन तिलक-गाँधी दयानन्द, शंकराचार्य, बुद्ध-महावीर लक्ष्मीबाई, दुर्गावती की भूमिकाएँ प्रस्तुत कर सकते हैं। केवल मोह और अज्ञान भर ही हटाना है। केवल सोचने की दिशायें भर बदलनी हैं। अपना ज्ञान यज्ञ इन्हीं साधनों से ओत-प्रोत है।

यज्ञ में सात वृक्षों को समिधाएँ काम आती है। अग्नि प्रज्वलित करते ही सात घृत आहुतियाँ देनी पड़ती हैं। गायत्री के देवता सविता के रथ में सात अश्व हैं। सूर्य की सात किरणें सप्त रंगों में इस विश्व को प्रभावित करती है। कालचक्र सात दिनों में विभक्त है। अपना ज्ञान यज्ञ भी प्रथम चरण की पिछले दो अंकों में विस्तारपूर्वक चर्चा कर चुके हैं। नव निर्माण की विचार धारा को व्यापक बनाने के लिये और जन जन के मन-मन तक अभिनव जागरण एवं भावनात्मक परिवर्तन का प्रकाशपूर्ण सन्देश पहुँचाने के लिये हममें से प्रत्येक को कुछ न कुछ करना ही चाहिये था। सो ड़ पुस्तकालयों की स्थापना एवं विचार वितरण के आधार पर नये लोगों से सम्पर्क बनाने की बात कही गई है। नित्य थोड़ा समय और थोड़ा पैसा इस कार्य के लिए लगाने का अनुरोध किया गया है। युग सन्धि की इस अति महत्त्वपूर्ण बेला में न्यूनतम इतना तो हर प्रबुद्ध व्यक्ति को करना ही चाहिये। जो इतना भी न कर सके, जितने मन में इतने अनुरोध के पश्चात्-इतनी भी उमंग न उठे, इतना करने के लिए भी उत्साह जागृत न हो जो समझना चाहिये कि इनका रक्त ठण्डा हो गया।

कल्पना लोक की उड़ानें और वाक् शूरता मन समझाने के लिए उपयोगी हो सकती है पर कुछ बनता तो क्रिया से ही है। कार्य के बिना उपलब्धि कुछ नहीं। आत्म-संतोष आत्म-कल्याण और आत्म-विकास की दृष्टि से लोक-मंगल के लिए कुछ त्याग और पुरुषार्थ करना अनिवार्य है। सो उसके लिए अति सरल और हर व्यक्ति के उपयुक्त विचार विस्तार की एक छोटी किन्तु अति महत्त्वपूर्ण योजना पिछले महीनों से अधिक जोर देकर प्रस्तुत की गई हैं। वैसे इन्हीं बातों को हम कहते बहुत दिन से आ रहे हैं। पर अब उसे अनिवार्यतः कार्यान्वित करने का समय आ गया, इसलिये अधिक जोर देना पड़ा। संतोष की बात है कि प्रिय परिजनों ने उसे उल्लास और उत्साह के साथ कार्यान्वित करने में रुचि दिखाई है। यह सक्रियता नव निर्माण की दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका सम्पादित करेगी, ऐसा विश्वास है।

(1) झोला पुस्तकालय की पूर्णता और (2) विज्ञप्ति वितरण के बाद अगले दिनों ज्ञान यज्ञ की सप्त सूत्र योजना को कार्यान्वित करने के लिए पाँच कदम अगले दिनों और उठाने पड़ेंगे। (3) आत्म-निर्माण (4) परिवार निर्माण, (5) पर्व और त्यौहार का पुनरुत्थान। जन्म-दिवस एवं विवाह-दिवसों का प्रचलन। (6) धर्म समारोह-कथा प्रवचन, सम्मेलन, यज्ञ और विचार गोष्ठियों के द्वारा जन जागरण। (7) कला प्रयोजन-संगीत साहित्य और कला की त्रिवेणी का नव निर्माण में उपयोग। इस सप्त सूत्री योजना के सम्बन्ध में यों साधारण चर्चा अगस्त के अंक में हो चुकी है। संक्षिप्त में फिर एक बार इसे समक्ष लिया जाय तो उचित ही होगा।

(1) झोला पुस्तकालय-नव निर्माण का पूरा ड़ साहित्य मँगा कर घर में एक पुस्तकालय स्थापित करना। जिससे कुटुम्बी, मित्र, रिश्तेदार, पड़ोसी तथा परिचित लोग भावनात्मक उत्कर्ष का पथ प्रशस्त करते रहें। दोनों पत्रिकाएँ मँगाना।

