मनुष्य एक सामाजिक जीव है और इसलिये वह अन्य प्राणियों की तरह अपना जीवन कदापि अकेला अथवा बिना किसी प्रकार के सहयोग के गुजार नहीं सकता। यों नासमझ लोग प्रायः कह दिया करते हैं, “हमें क्या काम दुनिया से”, पर वास्तव में उनका काम दुनिया के बिना एक क्षण भी नहीं चल सकता। अगर किसी व्यक्ति को सर्वथा साधन-विहीन करके किसी बियाबान जंगल में छोड़ दिया जाय तो वह या तो दस-पाँच दिन में मर-खप जायगा या जानवरों की तरह जीवन बिताने को बाध्य होगा। यही कारण है कि मनुष्य ने जब से प्रगति-पथ पर कदम रखा है वह परिवार, कुटुम्ब, वंश, जाति, धर्म, देश आदि के नाम पर अपने दायरे को बढ़ाता जाता है। इसी उद्देश्य से वह विवाह करता है, बाल-बच्चे उत्पन्न करके, उनके पालन-पोषण का भार उठाता है, भाई, बहिन, चाचा, मामा, मामी आदि सम्बन्धियों की सहायता करता है, जाति के नियमों का पालन करके जाति बन्धुओं से हेल-मेल बढ़ाता है और प्रत्येक ऐसे काम को पूरा करने की चेष्टा करता है जिससे अन्य लोगों से उसका सम्बन्ध दृढ़ हो और जीवन निर्वाह में उसे उन सबका सहयोग मिलता रहे। हमारी यही मनोवृत्ति परिवार, जाति और समाज की स्थापना का मूल है।
भारतवर्ष में सम्मिलित-परिवार की प्रथा प्रचलित है। जिसमें केवल पति-पत्नी और उनके दो-चार बच्चों की गणना ही नहीं की जाती, वरन् माँ-बाप, छोटे-बड़े भाई, बहिन, चाचा, ताऊ, उनके स्त्री-पुत्र आदि सबका समावेश हो जाता है। अब भी गाँवों और छोटे कस्बों में ऐसे बहुसंख्यक परिवार मौजूद हैं, जिनके सदस्यों की संख्या चालीस और पचास तक पहुँच जाती है पर आधुनिक विचारों के लोग इस प्रथा का विरोध करते हैं और योरोप अमरीका के निवासी पृथक परिवार की प्रथा को ही लाभकारी बतलाते हैं। वास्तव में बात यह है कि सम्मिलित कुटुम्ब-प्रथा कृषि-जीवी समाज के लिए विशेष रूप से उपयोगी होती है और पृथक परिवार की प्रथा, उद्योग-धन्धों पर मुख्यतः आधार रखने वाले समाज में सुविधाजनक जान पड़ती है। पर यह विभाजन केवल आर्थिक दृष्टि से किया गया है। यदि नैतिकता, उदारता, सहयोग, परोपकार आदि अन्य मानवीय गुणों की दृष्टि से विचार किया जाय तो निःसंदेह सम्मिलित परिवार प्रथा ही श्रेष्ठ ठहरती है। उसमें मनुष्य की स्वार्थ-वृत्ति पर अंकुश लग कर वह समाज के अन्य व्यक्तियों के साथ सद्व्यवहार और उदारता के व्यवहार को सीखता है। इस दृष्टि से परिवार ही समाज-संगठन की पहली सीढ़ी है। जो व्यक्ति अपना अनेक प्रकार से उपकार करने वाले माता-पिता, भाई-बहिन, सगे सम्बन्धियों की सहायता करने के आनाकानी करता है उससे समस्त जाति या समाज की सेवा, सहायता और उपकार की आशा किस प्रकार की जा सकती है ? इसका आशय यह भी नहीं समझ लेना चाहिये कि हम प्राचीन-प्रथा को जैसे को तैसा उपयोगी मानते हैं। समय बदल रहा है और परिस्थितियों के अनुसार हमारी सभी सामाजिक संस्थाओं और प्रथाओं में न्यूनाधिक परिवर्तन हो ही गया है। तब परिवार प्रथा ही उससे अछूती कैसे रह सकती है। अब पुराने जमाने की तरह सौ-सौ और पचास-पचास व्यक्तियों के परिवार न तो संभव हैं और न उपयोगी। वे तो शुद्ध कृषिजीवी समाज की चीज थे। पर अब हमारे यहाँ भी उद्योग-धन्धों और नौकरी का महत्व काफी बढ़ गया है और बहुत अधिक कृषि-भूमि न रख सकने का नियम भी बना दिया गया है, इसलिए परिवार-प्रथा में समयानुकूल सुधार तो करने ही पड़ेंगे।
