अनन्त वत्सला नारी और उसकी महत्ता

September 1963

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विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा है - “पवित्र नारी सृष्टि की सर्वोत्तम कृति है। सृष्टि में वात्सल्य, स्नेह, ममत्व, प्रेम की अमृत धारायें नारी हृदय से निकल कर संसार को अमृत दान कर रही हैं।” कवि रस्किन ने कहा है - “माता का हृदय एक स्नेह पूर्ण निर्झर है, जो सृष्टि के आदि से अनवरत झरता हुआ मानवता का सिंचन कर रहा है।” “मातृ देवो भव” कह कर उपनिषद् के ऋषि ने माता के लिए लोकोत्तर सम्मान प्रदान किया है। सचमुच साधारण प्राणियों से भरी इस धरती पर माता का हृदय एक दैवी विभूति ही है।

“माता धरित्री, जननी दयार्द्र हृदया शिवा।

देवी त्रिभुवन श्रेष्ठा निर्दोषा सर्व दुःखहा॥

आराधनीया परमादया शान्तिः क्षमा धृतिः।

स्वाहा स्वधा च गौरी च पद्मा च विजया जया॥

भगवान वेदव्यासजी ने नारी को उक्त इक्कीस नामों से सम्बोधित करते हुए गुणगान किया है और फिर आगे कहा है-

“नास्ति गंगा समंतीर्थ नास्ति विष्णु समः प्रभुः ।

नास्ति शम्भु समः पूज्यो नास्ति मातृ समो गुरु॥

“गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं, विष्णु के समान कोई प्रभु नहीं, शिव के समान कोई पूजनीय नहीं तथा वात्सल्य स्रोतस्विनी मातृ हृदया नारी के बराबर कोई गुरु नहीं, जो इस लोक और परलोक में कल्याण का मार्ग प्रशस्त करें।”

ब्रह्मा इस संसार की रचना करते हैं और विष्णु इसका धारण, पोषण संवर्धन करते हैं। इस सूक्ष्म आध्यात्मिक रहस्य को यदि स्थूल रूप में कहीं देखना हो तो उसकी झाँकी माता को देखकर की जा सकती है। ब्रह्मा और विष्णु की दैवी शक्तियाँ इस धरा पर नारी के मातृ रूप में अपना कार्य कर रही हैं। इसी की अनुभूति को आधार पर शास्त्रकार ने कहा है-

“या देवी सर्व भूतेषु मातृ रूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यैं नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः॥

संसार की रचना उसका पालन पोषण करने वाली देवी शक्ति इस स्थूल संसार में नारी के मातृ रूप में ही स्थित हो अपना कार्य कर रही है। इसलिए इस मातृ रूपा नारी को हम बार-बार नमन करते हैं।

इसी तथ्य के दृष्टा एक मनीषी ने कहा है- “ईश्वर के पश्चात् हम सर्वाधिक ऋणी नारी के हैं। प्रथम तो जीवन के लिए, पुनश्चः इसे जीने योग्य बनाने के लिए।” तात्पर्य यह है कि मनुष्य जीवन की सभी सम्भावनाओं के मूल में माँ का असीम प्यार उसका त्याग, उसकी महान सेवायें ही निहित हैं।

नारी जाति की इस महानता, उसके मानव-जाति के प्रति महान ऋण को देखते हुए बहुत पहले से ही मनुष्य ने इसको आदर पूजा का पात्र समझा और उसका समुचित आदर सत्कार किया। काली, सरस्वती, लक्ष्मी तथा अन्य देवी शक्तियों के रूप में नारी का पूजन उसके उच्च सम्मान के लिए ही किया गया।

नारी माँ के रूप में बच्चे की आदि गुरु है। जननी को विभिन्न विषयों में जो शिक्षा अनुभव प्राप्त होता है, वही बच्चे के जीवन में प्रभाव डालता है। जननी के उच्चारण, उसकी भाषा से ही वह भाषा-ज्ञान प्राप्त करता है, जो जीवन भर के भाषा ज्ञान का मूलाधार होता है। इस तरह बच्चे की शिक्षा-दीक्षा, उसे योग्य बनाने की नींव जननी ही लगाती है। उसी नींव पर बालक के सम्पूर्ण जीवन की योग्यता, शिक्षा-ज्ञान का महल खड़ा होता है। माँ का कर्तव्य केवल स्तन पान या स्नेह दान तक ही नहीं है, अपितु इसके साथ ही वह बच्चे को जीवन में विकसित होने उत्कर्ष की ओर बढ़ने के लिए एक तरह की सूक्ष्म शक्ति प्रेरणा भी देती है। माँ द्वारा कही गई उच्च आदर्श त्याग की कथायें, उपदेश, साधारण भाषा में दिया गया ज्ञान भी बालक के जीवन में ऐसा प्रभाव डालता है जो जीवन भर बड़ी बड़ी पुस्तकों को पढ़कर बड़ी बड़ी डिग्रियाँ प्राप्त करके भी नहीं मिलता। माँ द्वारा प्रदत्त प्रारम्भिक ज्ञान प्रेरणा को पाकर ही बालक आगे चलकर प्रकृतिज्ञान का अधिकारी होता है।