(2) विज्ञप्ति वितरण- अपने समीपवर्ती क्षेत्र में विचारशील लोगों को हर दिन नियमित रूप से विज्ञप्तियां बँटवाने तथा वापिस लेने जाना। यह विज्ञप्तियाँ एक रुपये की सौ के हिसाब से आती हैं। इस विचार प्रसार के लिए हर दिन कम से कम एक घण्टे का समय और एक दिन की आमदनी- न्यूनतम दस पैसा- नियमित रूप से लगाते रहना।

(3) आत्म निर्माण- आलस्य, आवेश, अस्त व्यस्तता, फिजूलखर्ची, असंयम, दुर्व्यसन, अस्वच्छता आदि दुर्गुणों को छोड़ना। आत्म-सुधार आत्म निर्माण और आत्म विकास के लिए निरन्तर प्रयत्न करता। ईश्वर की न्यायशीलता, कर्म प्रियता और सर्वव्यापकता पर विश्वास। नियमित उपासना। उद्देश्यपूर्ण, आदर्शवादी और उत्कृष्ट जीवन यापन।

(4) परिवार निर्माण-परिवार के सामने अपना आदर्श रखकर चरित्र शिक्षण, सब की सलाह से बजट बना कर व्यय करना, प्रत्येक परिजन को उचित सुविधा एवं नियत कर्तव्य पालन की व्यवस्था, घर को सुसज्जित और सुव्यवस्थित बनाने में हर सदस्य का नियमित योग दान। नित्य कथा, नियत समय पर कहानी तथा समाचार सुनाकर परोक्ष रूप से विचार निर्माण का प्रशिक्षण, पारिवारिक जीवन में सरसता और प्रफुल्लता की गतिविधियों का समावेश हर सदस्य को कठिनाई समझना और उसका समाधान करना, गृह-उद्योगों से अर्थ लाभ, प्रगति की योजनाएँ बनाना हर सदस्य को धार्मिक और आस्तिक बनाना आदि।

(5) अपने घर में तथा सम्बन्धित लोगों में जन्म दिन मनाने की प्रथा प्रचलित कर जीवनोद्देश्य और कर्तव्य पर गम्भीर चिन्तन की प्रेरणा प्रस्तुत करता। विवाह दिवसोत्सव मनाकर दाम्पत्य जीवन तथा पारिवारिक कर्तव्यों के प्रति निष्ठा उत्पन्न करना। संस्कारों द्वारा व्यक्ति निर्माण और परिवार निर्माण की तथा पर्व त्यौहारों द्वारा समाज निर्माण की शिक्षा देने वाले आयोजनों को प्रेरक पद्धति से मनाना।

(6) धर्म समारोह-समय-समय पर गीता, रामायण, सत्यनारायण आदि की कथायें सामूहिक गायत्री यज्ञ, युग निर्माण सम्मेलन, विचार गोष्ठियों में प्रेरक प्रवचन, जयन्तियाँ, सत्कर्मों के लिए अभिनन्दन आदि धर्म समारोहों के माध्यम से जन जागृति की व्यवस्था बनाना।

(7) कला प्रयोजन-ऐसे संगीत विद्यालयों की स्थापना, संगीत सम्मेलनों तथा गायन गोष्ठियों का प्रबन्ध, जिनमें नव निर्माण की प्रेरणा भरी रहे। गायनों का निर्माण, प्रकाशन तथा प्रशिक्षण, प्रेरक चित्रों तथा प्रदर्शनियों का प्रबन्ध, सत्साहित्य का लेखन, प्रकाशन तथा विक्रय, अभिनय कला का रचनात्मक प्रयोजन के लिए नये ढंग से संगठन, कविता सम्मेलन आदि आदि।

विचार प्रवाह की दृष्टि से उपरोक्त सात कार्यक्रम तथा इससे मिलते जुलते दूसरे कार्यक्रम स्थानीय परिस्थितियों को देखते हुए अपनी स्वतन्त्र सूझ-बूझ से भी बनाये जा सकते हैं। विचार निर्माण एवं विवेकशीलता का जागरण ही ज्ञान यज्ञ का प्रथम उद्देश्य है। ज्ञान-यज्ञ का विचार पक्ष प्रचार प्रकरण और आस्थाओं का निर्माण उपरोक्त सात कार्यक्रमों में ड़ है। इसी प्रक्रिया का दूसरा किया पक्ष विचार-क्राँति है। विचारों को क्रिया के रूप में परिणत किया जायेगा तो उसका कोई दृश्य स्वरूप बनेगा। घटनाओं का रूप धारण करेगा। इसे विचार क्राँति भी कह सकते हैं। इसका स्वरूप सक्रिय आन्दोलन के रूप में दिखाई देगा। आस्थाओं का क्रिया के साथ समन्वय होने से ही उसमें पूर्णता आती है।

