कथा :- पूर्णता की प्राप्ति

October 1969

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दिन बीता, रजनी आई, रात गई दिन आया। यह आँख मिचौली चलती रही। कभी साधनों का अभाव कभी आजीविका का, कभी ज्ञान का अभाव कभी विवेक का। कभी शक्ति का अभाव, कभी सामर्थ्य का। सब मिलकर इतने जीवन में कण्व को न कहीं शांति मिली न संतोष। उन्हें मनुष्य जीवन में सर्वत्र अपूर्णता ही अपूर्णता दिखाई दी। शरीर भी न अपनी इच्छा से मिलता है, न स्वेच्छा से अन्त होता है, न जाने किन बन्धनों में बंधा पड़ा हूँ, ऐसी अशान्ति बार-बार उठती रही, अतएव ड़ड़ड़ड़ ने निश्चय किया, वे पूर्णता की प्राप्ति करके ही रहेंगे।

प्रातःकाल जब शीतल समीर के सुगन्धित झोंकों में सारा नगर निद्रामग्न हो रहा था, कण्व उठे और एक ओर कानन की ओर चल पड़े। चलते ही गये, शाम होने को आई। कण्व ने विशाल शैल शृंखला देखी जिसकी एक बाहु दक्षिण के हृदय में प्रवेश कर रही थी, दूसरी उत्तर के अन्तस्तल में। भगवान भुवन भास्कर आभा के साथ इस अचल में ही अस्त होते जा रहे थे। कण्व के लिए यह अलौकिक दृश्य था। वे अभी बालक ही तो थे। सोचा भगवान सूर्य को अपने अंक में शयन कराने वाले यह पर्वतराज ही पूर्ण है। कण्व वहीं टिक गये और पूर्णता के लिये पर्वत की उपासना करने लगे।

गौरवर्ण

इसी पर्वत पर एक और महात्मा रहा करते थे। कण्व की बातचीत से उन्हें पता चला कि इस बालक ने इस पर्वत की ऊँचाई में ही पूर्णता देखी तो उन्हें हँसी आ गई। उन्होंने मन्द-मन्द मुस्कराते हुए कहा-रे कण्व! तूने समुद्र देखा होता तो पर्वत की ऊँचाई को कभी भी पूर्ण नहीं मानता।”

गाय जिस प्रकार हरित तृण की खोज में वन-वन भटकती है, कण्व भी उसी तरह पूर्णता की खोज में भटकने लगे। उन्हें अपनी भूल पर विस्मय हुआ और ज्ञान की लघुता पर दुःख भी, किन्तु एक निश्चय-मुझे पूर्णता प्राप्त करनी चाहिये” का बल उनके साथ था। चल पड़े कण्व, और कई दिन यात्रा के बाद वे प्रशान्त सिन्धु के तट पर जा पहुँचे।

विशाल जल-राशि और अनन्त ड़ड़ड़ड़ की अन्तस्तल में आश्रय दिये, अनन्त दूरी तक फैले भगवान समुद्र को देखकर कण्व का मस्तक श्रद्धावनत हो गया है। उन्होंने कहा-धन्य हो प्रभु! तुम्हारी गहराई ही पूर्णता है। सूर्य पर्वत में डूबता दिखाई दिया था, यह तो भ्रम मात्र था अब मुझे पता चला पूर्व और पश्चिम दोनों तुम्हारे ही बाहु है, एक से सूर्य भगवान निकलते और दूसरे में समा जाते है।” क्षमा करना प्रभु! हम मनुष्यों की दृष्टि और ज्ञान बहुत सीमित है, इसलिये यह भूल हुई। आगे ऐसी भूल नहीं करेंगे।

बाल सुलभ वाणी सुनकर सिन्धुराज अपनी हँसी नहीं रोक सके, उन्होंने कण्व को अपने एक ज्वार की शीतलता का स्पर्श कराते हुए कहा-वत्स ऊँचाई और गहराई में पूर्णता नहीं होती, तुम मन्दराचल पर तप कर रहे तपस्वी वेण के पास जाओ, तुम देखोगे उनका तप विन्ध्याचल के समान ड़ड़ड़ड़ और साधना में मुझ सागर से भी बढ़कर गहराई है। निश्चय ही उनके पास जाकर तुम पूर्णता की प्राप्ति कर सकोगे।”

तप और तपस्वी यह दो नाम कण्व के कानों में पहली बार आये थे। यद्यपि यह जो कुछ चल रहा था, तप ही था पर वह उससे उसी तरह अबोध थे। जिस प्रकार शरीर में समाया हवा, चेतन-आत्मा शरीर को तो सब कुछ मानता है और स्वयं को जानता तक नहीं उसकी सारी भ्रांति केवल अपने प्रति होती है।

कण्व महात्मा बेण के पास पहुँचे और उनके चरणों में अपनी श्रद्धा समर्पित करते हुए भोले बालक ने अभ्यर्थना की-भगवन् पूर्णता के लिए भटक रहा हूँ, कहीं शांति नहीं मिलती, मुझे अपनी शरण में लें और मेरा उद्धार करें।”

बालक की निश्चल श्रद्धा और भक्ति को देखकर तपस्वी का हृदय भर आया उन्होंने आशीर्वाद दिया-वत्स तुम्हारा यश चन्द्रमा की भाँति चमके।”

