हम दीर्घजीवी क्यों नहीं बन पाते ?

September 1963

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वेदों में मनुष्य की औसत आयु सौ वर्ष बताई गई है। “जीवेम शरदः शतम्” हम सौ वर्ष तक जिएँ। प्रकृति के नियमानुसार भी मनुष्य की आयु सौ वर्ष के ऊपर ही मानी गई है। प्रकृति का यह सामान्य नियम है कि जो प्राणी जितने समय में प्रौढ़ होता है उससे पाँच गुना जीवन जीता है। नियमानुसार घोड़ा पाँच वर्ष में युवा होता है तो घोड़े की उम्र 25 वर्ष से 30 वर्ष तक मानी गई है। ऊँट 8 वर्ष से प्रौढ़ होकर 40 वर्ष तक, कुत्ता 2 वर्ष में विकसित होकर 10 वर्ष तक और हाथी 50 वर्ष में युवा होकर 200 वर्ष तक जीवित रहता है। मनुष्य भी साधारणतया 25 वर्ष की उम्र में युवा होता है। अतः 100 से 150 वर्ष तक की उम्र मानी गई है उसकी।

शरीर और आयु विज्ञान के अमेरिकी विद्वान डॉ. कार्नसन ने कहा है यद्यपि प्रकृति के नियम और गणित के हिसाब से मनुष्य की आयु 150 वर्ष होती है फिर भी मोटे रूप में उसको 100 वर्ष तो मान ही लेनी चाहिए। यह आयु-सीमा केवल अनुमान मात्र ही नहीं है अपितु सही है। गोस्वामी तुलसीदास 100 वर्ष से अधिक जीवित रहे। इससे पूर्व महाभारत काल में श्रीकृष्ण की आयु 127 वर्ष और पितामह भीष्म को दो सौ वर्षों से भी अधिक मानी गई है। आधुनिक युग में भी अनेकों शतजीवी हुए हैं। भारत के महर्षि कर्वे, महान् इंजीनियर विश्वेश्वरैया शतायु हुए हैं। भारत में तो सौ वर्ष जीवन की स्वाभाविक आयु मर्यादा मानी गई है।

विदेशों में भी नारवे का क्रिश्चियन ड्रेकनवर्ग 146 वर्ष तक जीवित रहा। उसने 130 वर्ष की उम्र में अपना अन्तिम विवाह किया। इससे पूर्व 111 वर्ष की उम्र में एक 60 वर्षीय विधवा से विवाह किया था। सौ वर्ष की उम्र तक वह सिपाही के रूप में शत्रु देश से लड़ता रहा। प्रसिद्ध प्रकृतिवादी डेमोक्रेटिस जीवन भर स्वस्थ, निरोग रहकर 109 वर्ष तक जीवित रहे। जोसफ सूरिंगटन 160 वर्ष तक जीवित रहा। उसके सबसे बड़े पुत्र की आयु 108 वर्ष की थी तो छोटे की 9 वर्ष। हंगरी का बोविन 172 वर्ष तक जीवित रहा उसकी पत्नी 164 वर्ष की थी।

इस तरह के असंख्यों उदाहरण भरे पड़े हैं जो मनुष्य के शतजीवी अथवा सौ वर्ष से अधिक होने के प्रत्यक्ष प्रमाण है। इतना ही नहीं प्राणियों के जीवनकोषों का स्वभाव सदा-सदा जीवित रहने का प्रयत्न करना है। वैज्ञानिक खोजों से यह सिद्ध हो चुका है कि - “प्राकृतिक रूप में भी मृत्यु निश्चित नहीं है।” प्रसिद्ध जीवन शास्त्री डॉ. अलेक्सिस कैरेल ने एक मुर्गी के भ्रूण को 36 वर्षों तक तरल पोषक पदार्थ में सुरक्षित रखा। 36 वर्ष के पश्चात् उन्होंने अपना प्रयोग इस निष्कर्ष पर बन्द कर दिया कि वह भ्रूण इसी तरह सदा-सदा जीवित रखा जा सकता है।

पूर्व मनीषियों के अनुभवपूर्ण, निष्कर्षों वैज्ञानिकों के प्रयोग, प्रकृति की स्वाभाविक नियम मर्यादाओं के अनुसार मनुष्य की औसत आयु सौ वर्ष मान लेने में शंका की कोई गुंजाइश नहीं।

आज के तथाकथित वैज्ञानिक और विकसित युग में स्थिति कुछ इससे भिन्न है। अधिकाँश लोग सौ वर्ष के पूर्व ही जीवन समाप्त कर देते हैं और वह भी जीवन भर स्वास्थ्य की खराबी की चिन्ता नहीं करते हुए अनेकों रोग बीमारियों के शिकार बन कर। सुखपूर्ण स्वाभाविक और प्राकृतिक मृत्यु तो शायद ही किसी को प्राप्त होती हो। 50-60 वर्ष की उम्र काफी समझ ली जाती है।

कुछ समय पूर्व पश्चिमी जर्मनी में 30 देशों के लगभग 1000 वैज्ञानिक जीवनशास्त्री मानसरोग विशेषज्ञों का एक बड़ा सम्मेलन हुआ था, जिसमें आधुनिक युग में गिरते जा रहे स्वास्थ्य, असामयिक बुढ़ापे और अकाल मृत्यु पर विचार−विमर्श किया गया था। इन सभी विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला कि “शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को गड़बड़ी और अल्प जीवन की जड़ है आज का अप्राकृतिक, अस्वाभाविक, असन्तुलित जीवन।”