विचार पक्ष अर्थात् मानसिक परिवर्तन। क्रिया पक्ष अर्थात् परिवर्तनों को प्रत्यक्ष प्रस्तुत करना। इन्हीं दो पहलुओं को अभियान और आन्दोलन का-विस्तार ओर क्राँति का- नाम भी दिया जा सकता है। नाम की उलझन कुछ नहीं, हमें वस्तुस्थिति समझ लेनी चाहिये। ज्ञान-यज्ञ के प्रथम चरण लोक-मानस का परिष्कार करना और दूसरा चरण उसे व्यवहार में कार्यान्वित करके प्रथा, परम्परा एवं प्रवचन का रूप देना है। दोनों कार्य साथ लेकर चलना पड़ेगा। लिखना और पढ़ना दोनों कार्य साथ लेकर शिक्षा क्रम चलता है। अन्न और जल की दोनों आवश्यकतायें भोजन में पड़ती है। गाड़ी दो पहियों पर लुढ़कती है। विचार की परिपक्वता क्रिया के समन्वय से ही सम्भव है। प्रचार अभियान के साथ-साथ परिवर्तन को आन्दोलन भी चलता रहे, तभी हमारे ज्ञान-यज्ञ को सफल होने को अवसर मिलेगा।

विचार-क्राँति का क्रिया पक्ष भी विचार यज्ञ के पीछे लिखे सात कार्यक्रमों की तरह ही सात सूत्रों में विभक्त है। अग्नि को सप्त जिळा वाली बताया गया है। प्राण-योग में गायत्री महामन्त्र के साथ सात व्याहृतियों का समावेश होता है। विचार-क्राँति भी सात धाराओं में बहने वाली है। अगले दिनों हम सात आन्दोलन आरम्भ करेंगे 1 आदर्श विवाह 2 कुरीति निवारण 3 शिक्षा अभिवर्धन 4 स्वास्थ्य संरक्षण 5 जीव दया 6 सहकारिता 7 प्रेरक मनोरंजन इन सातों की विस्तृत रूप रेखा, अगले अंकों में सामने आती जाएगी। संक्षेप में इनका स्वरूप इस प्रकार समझ लेना चाहिये।

(1) आदर्श विवाह-बिना धूमधाम और बिना व्यय के सात्विकता और सादगी के वातावरण में विवाहों का प्रचलन। बाल-विवाह, अनमेल विवाह का विरोध। विवाह सम्बन्धों के लिए उपजातियों के प्रतिबन्ध दूर करके उसका दायरा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि बड़ी जातियों की परिधि में बढ़ाना। दहेज और जेवर की माँग का उन्मूलन।

(2) कुरीति निवारण-मृत्यु भोज, भूत-पलीत भिक्षावृत्ति अश्लीलता, अस्वच्छता की आदत नीच-ऊँच नर-नारी की असमानता, पर्दे जेवर जैसी कुप्रथाओं का निषेध।

(3) शिक्षा अभिवर्धन- विद्यालयों की वृद्धि शिक्षा दिलाने की प्रवृत्ति बढ़ाना प्रौढ़ पाठशालाओं तथा रात्रि पाठशालाओं का चलाना, स्त्री शिक्षा पर विशेष बल पुस्तक बैंकों को स्थापना, पुस्तकालय वाचनालय खोलना आदि।

(4) स्वास्थ्य संरक्षण-नशा निषेध, स्वच्छता की प्रवृत्ति एवं सुविधा बढ़ाना, व्यायामशालाओं की स्थापना खेल-कूदो तथा दंगलों का आयोजन, शस्त्र संचालन शिक्षा शाक फल एवं पुष्पों का उत्पादन एवं उपयोग, आहार और विहार की सुव्यवस्था का प्रशिक्षण आदि।

(5) जीव दया- माँसाहार को निरुत्साहित करना पशु-बलि का विरोध, चमड़े से बनी वस्तुओं तथा रेशम के वस्त्रों का उपयोग घटाना, पशुओं पर अधिक भार लादने, पीटने एवं घायल स्थिति में काम लेने पर रोक, हत्या करके बनाई दवाओं का परित्याग, गौरक्षा, पशुपालन, जीव दया के सेवा केन्द्र आदि।

