काम, प्रेम, गृहस्थ और दाम्पत्य आदि के लिये इन जीवों का जगत् बड़ा विचित्र है, कई जीवों में जोड़ों की घनिष्ठता ऐसी प्रगाढ़ होती है कि एक के न रहने पर दूसरे का दुःख शरीरान्त से ही छूटता है। कबूतर के बारे में यजुर्वेद तक में उदाहरण देते हुए बताया है- मित्रवरुणा-भ्याँ कपोतान्” मित्रता, प्रेम और दाम्पत्य-निष्ठा हममें कपोतों जैसी हों। सारस भी ऐसा ही पक्षी है, जोड़े में कोई एक बिछुड़ जाये तो दूसरा बहुत दुःखी हो जाता है। पंड़ुक नर मर जाता है तो उसकी मादा उसके शव में शरीर फूट-फूट कर विलाप करती है। उसका वह आर्तनाद देखकर मनुष्य के भी आँसू आ जाते है और ऐसा लगता है कि मनुष्य में भी ऐसा निष्ठा होती तो उसका जीवन कितना सुखमय होता।
थोड़ी सी बात में गाल फुला लेने और सप्ताहों मन में क्रोध भरे रहने की बेवकूफी केवल मनुष्य ही करता है। अन्य जीव नहीं। सृष्टि के प्रायः सभी जीव प्रबल प्रतिरोधी या आक्रमण की स्थिति में ही क्रोध व्यक्त करते हैं, अन्यथा उनका जीवन बड़ा हल्का-फुल्का और विनोद प्रिय होता है। मनुष्येत्तर जीवों का यह मनोविनोदी स्वभाव देखते ही बनता हैं। पेन्गुइन पक्षी अपनी पत्नी से मनोविनोद के लिये अपनी चोंच उसकी चोंच में डालकर बड़ी देर तक विचित्र क्रियायें करके उसका मन प्रसन्न करता है। कछुआ अपनी मादा की आँख को खुजलाता और पीठ पर हल्की चपत सी लगाकर खेल करता है। मैडम अब्रू नामक क्यूबा की एक महिला के पास एक चिंपेंजी था, वह बड़ा ही मजाकिया स्वभाव का था। नर जाति के इस चिंपेंजी की विशेषता यह थी कि वह हमेशा अपनी मादा के साथ ही रहता, कोई स्त्री पास आ जाये तो कोई बात नहीं पर किसी आदमी के पास पहुँचते ही वह अपनी पत्नी को छिपा लिया करता था। ऐसा करते समय वह मुस्कराता भी था। लोग इसके इस विनोद का घंटों आनन्द लिया करते थे पर वह मानों खेल-क्षेत्र में ही मनुष्य के प्रति अविश्वास और व्यंग व्यक्त किया करता था। पराई इज्जत पर हाथ साफ करने की मानवीय दुष्प्रवृत्ति के नाम पर चिंपेंजी का यह व्यंग अयुक्ति संगत नहीं कहा जा सकता।
बया को खेल-कूद और मनोविनोद की जिन्दगी विशेष प्रिय है, वह इधर-उधर से, कहीं से रुई या डोरा ढूँढ़ लाता है, फिर उससे झूला बनाकर स्वयं भी झूलता है, पड़ोसियों और बच्चों को भी झुलाता है, बीच-बीच में क्या उनको सिखाती और समझाती भी है। नृत्य का भी आनन्द लेती है। पेन्गुइन पक्षी बर्फ में फिसलने का एक विशेष खेल खेलता है। बत्तखों की जल-क्रीड़ा देखते ही बनती है। कोयल का गाना और मैनाओं की मनुष्य की भाषा की नकल करना भी कम मनोरंजन नहीं। आश्चर्य की बात यह हे कि नृत्य आदि उत्सवों में अधिकांश विनोदी कार्य नर को ही करने पड़ते हैं। गौरेयाव दिन में कई बार खेल-खेल में वकली गुडाभ्यास करती है। कई चिड़ियाँ नटों जैसे करतब दिखाकर अपने अन्य साथियों को हँसाती है।
और तो और अतिभ्य और मैत्री भाव के लिये भी पशु-पक्षियों का संसार मानवीय क्षेत्र से अधिक सुन्दर और विश्वस्त है। सजातियों से प्रेम तो सभी कर लेते हैं, अपने परिवार का आदर-सत्कार कर लेना बड़ी बात नहीं हृदय की विशालता और सौजन्य की रक्षा तब होती है, जब मनुष्य अपने परिश्रम से उत्पन्न किये धन और वस्तुओं को केवल आत्मीयता ओर मैत्री के सुख के लिये दूर से आये अतिथियों को खिला-पिलाकर अथवा देकर प्रसन्न होता है। यह सत्प्रवृत्ति ही मनुष्य को संकीर्णता से निकालकर विराट् के साथ संबंध स्थापित करने में सहायता करती है पर आज का मनुष्य तो इन सद्गुणों को भी भूलता जा रहा है।