“किन्तु मैं तो पूर्णता के लिए आया हूँ, महात्मन्! यश से आत्मा मुक्त थोड़े ही होती है।” कण्व ने कोमल किन्तु दृढ़ स्वर में प्रार्थना की।

तपस्वी ने एक क्षण बालक की ओर देखा और वे सहसा गम्भीर होते गये उन्होंने कहा-तात पूर्णता के लिए ऊँचाई और गहराई ही पर्याप्त नहीं, तप से भी कुछ काम नहीं चलता, उसके लिए गति चाहिये, मुझे भी मुक्ति की कामना है, इसलिए मैंने सामाजिक बन्धन तोड़ डाले है, अब मैं केवल अपने लिए स्थिर हूँ, इसलिए तुम जो कुछ चाहते हो वह मेरे पास कहाँ है? अच्छा हो तुम शुद्धायतन के पास चले जाओ जो काम-क्रोध लाभ-मोह और यश की कामनाओं के बीच भी अपने लक्ष्य के लिए पर्वत के समान अटल और अडिग है, उन्होंने गति को ही तपश्चर्या माना है। वे दिन-रात बन्धु-बान्धवों पड़ोस और समाज के लिए राष्ट्र और अन्तर्राष्ट्रीय सुख-शांति के लिए बुला करते है, वे मुझसे श्रेष्ठ है, उनके पास जाने से तुम्हें अभीष्ट की प्राप्ति हो सकेगी।”

कण्व उनके पास भी गये, पर मिला वहाँ भी कुछ नहीं एक और रास्ता उन्होंने सुझाया-कण्व इस संसार में, ऊँचाई, गहराई, तप और कर्मठता के साथ ज्ञान का होना भी आवश्यक है, तुम को मैं ऐसे ज्ञानी सद्गृहस्थ पुरुष का परिचय देता हूँ, वहाँ चले जाने से तुम पूर्णता की प्राप्ति कर सकोगे।

कण्व उनके पास भी गये। उन्होंने विनीत भाव से अपने आने का उद्देश्य कह सुनाया, विरुध ने उत्तर दिया-वत्स मानता हूँ मुझे ज्ञान के कुछ कण मिले है, किन्तु मुझसे उसके कारण जो अहंकार आ गया है, उसके कारण मेरा व्यक्तित्व सीमित रह गया है। अहंकार मनुष्य के संसार को छोटा कर देता है, उसके रहते पूर्णता की कल्पना कहाँ की जा सकती है। भगवान कृष्ण ने तो उसे श्रेष्ठ कहा है, जो अपने कर्तापन के भाव को भी भगवान को समर्पण कर देता है। तुम भक्त देवदास के पास चले जाओ आशा है, तुम्हें अपने लक्ष्य की पूर्ति का साधन वहाँ मिल जायेगा।

कण्व बहुत थक चुके थे। अब तक वे किसी एकान्त में बैठकर तप करते तो पूर्णता का प्रकाश पा लेते पर यहाँ तो अभी तक भी भटकने के अतिरिक्त कुछ हाथ न लगा। पर यह हम सोचते है। कण्व तो ब्रह्म जिज्ञासा की अनन्त प्यास लेकर भटक रहे थे, बुझना तो लक्ष्य प्राप्ति से ही सम्भव था।

कण्व आगे बढ़ते और भक्त देवदास की शरण में जा पहुँचे। उन्होंने कहा-भगवन् मुझे भक्ति के दर्शन कराइए मैंने सुना है भक्ति से पूर्णता की प्राप्ति होती है।”

भक्त देवदास मुसकराये और कहने लगे-तात् मैंने अपना सम्पूर्ण कर्ता-भाव भगवान को सौंप दिया हे तो भी जब कभी मुझे स्वर्ग और मुक्ति की कल्पना उठती है तो मैं यह अनुभव करता हूँ कि मेरा कर्तापन पूर्णतया नष्ट नहीं हुआ। जब तक मैं अपनी ही सीमा मर्यादा में बंधा हूँ और सृष्टि के अणु-अणु में व्याप्त आत्मा के साथ एकरस नहीं हो जाता तब तक पूर्णता कहाँ। तुम वशिष्ठ के पास चले जाओ, वहां सम्भव है तुम्हें कोई उचित मार्ग मिल सके। उन्होंने जनसेवा में अपने आपको पूरी तरह घुला दिया है।”

कण्व वशिष्ठ के आश्रम में पहुँचे तब वह एक रोगी की परिचर्या में लगे थे। उसकी चोट पर पट्टी बाँधते समय कण्व उनके समीप जा खड़े हुए और बोले-भगवन् आपके पास पूर्णता की प्राप्ति के लिये आया हूँ, मिल सकेगी क्या?” वशिष्ठ ने कण्व से पूछा-तुम मेरे साथ काम कर सकते हो क्या?” कण्व ने सिर हिलाकर ‘हाँ’ कही। और स्वयं भी रोगी की परिचर्या में जुट गये। सायंकाल तक दोनों उसकी सेवा में जुटे रहे और जब काम समाप्त कर उठे तो देखा भगवती सन्ध्या उन्हें अपनी गोद में भर लेने के लिए तैयार खड़ी थी। कण्व ने पूर्णता का मर्म पा लिया। सेवा-सेवा-सेवा कण्व समाज की सेवा में ऐसे खो गये कि उन्हें पूर्णता का कभी ध्यान ही नहीं आया। वे सेवा-साधना के द्वारा अपने आप में पूर्ण हो गये।


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