(6) सहकारिता- मिलजुल कर काम करने को प्रवृत्ति को प्रोत्साहन, साझे के कार्यों का प्रचलन, संयुक्त कुटुम्ब प्रथा का परिष्कृत रूप से पुनर्जीवन, सार्वजनिक सेवा संस्थाओं ओर क्लबों की स्थापना।

(7) प्रेरक मनोरंजन- संगीत गायन अभिनय ग्रामोफोन, रिकार्ड, चलचित्र प्रतियोगितायें प्रदर्शिनी आदि के मनोरंजन माध्यमों का ऐसा उपयोग जो जन-जागृति एवं भावनात्मक नव-निर्माण में सहायक हो सके।

यों शत सूत्री युग-निर्माण योजना के अंतर्गत यह सब बातें आ जाती है। विभिन्न प्रकार की परिस्थितियों, क्षमताओं एवं अभिरुचियों के व्यक्तियों को अपने ढंग से कुछ न कुछ करते रहने की बात दृष्टि में रखकर वे एक सौ कार्यक्रम बनाये गये थे। व चल रहे हैं। और चलने चाहिये पर आन्दोलन के रूप में थोड़े ही कार्यक्रम हाथ में लिये जा सकते हैं, सो उपरोक्त सप्तसूत्री विचार-क्राँति योजना अगले पाँच वर्ष का लक्ष्य रखकर कार्यान्वित ही जा रही है। अगली पंचवर्षीय विचार-क्राँति योजना में वे कार्यक्रम भी सम्मिलित कर लिए जायेंगे जो इस समय हाथ में नहीं लिये जा सके। विचार पक्ष के सात और क्रिया पक्ष के सात इस प्रकार कुल 14 कार्यक्रमों को युग-निर्माण आंदोलन के समुद्र मन्थन में से निकले हुए 14 रत्न मानना चाहिये।

क्रिया पक्ष के विचार-क्राँति के-सप्तसूत्री आन्दोलन में सबसे प्रथम विवाहोन्माद के निराकरण और आदर्श विवाहों की प्रतिष्ठापना को हाथ में लिया जा रहा है। आज की परिस्थितियाँ इस सन्दर्भ में बहुत ही विषम हैं। शादियों में इतना व्यय करना पड़ता है कि उस भार की अनीति को अवांछनीय करने वाले अथवा उँगलियों पर गिनने लायक ‘भाग्य सिकंदरों’ को छोड़कर मध्य वर्गी नीतिपूर्वक कमाने वाले किसी प्रकार सहन नहीं कर सकते। आज की आकाश चूमने वाली महंगाई और शिक्षा चिकित्सा आदि सभी जीवनोपयोगी कार्यों के बढ़े हुए खर्चों ने सामान्य जनता का आर्थिक संतुलन बिगाड़ कर रख दिया है। लोग मुश्किल से निर्वाह करने का जोड़-तोड़ पूरा कर पाते हैं। बचत कोई बिरला ही कर सकता होगा। ऐसी दशा में बच्चों के विवाह यदि मौत के वारंट बनकर सामने आये तो अभिभावकों प्राण सूखना स्वाभाविक है।

लड़के वाले विलासिता की कीमती वस्तुएँ, राजशाही दावत और दहेज में कुबेर जैसी दौलत माँगते हैं। असमर्थता बताने पर सीधे मुँह बात नहीं करते। पढ़े-लिखे कमाऊ लड़के हाथियों के मोल बिक रहे हैं। बेचारा सद्गृहस्थ जो किसी प्रकार बच्चों का पालन पोषण और शिक्षण मात्र कर पाता है, इस माँग की पूर्ति कहाँ से करे?दूसरी ओर लड़की वालों की भी अपनी शान है। वे अपनी लड़की को स्वर्ण आभूषणों और सिनेमा की परियों जैसे परिधानों से लदी देखना चाहते हैं। बारात ऐसी चाहिये, जिसमें गाजे-बाजे आतिशबाजी, सजावट ओर प्रदर्शन की धूम हो। यह खर्चे लड़के वाले के लिए भी असह्य हैं। लड़की वाले की तरह वह भी गरीब ही है। बारूद की तरह फूँकने के लिये दौलत वह भी कहाँ से लाये? निदान वह सारा खर्चा बेटी वाले से माँगता है, मजबूरी उसकी भी है। इस कुचक्र में लड़की वाला तीन तरफ से मरता है। उपहार में दिये जाने वाले निरर्थक सामान नकदी जेवर कपड़े बर्तन बारातियों की मेहमानदारी और शाही दावत के अतिरिक्त अपने मित्र-सम्बन्धियों की दावत, आवभगत का भी खर्चा पड़ता है। उसका भार दूना हो जाता है। दूना ही नहीं, तीन गुना ही, क्योंकि लड़के वाला तो अपना खर्च लड़की वाले से वसूल कर लेता है पर लड़की वाला वैसा नहीं कर सकता। उसे वह खर्च जुटाने के लिए अपनी थोड़ी-बहुत गुँजाइश को समाप्त करने, कर्ज लेने और अनीतिपूर्वक कहीं से कुछ प्राप्त करने की तीन ही रास्ते रह जाते हैं। एक विवाह में वह सारी तरकीबें समाप्त हो जाती और यदि लगातार कई विवाह करने हों तो फाँसी के फन्दे में टँगे हुए अपराधी की तरह, जाल में जकड़े हुए असहाय पक्षी की तरह, किंकर्तव्यविमूढ़ होना पड़ता है। इन परिस्थितियों का हल लोग किन तरकीबों से करते है। यदि उनका पर्दा उठाकर देखा जाय तो स्वयं निष्ठुरता भी रो पड़ेगी।

