दूसरों का दुख

September 1963

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सुकोमल पुष्प की छाती पर बैठी मधुमक्खी निर्दयता पूर्वक उसका जीवन रस चूसने में लगी थी।

फूल ने कराहते हुए पूछा- मैं भी इस दुनिया में जीने की लालसा लेकर आया हूँ। इस तरह चूसे जाने पर मैं भला कब तक जी सकूँगा?

मधुमक्खी पर कुछ असर न हुआ। रसपान का आनन्द छोड़ने की वह तैयार न हुई। फूल कराहता रहा, मक्खी अपना आनन्द लेती रही।

मधु की गंध पाकर एक दिन वन-बिलाव पेड़ पर जा पहुँचा। शहद पिया और छत्ते को तोड़कर टुकड़े-टुकड़े छितरा दिये।

मक्खी भिनभिनाई। वनबिलाव को भर पेट दुर्वचन कहे। पर वह अनसुनी किये अपनी तृप्ति का आनन्द लेता रहा।

रस-हीन फूल मुरझा गया। उसने मधुमक्खी का इस प्रकार अवसाद देखा तो लम्बी साँस खींची और कहा- यदि दूसरों का दुख समझ सकना हमारे लिए संभव रहा होता तो यह दुनिया कितनी सुन्दर होती ।


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