नारी जाति के उद्धारक -ईश्वरचन्द्र विद्यासागर

September 1963

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भारतवर्ष के आधुनिक इतिहास में पिछली शताब्दी कई दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण मानी गई है। वर्तमान भारत के अधिकाँश निर्माणकर्ताओं का जन्म इसी शताब्दी में हुआ था और पिछले एक हजार वर्षों में देश के भीतर जो निर्बलता तथा त्रुटियाँ उत्पन्न हो गई थीं उनको दूर करके नवयुग की स्थापना करने वाले अधिकांश महापुरुषों ने इसी काल में अपनी प्रतिभा, विद्वता, त्याग, उदारता का परिचय देते हुये देश को उन्नति के मार्ग पर आरुढ़ किया था। ईश्वर चन्द्र विद्यासागर की गणना इन्हीं महापुरुषों में की जाती है।

ईश्वर चन्द्र विद्यासागर का जन्म अत्यन्त गरीब घर में हुआ था। उनके जन्म के समय उनके पिता श्री ठाकुरदास कलकत्ता में आठ रुपये की नौकरी करते थे। ईश्वरचन्द्र को भी अपना आरम्भिक जीवन बड़े अभाव की अवस्था में बिताना पड़ा। नौ वर्ष की आयु में वे अपने पिता के साथ कलकत्ता में रहकर संस्कृत पढ़ने लगे। वे पढ़ने में बहुत अधिक परिश्रम करते थे। साथ ही दो-तीन व्यक्तियों के लिये भोजन बनाना, बर्तन-माँजना, लकड़ी चीरना आदि काम भी अपने हाथ से करते थे। कभी-कभी उन्हें निराहार रहकर भी काम चलाना पड़ता था। जिस स्थान में वह रहते थे वह अत्यन्त गन्दा और बदबूदार था। जब ये पढ़ने बैठते तो बहुसंख्यक कीड़े-मकोड़े चारों ओर से रेंगकर इन्हें काटने लगते। पर ये इतने दृढ़ निश्चयी और आत्म संयमी थे कि इन सब कष्टों को सहकर भी निरन्तर शिक्षा में प्रगति करते गये और विद्यालय में सदा सबसे प्रतिभाशाली छात्र माने जाते रहे।

इक्कीस वर्ष की आयु में कलकत्ता के सरकारी संस्कृत विद्यालय की ऊँची-से-ऊँची परीक्षा सर्व प्रथम श्रेणी में पास करली जिससे उनको तुरन्त ही फोर्ट विलियम कालेज में नौकरी मिल गई। उसी समय अनेक बड़े-बड़े पंडितों ने मिलकर इनको ‘विद्यासागर’ की उपाधि सम्मानपूर्वक प्रदान की। सरकारी अधिकारी भी इनका बहुत अधिक मान करते थे, पर ये सत्य तथा स्वाभिमान का सदैव इतना ध्यान रखते थे कि जरा-सी अनुचित बात स्वीकार न करते थे। एक बार इनके कालेज के प्रिंसिपल मार्शल साहब ने इनसे अनुरोध किया कि इंग्लैण्ड से जो सिविलियन यहाँ भारतीय भाषाओं की परीक्षा देने आते हैं उनकी परीक्षा सुगम ढंग से ली जाय। इस पर विद्यासागर ने कहा कि - “मैं नौकरी छोड़ने के लिए तैयार हूँ परन्तु परीक्षा में किसी के साथ अन्याय नहीं कर सकता।”

विद्यासागर को धन का लोभ भी न था, यद्यपि उन्होंने आरम्भ से गरीबी के कष्ट सहन किये थे और ऐसी दशा में प्रायः मनुष्य धन को अधिक महत्व देने लग जाते हैं। विद्यासागर को नौकरी करते थोड़ा ही समय हुआ था कि संस्कृत कालेज में एक जगह 90 रु॰ मासिक की खाली हुई। उसके अध्यक्ष ने मार्शल साहब से सलाह करके विद्यासागर को उस पर रखने का निश्चय किया। फोर्ट विलियम कालेज में इनको 50) ही मिलते थे पर उन्होंने संस्कृत कालेज की जगह को अस्वीकार करते हुये मार्शल साहब से कहा कि मैं आपके साथ ही काम करना चाहता हूँ क्योंकि यहाँ मेरी ज्ञान वृद्धि का अधिक अवसर मिलता है।