व्यक्तिगत रूप से भी इन विवाहों की खर्चीली प्रथा के कारण दुःखी हैं। लड़की वाले को तो शूली पर ही चढ़ना पड़ता है। लड़के वाला भी कुछ नफे में नहीं रहता। निरर्थक उपहारों से घर घिरता है, जो मिला था वह उसी जंजाल में स्वाहा हो जाता है बहुत करके तो कुछ न कुछ घर से भी लगाना पड़ता है। लोगों की आर्थिक स्थिति बिगड़ती है और उसके कारण जीवन की अति महत्त्वपूर्ण आवश्यकताओं से भी वंचित रहना पड़ता है। कर्ज दरिद्र चिन्ता और अनीति उपार्जन से व्यक्ति का कितना पतन होता है इसका अनुमान हम सब भुक्त-भोगी प्रकार लगा सकते है।

सामाजिक दृष्टि से इस कुप्रथा से राष्ट्र का भारी अहित है। जो पूँजी परिवार के विकास स्वास्थ्य शिक्षा व्यवसाय आदि में लगाकर लोगों का स्तर ऊँचा उठा सकती थी वह इस प्रकार बर्बाद होती रहे तो देश हमेशा दरिद्र रहेगा। दरिद्र जनता वाला कोई राष्ट्र सदा दुर्बल ही रहेगा। अभाव ग्रस्त और चिन्तित नागरिक हर क्षेत्र में अपना पिछड़ापन सिद्ध करेंगे और समर्थ व्यक्तियों के बिना कोई समाज ऊँचा नहीं उठ सकता। पिछड़े लोग अयोग्य और असमर्थ ही रहेंगे और वे राष्ट्रीय समस्याओं को जटिल ही करते रहेंगे। शादियों के आकाश छूने वाले खर्चे केवल अनीति से ही पूरे किये जा सकते हैं। उनके लिए रिश्वत, चोरी छल ठगी शोषण आदि का ही सहारा लेना पड़ेगा। जब हर नागरिक को यही करने के लिए मजदूर होना पड़े तो उस देश की नैतिकता कहाँ स्थिर रहेगी? अनीति उपार्जन को जहाँ स्वाभाविक मान लिया गया हो वहाँ अपराधों की ऐसी बाढ़ आयेगी, जो पुलिस जेल और कचहरी के बल पर न रुक सकेगी। आज के बढ़ते हुए अपराधों का मूल कारण बढ़े हुए खर्चें है। विलासी मनोवृत्तियों के अतिरिक्त इस अनीति उपार्जन का एक बड़ा कारण शादियों का खर्चा है। उससे राष्ट्रीय चरित्र नष्ट होता है और अपराधों की बाढ़ से सामाजिक शांति असम्भव है। ऐसी परिस्थितियों में राष्ट्रीय प्रगति का स्वप्न कौन देखेगा? जो लोग अनीति नहीं कर सकते वे रोटी कपड़ा शिक्षा चिकित्सा में कटौती कर अति अभाव ग्रस्त जीवन व्यतीत करते हुए इतने दुर्बल हो जाते हैं कि उन्हें दरिद्रों की दयनीय पंक्ति में बिठाया जा सके।