आपको इस बात का अनुभव तब हो, जब आप कभी ध्रुव प्रदेश की यात्रा करें। वहाँ का निर्जन क्षेत्र और बर्फ से ढके पहाड़ आपको शायद ही कुछ दे सकें पर उस प्रदेश के निवासी-मनुष्य नहीं, पक्षी आपकी उतनी आवभगत करेंगे, जितनी आपके कोई अत्यन्त प्रिय संबंधी कर सकते होंगे। आदर सूचक मीठी बोली बोलती हुई, वह अनेक साथियों के साथ पंक्तिबद्ध होकर आपको और चल देंगी। कोई जीव पशु या पक्षी मनुष्य के पास जाकर उसके विश्वासघात का भोजन बन सकता है पर विचारा साधारण-सा पक्षी आपके पास निर्भय इस दृष्टि से आता है कि आप उसकी पीठ पर हाथ फेरेगें और पुचकारेगें, प्यार करेंगे। आपका मिष्ठान ओर मखमली गद्दों से स्वागत कर सकते होते, यह वस्तुएँ उनके पास होती तो अवश्य ही आपके आतिथ्य में वे यह सब प्रस्तुत करते।
शुतुरमुर्ग अपने लम्बे डीलडोल और लम्बी दौड़ान के लिये तो प्रसिद्ध है ही सहृदयता और मित्रभाव के लिए भी लोग उसका उदाहरण देते हैं, इसकी मैत्री प्रायः जेबराओं के साथ होती हैं अन्य चौपाये भी यदि इसके निवास-स्थान के आस-पास आ जाये तो यह उनसे भी बड़ी जल्दी घनिष्ठता स्थापित कर लेता है, उसमें न तो उसका कोई स्वार्थ है, न भय। आत्म-सन्तुष्टि के लिये ही वह मित्रता करता है और जिसके साथ मैत्री करता है, उसको अन्त तक निभाता भी हैं मनुष्यों की मित्रता अधिकांश स्वार्थ और मतलब खुदगर्जी की होती है, मित्र के लिये आत्मोत्सर्ग वाली दृढ़ता एकाध मनुष्य में ही होगी पर शुतुरमुर्ग जिसके साथ दोस्ती करता है, उसे न केवल उसकी असहाय अवस्था में उसके भोजन, पानी का प्रबन्ध करता है वरन् वैसे भी उसे कुछ न कुछ खिलाता रहता है। जेबराओं से विशेष मैत्री का कारण यह है कि जेबरा स्वयं भी उसे अच्छी-अच्छी वस्तुएँ खाने को देते हैं और उसके प्रत्युपकार के लिये, वह अपनी ऊँची गर्दन से आस-पास के क्षेत्र में चौकसी रखता है, कोई शिकारी या आक्रमणकारी हिंसक जीव दिखाई दे जाये तो जेबरा अपने मित्र की तुरन्त आगाह करेगा उसे किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंचायेगा।
खेलना आसेर प्राकृतिक सौंदर्य वाले स्थानों में भ्रमण का आनन्द लेने के लिये पशु-पक्षी सैकड़ों कोस की यात्रा करते और अपनी प्रकृति-स्िता का परिचय देते हैं। घुमक्कड़ प्रकृति के लिये स्टिल्ट सबसे आगे हैं, वह अमेरिका और उत्तरी-ध्रुव तक की यात्रा करता है और सुन्दर स्थानों में चार-चार महीने तक रहता है। खंजन चिड़िया ऋतु परिवर्तन के साथ उत्तर से दक्षिण की और बढ़ता रहता है। भुज (कच्छ) के रन और बेटों में जहाँ समुद्री पानी जमा रहता है, वहाँ संसार के कोने-कोने से गर्मियों में पक्षी आकार, वहाँ का आनन्द लेते हैं। साइबेरिया के पक्षियों को भरतपुर के जलाशय और झीलें बहुत पसन्द है, वहाँ प्रति वर्ष जीव-विशेषज्ञों को इसलिये खींच लाते हैं, ताकि वे जीवनों की इस घुमक्कड़ प्रवृत्ति का अध्ययन कर सकें। संसार के अनेक जीव विशेषज्ञ आश्चर्यचकित है कि इतनी अधिक मात्रा में भारत भ्रमण पर जाने का रहस्य क्या हैं जो कुछ भी ही एक स्थान पर जमकर सड़ी-गली जिन्दगी बिताने वाले मनुष्यों को उनसे एक प्रेरणा अवश्य मिलती है कि यह जीवन प्राकृतिक सौन्दर्य का रसास्वादन करते जिया जाय। कृत्रिम जीवन में ही आसक्त रहकर भावी पीढ़ी को दिग्भ्रांत न किया जाये। इस जीवन में थकावट और नये रक्त के लिये बोझ रहता है, उस बोझ की परेशानी न स्वयं उठाई जाये और न औरों पर थोपा जाये।