बच्चे के प्रति माता का स्नेह उसकी ममता, दयामय परमात्मा का प्रकाश है। शिशु के प्रति मातृ हृदय में उमड़ता हुआ स्नेह प्रकृति की ओर से जीवन रक्षा के लिए ईश्वरीय देन है। यह स्नेह, ममता, सहज ही जननी को बालक के पालन पोषण के लिए प्रयत्न पूर्वक लगाती है।

ऋषियों ने मातृ हृदया नारी का “मातृ ऋण मानव जाति पर सबसे बड़ा ऋण माना है। उन्होंने नारी को समाज में सम्माननीय पूजनीय स्थान देकर उसका आदर सत्कार करके मातृ ऋण चुकाया और इसी तरह के आदेश अपनी भावी सन्तानों को भी दिया। नारी के प्रतिष्ठा गौरव को चिरजीवित रखने के लिए सभी धर्म ग्रन्थों में स्थान है। महाराज मनु ने अपनी सन्तानों से कहा था-

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता।

यत्र तास्तु न पूज्यन्ते सर्वस्तत्राफलः क्रिया॥

जहाँ नारी की पूजा होगी वहाँ स्वर्ग बन जायेगा, देवता निवास करेंगे और जहाँ नारी की पूजा नहीं होगी वहाँ सारे फल, क्रियायें समाप्त हो जायेंगी और दुःखों का सामना करना पड़ेगा।

मातुश्च यद्वितं किंचित्कुरुते भक्तिनः पुमान।

तर्द्धम हि विजानीया देवं धर्म विदो विदुः॥

मातृशक्ति की भलाई के लिए पुरुष भक्ति पूर्वक जो कुछ भी कर्म करता है वही उसका धर्म है। गृहस्थ व्यक्ति की बड़ी तपस्या इसी में है कि वह नारी जाति की सेवा उसमें दैवी शक्ति के दर्शन करके करें।

भारतीय संस्कृति में नारी के प्रति यह केवल शाब्दिक प्रदर्शन मात्र नहीं है। वरन् पद-पद पर इसमें व्यावहारिकता की छाप है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि नारी जाति के महान उपकारों को स्वीकार कर भारतीय जन -समाज ने मातृ जाति की यथोचित पूजा उसका सत्कार किया और समाज में उच्च स्थान दिया जिसके फलस्वरूप नारी के हृदय से सहज स्नेह, वात्सल्य, ममत्व की त्रिवेणी भारत भूति में बह निकली, जिसको पा कर भारतीय जीवन अजर अमर हो गया। भारतवासियों ने लौकिक और पारलौकिक जीवन में भारी प्रगति की, इतिहास इसका साक्षी है।

पत्नी, पुत्री और भगिनी के रूप में मातृत्त्व हमारे चारों ओर बिखरा पड़ा है। यह श्रद्धा एवं पूजा के योग्य है। देवत्व की इस प्रत्यक्ष प्रतिमा की गौरव- पूर्ण प्रतिष्ठा निरन्तर अभिनंदनीय है। इस रहस्य को मनुष्य जब तक समझता रहा अपने देवत्व को स्थिर रख सका। अब जबकि उसने नारी को वासना कामुकता की तृप्ति का साधन बनाना आरम्भ किया, क्रीत दासी के समान अपने पाशविक बन्धनों में जकड़ कर निरीह बनाने, मनमाने अत्याचार करने और अपनी सम्पत्ति-मात्र मानने का दृष्टिकोण बदला है तो फिर पुरुष-पुरुष नहीं रहा। उसका तप तेज चला गया और वह एक क्षुद्र प्राणों के समान अपने गौरव से पतित होकर निम्न श्रेणी का जीवन यापन कर रहा है।

इस पृथ्वी पर दैवी तत्व का एक मात्र प्रतीक मातृत्व है। उसके प्रति उच्चकोटी की श्रद्धा रखे बिना देवत्व की पूजा एवं साधना नहीं हो सकती। और इसके अभाव में पुरुष को देवत्व से वंचित रहना पड़ेगा। नारी कामधेनु है। जब उसे हम मातृ बुद्धि से देखते हैं तो वह हमें देवत्व प्रदान करती है, पर जब उसे वासना, सम्पत्ति, दासी की दृष्टि से देखा जाता है तो वह हमारे लिए अभिशाप बन जाती है।

न जाने हमारी दुर्बुद्धि कब टलेगी न जाने कब हम नारी की दिव्य-शक्ति को पहचान कर उसके चरणों में श्रद्धा के आँसू चढ़ाना सीखेंगे? न जाने इस अभाव के कारण हमें कब तक देवत्व से वंचित रह कर नारकीय स्थिति में पड़ा रहना पड़ेगा।


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