विवाहों का वर्तमान खर्चीला स्वरूप व्यक्ति और समाज के लिए असहाय भार बनता चला जा रहा है। इसके अतिरिक्त इसी सन्दर्भ में एक और समस्या है। सुयोग्य लड़की-लड़कों के जोड़े मिलाने की। पिछड़े वर्ग के अशिक्षित लोग पास-पड़ोस में तन्दुरुस्त लड़का-लड़की देखकर ब्याह कर देते हैं। घर बसने भर की उनकी आवश्यकता आसानी से पूरी होती रहती है। पर शिक्षित और सुसंस्कृत वर्ग सामने एक आर भी प्रश्न है कि लड़की लड़कों को समान योग्यता की जोड़ी चाहिये। इस तलाश के लिए लोगों को एक अति छोटी उपजाति की संकीर्ण परिधि में सीमित रहना पड़ता है। इस छोटी परिधि के अन्तर्गत उपयुक्त जोड़े मिलते नहीं, सुयोग्यों के दरवाजे पर वह टकराते हैं। इस लिए उनकी कीमतें बढ़ जाती हैं। इस अड़चन के कारण भी कितनी ही सुशिक्षित और सुयोग्य लड़कियों को या तो आजीवन कुँवारा रहना पड़ता है या अयोग्यों के गले उन्हें बाँध दिया जाता है, उपजातियों के बन्धन यदि थोड़े ढीले कर लिये जाएँ तो तलाश का क्षेत्र बहुत बढ़ जाय और सुयोग्य जोड़े आसानी से मिलने लगें तथा दहेज की माँग भी घट जाय।

अपने सवर्ण हिन्दू समाज के एक छोटे वर्ग से ऊपर उठ कर इसी देश के अन्य वर्गों के समाजों पर दृष्टि डाले तो विदित होगा कि यह मूर्खतायें केवल हमारे ही हिस्से में आई हैं। इसी देश के अन्य धर्म सम्प्रदायों के लोग इस महँगी-खर्चीली विवाह पद्धति से मुक्त हैं अन्य देशों में तो यह बीमारी कहीं भी नहीं है। लोग खुशी-खुशी बड़ी आसानी से विवाहों को एक छोटे घरेलू उत्सव के रूप में निपटा लेते हैं। इसके लिये अतिरिक्त खर्च की उन्हें जरूरत नहीं पड़ती। वे लोग लड़की-लड़कों में ज्यादा अन्तर नहीं करते। अपने यहाँ तो लड़की भार और लड़का कमाऊ। विवाहों में होने वाले लाभ-हानि के आधार पर गिने जाते हैं। लड़की होने का शोक और लड़का होने का हर्ष मनाया जाता है। जहाँ विवाह खर्चीले नहीं वहाँ दोनों को समान समझने और समान प्यार करने की मानवोचित प्रक्रिया जीवित बनी रहती हैं

दूसरे समाज इस पाप से मुक्त हैं। इसी प्रकार उपजातियों का बन्धन न होने से अन्य धर्मों अथवा समाज में जोड़े ढूँढ़ने का क्षेत्र बहुत व्यापक रहता है और यह तलाश बड़ी सुविधापूर्वक सम्पन्न हो जाती है। इस दृष्टि से बीस करोड़ सवर्ण हिन्दुओं के अतिरिक्त संसार के शेष तीन अरब मनुष्य बहुत सुखी और सौभाग्यशाली हैं। हम ही हैं, जो धर्म, संस्कृति, अध्यात्म ओर बड़प्पन की बातें तो लम्बी-चौड़ी हाँकते हैं। पर व्यवहार में अति संकीर्ण जड़-बुद्धि अनुदार और अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारने वाले अदूर दर्शियों की हेय परिस्थितियों में पड़े हुए हैं।

समय आ गया है कि इन विडम्बना भरी परिस्थितियों को बदलने के लिए साहसपूर्ण कदम उठाये जाएँ। युग बदलना है तो विचार बदलने होंगे और विचारों का परिवर्तन वही सार्थक है, जिसके अनुसार कार्य पद्धति भी बदली जा सके। सत्संग और प्रवचनों का-स्वाध्याय और सदुपदेशों का-तभी कुछ मूल्य है जब उनके अनुसार कार्य की प्रेरणा मिले। अन्यथा यह सब भी बुद्धिमत्ता मात्र है। हम चाहते हैं। कि बिना खर्च की शादियों के लिए-उपजातियों के जंजाल से ऊँचा उठने के लिए अखण्ड-ज्योति परिवार के लोग तैयार हों। वे साहस करे और आगे बढ़े। विरोध से न डरें।