जीव-जन्तुओं जितनी भी दया, करुणा, उदारता, मैत्री-भावना परिश्रम-शीलता प्रेम ओर निष्ठा मनुष्य में होती तो वह आज की अपेक्षा कहीं अधिक सुखी होता। पर उसे तो अपनी बुद्धि का, ज्ञान का अभियान है। वह यह समझता है कि भावनाओं का अन्त करके जीवन में मानवीय संवेगों और मर्यादाओं को तोड़कर अधिक सुखी रहा जा सकता है। दरअसल यह उसकी बुद्धिमानी नहीं मूर्खता ही है। बुद्धिशाली व्यक्ति विवेकी न हो तो उस अर्जित ज्ञान का भी कोई महत्व नहीं रह जाता, फिर मनुष्य यह भी तो नहीं कह सकता कि ज्ञान की सर्वाधिक पूँजी उसी के पास है। सृष्टि के अन्य जीवधारियों में भी मनुष्य के समान ही अद्भुत ज्ञान और विलक्षण-प्रतिभायें पाई जाती है।
चींटी का भूमिगत निवास स्थान कभी देखें तो उनके बुद्धि कौशल का पता चले। यह जमीन में सुरंगें बनाकर रहती है, जो 15-20 फुट क्षेत्र तक में फैली होती है। इन सुरंगों में हजारों लाखों कमरे होते हैं। यह कमरे विभागशः होते हैं, जल भण्डार के कमरे अलग, चिकित्सालय अलग कुछ कमरों में चींटियों का खाद्य निगम काम करता है और कुछ में उनके सिपाही सैनिक अभ्यास। मजदूरों के कक्ष अलग और रानी चींटी का विशाल हवादार महल अलग यदि उनमें बौद्धिक क्षमताएँ न होतीं तो इतनी सुन्दर कल्पना का साकार स्वरूप कहाँ से आ जाता? दीमक अपने घरों को इस तरह उठाती है कि उसमें हवा-पानी तूफान और ऊपर के धमाके की भी कोई प्रतिक्रिया भीतर तक नहीं पहुँच सकती। यह दोनों जन्तु मौसम विशेषज्ञ होते हैं, मशीनें धोखा दे सकती है पर वर्षा होने के समय की इतनी अच्छी जानकारी उन्हें होती है कि एक बूँद आने से पहले ही अपना सारा सामान ढोकर सुरक्षित स्थानों पर पहुँचा देती है और पानी आने से पहले ही स्वयं भी छिप जाती है।
एक बार मास्को (रूस) के एक कारखाने के प्रमुख सहायक इंजीनियर अनातोली बाइकोव ने कही यह पढ़ा कि पक्षियों में बहुत दिनों तक याद रखने वाली विलक्षण स्मरण शक्ति होती है, उसने इससे लाभ उठाने का निश्चय किया। उसने कुछ कबूतर पाले और उन्हें मशीनों का ज्ञान कराया और ऐसा प्रशिक्षण दिया कि मशीन का जो पुर्जा खराब हो कबूतर चोंच मारकर उसका संकेत कर दिया करें। कई तरह की कठिनाइयों के बावजूद भी यह प्रशिक्षण चलता रहा और एक दिन उसने इसमें महत्त्वपूर्ण सफलता पाई। कई प्रशिक्षित कबूतरों ने एक घंटे में 4-5 हजार तक पूर्जों की जाँच का काम करना सीख लिया। कबूतरों को उक्त प्रशिक्षण 4-5 दिन में ही दे दिया जाता हैं। तीन सप्ताह में तो वे उसके विशेषज्ञ हो जाते हैं, रूस का यह प्रयोग एक दिन अन्य जीव-जन्तुओं को मनुष्य की समानता में लाकर खड़ा कर दे तो कोई आश्चर्य नहीं। ऐसे प्रशिक्षित कबूतर तो रंग ही नहीं उँगलियों के निशान जैसी सूक्ष्म बातों का पता लगा लेते है, यह देखकर मानना पड़ता है कि मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी भी बुद्धि और ज्ञान रखते है।
