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September 1963

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मारर्णीयस्य कर्माणि तत्कतृणीति नेतरत्॥

-योगवशिष्ठ

“हे मृत्यु! तू किसी को अपनी शक्ति से नहीं मार सकती। मनुष्य किसी अन्य कारण से नहीं वरन् स्वयं अपने कर्मों से ही मरता है।”

***

बहवो यत्र नेतारः सर्वे पंडित-मानिनः।

सर्वेमहत्त्वमिच्छन्ति तद्वृन्द भवसीदति॥

“जहाँ बहुत से नेता होते हैं, सभी अपने को पंडित मानने वाले अहंकारी होते हैं, सभी अपनी बड़ाई चाहते हैं, वह समाज शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।

के वरदान की प्राप्ति के प्रयत्न सदा से होते रहे।

“न जायते म्रियते वा कदाचन्,

नायं भूत्वा भवि ता वा न भूया।

अजो नित्यं शाश्वतोयं पुराणो,

न हन्यते हन्यमाने शरीरे।”

आदि शब्दों में गीताकार ने अमरता का प्रतिपादन कर अर्जुन की भीति, संशय का छेदन किया। हिन्दू धर्म में तो आत्मा की अमरता बड़े ही ठोस और प्रभावशाली तथ्यों में प्रतिपादित की गई है।

अमरता से मृत्युभय का निवारण का मनुष्य के दृश्य जीवन को क्षणिक, नाशवान, अनित्य कहकर, धर्म ने मृत्यु के भयजनक प्रश्न और शरीर के मोह आसक्ति को दूर करने का प्रयत्न किया है। इतना ही नहीं जन्म-मृत्यु सामान्य सी घटनायें बताई हैं। नित्य चिरन्तन जीवन में जन्म−मृत्यु को केवल दिन-रात की संज्ञा दी गई है। इसी के कारण अनेक लोगों ने आत्मा की अमरता अनित्यता से प्रेरणा पाकर महान आदर्शों के लिए अपने तुच्छ अनित्य, क्षण भंगुर जीवन का त्याग किया, मृत्यु का वरण किया क्योंकि मृत्यु से उनकी अजर-अमर आत्मा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इस तरह आत्मा की अमरता ने मनुष्य के समस्त भयों से भी ऊपर मृत्यु भय को दूर कर उसे निर्भय बनाया, जिससे उसकी जीवन यात्रा निर्बोध क्रम से चलती रहे।

ईश्वर पर विश्वास, प्रार्थना, आत्मा की अमरता इन तीनों ही धार्मिक आधारों के प्रति विज्ञान ने मनुष्य की आस्था विश्वास को नष्ट कर दिया है और वह आस्था और विश्वास का कोई नवीन आधार नहीं दे पाया। फलतः बेचारा मनुष्य आज निरीह, असहाय, उत्तेजनाओं से पीड़ित और परेशान है। जीवन की विभीषिकाओं, भय, संघर्षों में असन्तुलित हो गया है। मानव मन की शान्ति, प्रसन्नता आत्म प्रसाद, आनन्द तिरोहित हो गये हैं। इनकी पुनः प्रतिष्ठापना, आस्तिकता की व्यापक आस्था उत्पन्न करने से और धर्म का अवलम्बन लेने से ही सम्भव हो सकती है।

प्राचीन परम्पराओं की तुलना में विवेकशीलता को अधिक महत्वपूर्ण प्रतिपादित करने वाले सन्त सुकरात को वहाँ के कानून से मृत्यु दण्ड की आज्ञा दी गई।

सुकरात के शिष्य अपने गुरु के प्राण बचाना चाहते थे। उन्होंने जेल से भाग निकलने के लिए एक सुनिश्चित योजना बनाई और उसके लिए सारा प्रबन्ध ठीक कर लिया।

प्रसन्नता भरा समाचार देने और योजना समझाने को उनका एक शिष्य जेल में पहुँचा और सारी व्यवस्था उन्हें कह सुनाई। शिष्य को आशा थी कि प्राण -रक्षा का प्रबन्ध देखकर उनके गुरु प्रसन्नता अनुभव करेंगे।

सुकरात ने ध्यानपूर्वक सारी बात सुनी और दुखी होकर कहा- मेरे शरीर की अपेक्षा मेरा आदर्श श्रेष्ठ है। मैं मर जाऊँ और मेरा आदर्श जीवित रहे तो वही उत्तम है। किन्तु यदि आदर्शों को खोकर जीवित रह सका तो वह मृत्यु से भी अधिक कष्टकारक होगा। न तो मैं सहज विश्वासी जेल कर्मचारियों को धोखा देकर उनके लिए विपत्ति का कारण बनूँगा और न जिस देश की प्रजा है उसके कानूनों का उल्लंघन करूंगा। कर्तव्य मुझे प्राणों से अधिक प्रिय है।

योजना रद्द करनी पड़ी । सुकरात ने हँसते हुए विष का प्याला पिया और मृत्यु का संतोषपूर्वक आलिंगन करते हुए कहा- हर भले आदमी के लिए यही उचित है कि वह आपत्ति आने पर भी कर्तव्य-धर्म से विचलित न हो।

योजना रद्द करनी पड़ी । सुकरात ने हँसते हुए विष का प्याला पिया और मृत्यु का संतोषपूर्वक आलिंगन करते हुए कहा- हर भले आदमी के लिए यही उचित है कि वह आपत्ति आने पर भी कर्तव्य-धर्म से विचलित न हो।


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