रूढ़िवादी लोग हर सुधार का सदा से विरोध करते रह है। पर जैसे ही वह सुधार कुछ लोगों द्वारा अपना लिया जाता है वैसे ही उसका समर्थन भी करने लगते हैं। दुर्बल मन वालों के लिए रूढ़ियाँ ही सब कुछ हैं। विवेक से प्रभावित होने के लायक उन बेचारों की मनोभूमि ही विकसित नहीं हुई है। ऐसे दयनीय लोगों के विरोध, असहयोग की पूरी तरह उपेक्षा की जानी चाहिये, क्योंकि उनके आग्रह में कोई तथ्य नहीं है। अनौचित्य सर्वथा हेय और त्याज्य है। भले ही वह अपने या विराने-बालक या बूढ़े-किसी के भी द्वारा प्रस्तुत किया गया हो। सत्य का आग्रह और असत्य का परित्याग सदा धर्म रहा है। प्रहलाद भरत विभीषण बलि आदि ने तथाकथित प्रियजनों अनौचित्य को अस्वीकार करके कुछ पाप नहीं किया वरन वे यशस्वी ही हुए। विचार-क्राँति के योद्धाओं को अपने आस-पास बिखरी पड़ी मूढ़ता से झगड़ना भी चाहिये ओर उसके सामने सिर झुकाने से इनकार कर देना चाहिये। हमें व्यक्तियों को नहीं आदर्शों को ही मान्यता देनी चाहिये। क्राँति का यही मार्ग है।

सत्यानाशी विवाहोन्माद का उन्मूलन और आदर्श विवाहों का प्रचलन करने आदि की अपने समाज को भारी आवश्यकता है। सो आगे बढ़कर हमें ही समाज का मार्ग दर्शन एवं नेतृत्व करना होगा।

इस सन्दर्भ में लड़के वालों को तो आगे बढ़ना ही चाहिए पहल करना उन्हीं का काम है। अनाचार बढ़ाने में निन्दा भी इसी पक्ष की है। अब सुधार में भी वर पक्ष को ही आगे आना चाहिये अपने परिवार के सदस्यों को यह निर्णय कर लेना चाहिये कि उन्हें लड़के को बेचना नहीं है। उसकी कीमत नकदी जेवर तथा उपहार में से किसी भी रूप में स्वीकार नहीं करनी है। विवाह अति सादगी से बिना किसी धूमधाम और बिना किसी प्रदर्शन के सम्पन्न करेंगे। आदर्शवादिता की रक्षा इससे कम प्रतिज्ञा में नहीं हो सकती। ऐसी प्रतिज्ञायें अभिभावक स्वयं करके अपने बच्चों को सूचित कर दें कि वे स्कूटर, मोटर, विलायत की सैर आदि के सपने ससुराल वालों के सिर पर न देखें। इसी प्रकार विवाह योग्य लड़के भी आदर्श परम्परा के अनुरूप यह प्रतिज्ञा करे कि अति सादगी और बिना खर्चों का ही विवाह करेंगे और उसकी सूचना अपने अभिभावकों को दे दें कि वे उनके माँस का मोल-तौल करने और हुण्डी भुनाकर अन्टी गरम करने का लालच त्याग दें।

खर्चीली धूमधाम इस जमाने में निश्चित रूप से बेवकूफी और बेहूदगी का चिह्न है। यह गरीबी का उपहास और देश की गरीबी पर व्यंग है। इस कमर तोड़ महंगाई और प्राण लेवा खर्चीली परिस्थितियों में भी जो लोग धूमधाम की शादी में विपुल सम्पत्ति फूँक सकता हैं। वे एक प्रकार के तस्कर ही हैं। हर कोई जानता है कि दौलत आज ईमानदारी और सहृदयता बरतने वाले लोगों के पास जमा नहीं हो सकती। नीतिपूर्वक इतना ही कमाया जा सकता है जिससे घर परिवार की गुजर हो सके। अधिक कमाने वालों के लिए पैसे का उदार सदुपयोग करने के लिये हजार रास्ते खुले पड़े है। जो पीड़ित मानवता की ओर से आँखें मूँद रहेगा उसी के पास दौलत जमा होगी अन्यथा बी हुई आमदनी साथ ही साथ ठिकाने लगती रहेगी। जिसने बहुत कमा लिया लोक-मंगल के लिए कुछ भी न खरचा जिसे धन के सदुपयोग की कोई दिशा नहीं मालूम वही विवाह-शादियों में पैसे की होली फूँकेगा। आज के जमाने में यह किसी के लिए भी प्रशंसा की बात नहीं है वरन हर समझदार के मन में ऐसा खर्चीला उद्धत प्रदर्शन केवल रोष और घृणा ही उत्पन्न करता है।