सन् 1941 में दो वैज्ञानिक ने चमगादड़ की विचित्र ज्ञान-शक्ति का पता लगाकर बताया कि वे जीते, जागते प्राकृतिक रैडार है। रैडार यन्त्र का सिद्धान्त ध्वनि पर आधारित है। किसी भी ध्वनि प्रेषक वस्तु की विद्युत चुम्बकीय तरंगें वायुमण्डल में टकराती है। रैडार के यन्त्र उस ध्वनि के आधार पर ही उस वस्तु की दूरी, गति आदि का पता लगाने है पर यह तो उन वस्तुओं तक ही सीमित है, जिनकी ध्वनि काफी स्थूल होती है। संसार के सभी पदार्थ गतिशील है, इसलिये उन सबको अत्यन्त सूक्ष्म कम्पन हुआ करता है, उस कम्पन की ध्वनि इतनी बारीक होती है कि बड़ी शक्ति वाला लाउडस्पीकर लगाकर भी उसे नहीं सुना जा सकता। उसे सुनने के लिए अति उच्च आवृत्तियों की ग्रहण शीलता चाहिए। यह शक्ति चमगादड़ में पाई जाती है, चमगादड़ 50000 आवृत्ति प्रति सेकेण्ड की तरंगें प्रसारित कर सकता है, उससे यदि उसकी आँखें बन्द करके किसी अंधेरे कमरे में, अत्यन्त पतले सैकड़ों धागे बाँधकर भी, दौड़ाया जाये तो वह बिना किसी धागे से टकराये अपनी पूर्ण गति से उड़ता रहेगा। आवाज की अत्यन्त सूक्ष्म ग्रहण-शीलता के आधार पर वह बाधाएँ पार कर लेता है चमगादड़ की यह क्षमता मनुष्य के लिए भी एक चुनौती बन गयी है कि वह यह सोचे कि क्या उसका मात्र किताबी ज्ञान इस विलक्षण ज्ञान-शक्ति की तुलना कर सकता है।
जर्मन वैज्ञानिक कोलर ने एक बार एक चिंपेंजी बन्दर पर प्रयोग करके यह सिद्ध किया वह अपनी आयु के मनुष्य से कहीं अधिक समझदार होता हैं। हम मनुष्यों के मन में जो कुछ भी ऊँट-पटाँग आता है, वैसा ही करते रहते है, यह नहीं सोचते कि इससे अपने स्वास्थ्य को हानि तो नहीं? इस भावी पीढ़ी अथवा समाज का अहित तो नहीं हो रहा। अविवेक शीलता के कारण हमने कितनी समस्यायें पैदा कर लीं, उनकी गणना भी नहीं की जा सकती पर चिंपेंजी हर बात पर बड़ी सूक्ष्म दृष्टि से विचार करता है और तब कोई निश्चित कार्य करता है, उतावली करने की भूल मनुष्य करते है चिंपेंजी नहीं।
प्रयोग के दिनों में उन्होंने एक बार चिंपेंजी के पिंजड़े से कुछ दूर पर एक केला टाँग दिया। पास में दो डंडे रख दिये। हाथ से तो वह कैसे को नहीं पकड़ सकता था पर दोनों डंडों की लम्बाई इतनी थी जितने से केले को आसानी से स्पर्श किया जा सकता था। दोनों डंडे एक बोल्ट से जोड़े जा सकते थे, वह सामग्री भी पास रख दी गई। चिंपेंजी ने सारी वस्तुएँ देखीं। थोड़ी देर तक सोचता रहा, फिर डंडों को जोड़कर उसने केले को उतार ही लिया। इस प्रयोग से उनकी यह धारणा कि अन्य जीवों में भी विचार करने की क्षमता विद्यमान् है, की पुष्टि ही होती है। इसी प्रकार लन्दन के जीव संग्रहालय ‘जू’ में दो ऐसे बन्दर थे, जिनमें से एक टाइप राइटिंग कर सकता था, दूसरा चित्रकारी, इन दोनों ने अपने समय में बहुत यश अर्जित किया।
मनुष्य में तो इतनी भी क्षमता नहीं कि वह 8-10 दिन निराहार रहकर पेट शुद्धि और-परिमार्जन कर सके। बहुत थोड़े लोग भी अधिक से दो-तीन दिन नहीं निराहार नहीं रह सकते हैं, किन्तु पेन्गुइन में 90 से 120 दिन तक निराहार रह जाने की विलक्षण क्षमता है।
यह सब बातें बताती हैं कि पशु-पक्षियों और कीट-पतंगों का संसार भी मनुष्यों का संसार जैसा ही है। यदि मनुष्यों का संसार जैसा ही है। यदि मनुष्य अपनी सम्पूर्ण आत्म-शक्ति का उपयोग आत्म-कल्याण और लोकोपकार में नहीं करता तो उसमें और अन्य जीवों में अन्तर हो क्या रह जाता है।