जिस प्रकार समाज का उद्गम परिवार है, उसी तरह परिवार का उद्गम विवाह है। विवाह से दो स्त्री-पुरुष में ही संबंध स्थापित नहीं होता वरन् दो परिवार भी उससे जुड़ते हैं और फिर अन्य अनेक परिवार भी उस घेरे में आ जाते हैं। इस प्रकार सैकड़ों व्यक्तियों में पारस्परिक प्रेम, सहयोग और सहायता के भावों की वृद्धि होती है, जो अन्ततः समाज की सुदृढ़ता और कल्याण की दृष्टि से भी हितकारी सिद्ध होते हैं। इसलिए समाज और देश की भलाई के ख्याल से यह अत्यंत आवश्यक है कि हम विवाह-प्रथा में आवश्यक सुधार करके उसे ऐसा रूप दें जिससे वह दम्पत्ति के अतिरिक्त घर के सब सदस्यों और भावी पीढ़ी के लिए सब प्रकार से उपयुक्त सिद्ध हो सके। हमारे देश में विवाह को एक बहुत महत्वपूर्ण धार्मिक संस्कार माना गया है, जो कि अत्यन्त पवित्र और अविच्छेद होता है। पर अब समय के प्रभाव से उसमें अनेक विकृतियाँ आ गई है। बाल विवाह, वृद्ध-विवाह, अनमोल विवाह आदि की बुराइयाँ हम प्रायः सुनते रहते हैं। इनके फल-स्वरूप दम्पत्ति में जैसा चाहिये वैसा प्रेम और आत्मीयता का भाव उत्पन्न नहीं होता और उसका प्रभाव समस्त परिवार पर पड़ता है। इन सब से भी बढ़ कर दहेज कि कुप्रथा है जो दाम्पत्य-प्रेम की जड़ पर आरम्भ से ही कुठाराघात कर देती है और वर-वधू तथा दोनों के परिवारों के बीच ऐसा मनोमालिन्य का भाव उत्पन्न कर देती है कि विवाह से जो वास्तविक लाभ होना चाहिए वह अधिकाँश में नष्ट हो जाता है। चाहे ऐसे विवाह के द्वारा स्त्री को रोटी कपड़े का सहारा मिल जाय, पर उसे सच्चा जीवनसाथी धन के लोभ से अधिक से अधिक रकम पाने के लिये किसी मालदार आसामी को तलाश करते रहते हैं, तब कन्या और वर के गुणों का मिलान, उनका एक दूसरे के अनुकूल होने का ध्यान कैसे रखा जा सकता है ? एक लेखक के कथनानुसार इस प्रकार जो विवाह पुरुष की दृष्टि से काम-वासना की प्राप्ति के लिये और स्त्री की तरफ से आर्थिक सुरक्षा के लिये किया जाता है, उसका उद्देश्य ही गलत हो जाता है। विवाह कर लेने से कोई जीवन-साथी नहीं बन जाता। जो पति-पत्नी जीवन-साथी नहीं बनते और केवल अपनी सुविधा के लिए एक दूसरे के शरीर व मन का भोग करते हैं, उनका घर, घर नहीं नरक बन जाता है। घर को स्वर्ग बनाना हो तो पति-पत्नी को परस्पर अनुरूपता प्राप्त करने का यत्न करना चाहिए।
पर इस प्रकार का दाम्पत्य-जीवन आजकल कठिन हो गया है। अधिकाँश विवाह या तो धन के लालच से होते हैं या फिर ऊपरी रंग रूप पर लट्टू होकर। अनेक नये नवयुवक तो सिनेमा में नायक-नायिका के प्रेम के खेल और उनकी चमक-दमक को देख कर उसे ही वैवाहिक जीवन का आदर्श समझ बैठते हैं। ऐसे मूर्ख युवक और युवतियों के संयोगान्तक और वियोगान्तक किस्से समाचार पत्रों में प्रायः पढ़ने में आया करते हैं। पर ऐसे स्वप्नों का अन्त शीघ्र हो ही जाता है और सिवाय बदनामी और हँसी के ऐसे मनचले लोगों के हाथ कुछ नहीं पड़ता। ऐसे लोगों से यह आशा करना कि वे परिवार और समाज के प्रति अपने वास्तविक उत्तरदायित्व को समझ कर उसका पालन करेंगे, निरर्थक बात है। इस तथ्य को दृष्टिगोचर रख कर एक अनुभवी लेखक ने कहा है-