अखण्ड-ज्योति परिवार के विचारशील सदस्य-विचार क्राँति योजना के इस प्रथम चरण का स्वागत ही करेंगे कि उनके बालकों का विवाह अति सादगी के वातावरण में बिना खर्च और बिना धूमधाम के सम्पन्न हों। हमारा अनुरोध है कि इसके लिए सभी को तैयार होना चाहिये। कठिनाई यह रहती है कि एक पक्ष तो सुधारवादी होता है पर दूसरा वैसा नहीं मिलता। एक पक्ष क्या करे अन्ततः उसे दूसरे पक्ष अनुरूप अपने को झुकाना पड़ता है। इस कठिनाई को दूर करने का यह सहज तरीका है कि अपने परिवार के विवाह योग्य लड़की-लड़कों की जानकारी गायत्री तपोभूमि में संग्रह रहे और जिन्हें आवश्यकता हो वे अपने उपयुक्त सम्बन्धों की सूची मथुरा से मँगा लिया करें। और जहाँ उपयुक्त लगे वहाँ किसी निर्णय पर पहुँच जाया करें। उपयुक्त लड़की-लड़कों एवं समान स्वभाव प्रकृति के परिवारों का मिल जाना भी एक बड़ी बात है, इससे आदर्श विवाहों के प्रचलन में सुविधा होगी। यह सुविधा उत्पन्न करने के लिये इस अंक में एक फार्म लगाया जा रहा है। अपने घर में जो लड़की-लड़के विवाह योग्य हो उनमें से प्रत्येक के लिए एक-एक फार्म हाथ से नकल करके तैयार कर लेना चाहिये और उसे भर कर मथुरा भेज देना चाहिये। यहाँ उन फार्मों को प्रान्त और जाति बार छाँट कर रखा जाएगा ताकि ढूँढ़ने वाले अपने समीप के क्षेत्र और अभीष्ट जाति उपजाति के विवाह सम्बन्धों के उपयुक्त पते प्राप्त कर सकें और उनसे सम्बन्ध बनाकर आगे की चर्चा चला सकें। यह सुविधा हमारा विश्वास है, आदर्श विवाहों के इच्छुकों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होगी। हम आशा करेंगे जिन्हें यह योजना स्वीकार है वे बिना विलम्ब किये अगले ही महीने अपने फार्म भर कर भिजवा दें ताकि योजना का कार्यान्वित करने में अनावश्यक विलम्ब न हो।

यह बात फिर समझ लेनी चाहिए कि यह योजना अति सादगी और बिना खर्चे के विवाह सम्पन्न कराने के लिए ही बनाई गई है, इसके अन्तर्गत 1 दहेज में नकदी या उपहारों की कोई आशा नहीं जानी चाहिये लड़की वाले जेवर और कीमती कपड़ों की आशा न करें। लम्बी चौड़ी बारात की कोई गुँजाइश नहीं है। गाजे-बाजे आतिशबाजी या प्रदर्शन के लिए अनावश्यक माना गया है। असंख्य प्रकार के नेग-जोग अलन-चलन का जंजाल कूड़े तरह फाड़ कर फेंक दिया जाना चाहिये। विवाह सम्बन्ध पक्का होने के दिन एक रुपया तथा फल, मिष्ठान मांगलिक वस्तुएँ लड़के वाले की ओर से लड़की को दी जायेंगी। वर कन्या के लिए मध्यम मूल्य के वस्त्र और एक-एक अँगूठी का दहेज दोनों ओर से दिया जा सकता है। प्रत्यक्ष या परोक्ष में कोई धन दहेज की शर्त नहीं रहनी चाहिए। कुछ दिया भी जाय तो वह विवाह के कुछ महीने बाद ही और उसे चर्चा एवं प्रदर्शन का विषय बिलकुल भी न बनाया जाय। बारात में कुटुम्बी भर हों, जिनकी संख्या बीस तक सीमित रहे। संस्कार के समय उपस्थित सज्जनों को जल-पान स्वल्पाहार भर करा देना पर्याप्त हैं। कोई बड़ी दावत न दी जाय। यह सब बातें विस्तारपूर्वक आदर्श विवाहों की रूप-रेखा में प्रस्तुत कर चुके हैं। संक्षिप्त चर्चा ऊपर की पंक्तियों में है।

आदर्श विवाहों का यह प्रचलन हमारी सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति को सुस्थिर बनाये रख सकेगा। दोनों पक्षों में प्रेम भी इसी आधार पर रहेगा और इस आदर्शवादिता के वातावरण में सम्पन्न विवाह ही दाम्पत्य-जीवन में आदर्शों की स्थापना कर सकेंगे। इस प्रकार के सात्विक वातावरण में-विवेकवान परिवारों का पारस्परिक मिलन भावी पीढ़ी में उत्कृष्टता पैदा करेगा। इस प्रकार के विवाहों


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