उस समय तो बात टल गई, पर ऐसी प्रखर बुद्धि और उच्च योग्यता के व्यक्ति कहाँ तक पीछे रह सकते थे। सात आठ वर्ष के भीतर वे संस्कृत कालेज के मंत्री नियुक्त किये गये और तीन सौ रु. वेतन मिलने लगा। पाँच वर्ष बाद उनको स्कूलों का इन्सपेक्टर भी बना दिया गया और दोनों पदों के लिये 500 रु वेतन मिलने लगा। पर इतना वेतन मिलने पर भी उनकी आर्थिक अवस्था साधारण ही रही और उन पर कर्ज का भार भी प्रायः बना रहा। कारण यह था कि वे विद्यासागर के साथ दया के भी सागर थे। कोई भी दीन दुःखी, कष्टग्रस्त, विपत्ति में फँसा हुआ उनके सामने आता तो शक्ति भर उसकी पूरी-पूरी सहायता करते। वे न मालूम कितने अनाथ बालकों को भोजन, वस्त्र और पुस्तकों का खर्च दिया करते थे। अपने गाँव में उन्होंने एक अच्छा औषधालय खोला था जिसमें सबको मुफ्त औषधि दी जाती थी और वहाँ का डॉक्टर जब किसी को घर पर देखने जाता, तब भी किसी से एक पैसा फीस नहीं ली जाती थी। इसमें विद्यासागर को सौ रुपया मासिक खर्च करना पड़ता था। वहाँ उन्होंने एक स्कूल तथा कन्याशाला भी बनवाये थे। इनका सारा खर्च भी वे अपने पास से करते थे। इस प्रकार उनका सारा वेतन खर्च हो जाता था और एक पैसा भी नहीं बच पाता था। समय -समय पर किसी विशेष दीन-दुःखी के आ जाने पर वे हजारों रुपया सहायतार्थ दे डालते थे और ऐसे अवसर पर प्रायः उनको कर्ज लेकर काम चलाना पड़ता था। ऐसे ही एक अज्ञात ब्राह्मण के मकान को बचाने के लिए उन्होंने बिना अपना नाम प्रकट किये 2400 रु. चुका दिया था। बँगाली प्रसिद्ध कवि माइकेल मध्सूदन दत्त जब विदेश में भूखों मर रहे थे और कोई सहारा देने को तैयार न था तो विद्यासागर ने ही लगभग 3200 रु. भेजकर उनकी प्राणरक्षा की थी।

विधवा-विवाह और स्त्री शिक्षा

विद्यासागर के जीवन का सबसे महान कार्य था विधवाओं की दशा का सुधार और स्त्री शिक्षा का प्रचार। उस समय बंगाल में स्त्रियों की दुर्दशा अवर्णनीय थी और विधवा हो जाने पर तो उनको साखात् नरक के कष्ट सहन करने पड़ते थे। विद्यासागर के एक शिक्षक शम्भुचन्द्र वाचस्पति थे। स्त्री के मर जाने पर उनको गृह कार्यों में बहुत असुविधा सहन करनी पड़ती थी। कुछ लोगों ने उनको फिर से विवाह करने की सम्मति दी। वाचस्पति जी विद्यासागर को पुत्र-तुल्य मानते थे और सब बातों में उनसे सलाह ले लिया करते थे। इस सम्बन्ध में चर्चा करने पर विद्यासागर ने उनको स्पष्ट रूप से इनकार कर दिया और कहा कि इस आयु में विवाह करने का अर्थ किसी निरपराध बालिका को आजीवन कष्टों की भट्टी में झोंक देना होगा। इन्होंने हर तरह से समझाया, पर वाचस्पति जी अन्य लोगों की बातों में आ चुके थे और उन्होंने एक दरिद्र ब्राह्मण की परम सुन्दरी बालिका से विवाह कर लिया।

विद्यासागर ने जब यह सुना तो उन्होंने वाचस्पति जी को अन्तिम प्रणाम करके कहाँ कि अब मैं कभी आपके यहाँ नहीं आऊँगा। कुछ समय बाद वृद्ध वाचस्पति जी का देहान्त हो गया और उस बालिका का जीवन सर्वथा निराधार और निस्सहाय बन गया।

इस घटना का प्रभाव विद्यासागर के ऊपर इतना पड़ा कि आपने विधवाओं का दुख दूर करने का दृढ़ निश्चय कर लिया। वे जानते थे कि यदि वे विधवा- विवाह का आन्दोलन उठायेंगे तो भारत के अधिकाँश व्यक्ति उनका विरोध, निन्दा और अपमान ही करेंगे। पर वे परोपकार भावना से इस सबको सहन करने को प्रस्तुत हो गये। उन्होंने वर्षों तक सैकड़ों हिन्दू शास्त्रों का अध्ययन किया और उनमें से विधवा विवाह के अकाट्य प्रमाण एकत्रित करके ‘विधवा विवाह’ नाम का ग्रन्थ प्रकाशित कराया। जैसा उनका अनुमान था इस ग्रन्थ से समस्त देश में हलचल मच गई और लोग विद्यासागर जी पर तरह-तरह के आक्षेप करने लगे और गालियाँ देने लगे। पर वे अपने उद्योग में बराबर लगे रहे और सन् 1856 की 26 जुलाई को विधवा विवाह का कानून पास कर दिया गया। कानून पास कराने के तीन महीने के भीतर ही विद्यासागर जी ने एक प्रतिष्ठित घराने के युवक श्री-शचन्द्र विद्यारत्न का विवाह ब्रह्मानन्द मुखोपाध्याय की दस वर्षीय बाल विधवा कमलादेवी से करा दिया। बंगाल में यह पहला विधवा विवाह था।

इस प्रकार विद्यासागर ने अपनी समस्त शक्ति, विद्या, प्रतिभा और धन-सम्पत्ति भारतीय नारियों को दुर्दशा से मुक्त कराने में लगा दी। इनके सिवा उन्होंने हजारों अनाथों की तरह-तरह से सहायता करके उनको स्वावलम्बी बना दिया। इस प्रकार समस्त जीवन परोपकार करते और स्वयं गरीबी का जीवन बिताते हुये सन् 1891 की 29 जुलाई को उन्होंने अपनी जीवनलीला समाप्त की।

स्वाध्याय दोसंह-


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