“पारिवारिक जीवन को सफल बनाने के लिए त्याग, सहन शक्ति, मानसिक प्रौढ़त्व और समझदारी की जरूरत है। पुरुष और स्त्री एक दूसरे के पूरक हैं। इस नैसर्गिक सम्बन्ध को बनाये रखने के लिये समाज ने विवाह-प्रणाली को स्वीकार किया है। पर इस सम्बन्ध को केवल लोकापवाद के डर से निभाना असम्भव है। दाम्पत्य-जीवन की सफलता शारीरिक आकर्षण की अपेक्षा पति-पत्नी की मानसिक और आत्मिक एकरूपता पर अधिक निर्भर है।
यदि आप में मानवोचित गुण हैं तो आप जिसे अपनाते हैं उससे प्रेम करना भी सीख जाते हैं। प्रेम का दीपक लगन के साथ जलाया जाता है, उसे वासना रहित जल से सींचा जाता है और स्वार्थ, असहनशीलता, अविवेक आदि के रोगों से उसे बड़ी साधना, से यत्नों से बचाया जाता है, तब कहीं जाकर वह गृहस्थाश्रम और पारिवारिक जीवन को प्रकाश पूर्ण और आनन्दमय बना पाता है।
इस प्रकार दाम्पत्य और पारिवारिक जीवन उचित रीति से निर्वाह करने पर निजी स्वार्थ के त्याग और दूसरों की सेवा की भावना की वृद्धि होती है और हम समाज सेवा के महत्व को समझने लगते हैं। हमको अनुभव होने लगता है कि कोई व्यक्ति अकेले अपने स्वार्थ पर दृष्टि रख कर ही कदापि सुखी और संतुष्ट नहीं हो सकता। एक से दो और दो से चार यही तरीका साँसारिक दृष्टि से मनुष्य जीवन को सफल और सार्थक बना सकता है। हम इस समय जितनी भी उन्नति और समृद्धि अपने चारों तरफ देख रहे हैं, उसका मूल समाज-संगठन और सामुदायिक भावना में ही निहित है। इसलिये जो मनुष्य इस परम्परा को कायम रखना चाहता है और पूर्ववर्ती पीढ़ियों के ऋण से अऋण होना चाहता है उसको अपना पारिवारिक जीवन उन्नत और सुदृढ़ बना कर समाज की प्रगति में अवश्य सहयोग देना चाहिए।
एक दिन कर्म और भावना दोनों एकत्रित हुए। बात-चीत में विवाद चल पड़ा कि दोनों में कौन बड़ा है।
दोनों ही अपनी-अपनी बड़ाई बखानने लगे। कोई छोटा बनने को तैयार न हुआ। जब विवाद बढ़ा तो निर्णय कराने इन्हें ब्रह्माजी के पास जाना पड़ा।
ब्रह्माजी ने दोनों की बात सुनी और मुस्काये। उनने कहा-परीक्षा से ही वास्तविकता का पता चलेगा। तुम दोनों आकाश छूने का प्रयत्न करो। जो पहले आकाश छू सकेगा वही बड़ा माना जाएगा।
भावना ने उछाल लगाई तो आकाश तक जा पहुँची। छूने में भी सफल हो गई। पर आकाश की ऊँचाई इतनी अधिक थी कि बेचारी को अधर में ही लटकना पड़ा। पैर धरती से बहुत ऊपर थे।
कर्म प्रयत्न में जुटा। उसने आकाश तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ बनानी शुरू कर दीं। कई दिनों वह लगातार लगा भी रहा। पर उत्साह न होने से वह सब थकाने वाला झंझट मात्र दीखने लगा। उदासी ने उसे घेरा और अपने औजार पटक का वह सुस्ताने सरोवर के तट पर चला गया।
ब्रह्माजी पता लगाने गये तो देखा कि भावना आकाश में अधर लटकी है। कर्म को देखा तो वह पाकर की छाया में औंधे मुँह पड़ा कराह रहा था। थकान और झूँझल से उसकी नस-नस दुख रही थी।
प्रजापति ने दोनों को बुला कर कहा- तुम दोनों ही अपूर्ण हो। बड़प्पन तभी बनता है जब दोनों मिलते हो। जाओ लड़ना मत, दोनों मिल-जुल साथ-साथ रहना, तभी तुम्हारी उपयोगिता अक्षुण्ण रह सकेगी।