दीर्घ जीवन के लिए मुख्यता शारीरिक मानसिक और व्यावहारिक जीवन क्रम में सन्तुलन व्यवस्था बनाये रखना आवश्यक है। इसके साथ विजातीय तत्वों के प्रवेश से अपनी रक्षा करना भी अपेक्षित है।

इंग्लैण्ड के थामस पार साहब 152 वर्ष तक स्वस्थ हालत में जीवित रहे। वे साधारण भोजन करते थे। बादशाह चार्ल्स ने एक बार इन्हें मुलाकात के लिए बुलाया और बढ़िया भोजन की दावत भी दी किंतु इससे वे मर गये। डाक्टरी जाँच करने पर पता चला कि गरिष्ठ भोजन ने उनके पाचन को बिगाड़ दिया और उनके जीवन का अन्त कर दिया।

गलत खान-पान, अशुद्ध आहार, अनुपयुक्त वायु का सेवन करने वाले असंख्यों व्यक्ति अपने हाथों अपनी कब्र खोदते हैं। बहुत अधिक या अयुक्त खाद्य पदार्थ ग्रहण कर लेने पर शरीर के पाचन संस्थान पर भारी दबाव पड़ता है और उनकी क्रिया असन्तुलित, अस्त−व्यस्त हो जाती है। यही बात अशुद्ध वायु के संबंध में भी लागू होती है। दवा, इन्जेक्शन आदि के रूप में लिए जाने वाले विजातीय द्रव्य भी इसी में आते हैं। आजकल अनुपयुक्त खानपान रहने के गन्दे घुटे हुए स्थान, शरीर को जल्दी ही क्षीण करने में बहुत कुछ उत्तरदायी हैं। यदि हम उपयुक्त और आवश्यकतानुसार खाद्य पदार्थ लें शुद्ध स्वच्छ हवा में अधिकाधिक रहें, शरीर से दूषित पदार्थ मलों के निष्कासन का पूरा पूरा ध्यान रखें तो शरीर स्वस्थ सन्तुलित रहेगा और हम दीर्घ जीवी बन सकेंगे।

दूसरी महत्वपूर्ण बात है जीवन का बाह्य जगत के साथ तालमेल बैठाना। अपने कार्य, श्रम, विश्राम में संतुलन बना लेना दीर्घ जीवन का महत्वपूर्ण नियम है। शरीर की क्षमता, शक्ति के अनुसार अपना कार्य करना, आवश्यकतानुसार विश्राम करना शरीर को संतुलित बनाये रखने के लिए अपेक्षित है। किंतु वैज्ञानिक युग की घुड़दौड़ के मनुष्य अपनी आन्तरिक एवं बाह्य उत्तेजनाओं का संस्पर्श पाकर बेतहाशा जीवन में दौड़ लगा रहा है। मनुष्य की महत्वाकाँक्षाओं, प्रतिस्पर्धा, ऐषणायें, आकाश को चूमने लगी हैं। मनुष्य उनकी उत्तेजनाओं से प्रेरित हो कर दिन रात भागता दौड़ता है। तनाव पर तनाव पड़ने से बढ़ने चढ़ने की तृष्णा और एषणाओं की उन्मादी दौड़ में मनुष्य का जीवन क्रम बेसुरा हो जाता है। मनुष्य का स्नायु-संस्थान, हृदय मस्तिष्क जल्दी ही रोगग्रस्त, अक्षम, असमर्थ, हो जाते हैं और एक झटके के साथ उसका स्वास्थ्य गिर जाता है। अनिद्रा, आन्तरिक बेचैनी, चिन्तायें बढ़ जाती है, जिससे कई शारीरिक मानसिक गड़बड़ी उत्पन्न होकर मनुष्य के अल्प जीवन का कारण बनती हैं।

जीवन संबन्धी खोज विशेषज्ञ डॉक्टर कार्लसन का कहना है “अल्प मृत्यु और बुढ़ापे को रोकने के लिए सौ दवाओं की एक दवा है - सुविधाजनक जीवन। जिस कार्य से शरीर और मन पर अत्यधिक दबाव पड़े उसे छोड़ देना चाहिए। अपनी शक्ति, सामर्थ्य, क्षमता तथा उम्र के अनुसार अपने दैनिक कार्यक्रम में आवश्यकतानुसार परिवर्तन करते रहना चाहिए। इसी सूत्र को पकड़कर मैंने लम्बी उम्र पायी है और अनेकों लोगों को जीवन के कष्टों, रोगों से मुक्ति दिलाई है।”

स्वास्थ्य आँकड़ा विशेषज्ञ लुई डबलिंग ने अपने आँकड़ों के आधार पर निष्कर्ष निकाला कि चिन्ता प्रधान बाल्य जीवन और दुःखी, संतप्त यौवन कभी भी दीर्घायु, सुन्दर स्वास्थ्य, सुखी जीवन नहीं बना सकता। दीर्घजीवन की नींव, मूलाधार है, चिन्ता और दुःखद अनुभूतियों से मुक्त बाल्य जीवन और उन्मुक्त, स्वच्छन्द, भार रहित यौवन। जर्मन विशेषज्ञ डॉ. बोहर का मत है कि दीर्घ जीवन व सुन्दर स्वास्थ्य के लिए 20 वर्ष तक का जीवन प्रसन्नता भरा हुआ और जीवन की विभीषिकाओं से रहित होना आवश्यक है। भारतीय जीवन विशारदों ने भी जीवन का प्रारम्भिक चौथाई काल 25 वर्ष की उम्र तक ऋषि कुलों में ब्रह्मचर्यपूर्वक उन्मुक्त बिताने का विधान रखा है।

किन्तु आज के तथाकथित सभ्य और विज्ञान के युग में बाल्यकाल से ही मनुष्य के जीवन में विभिन्न चिन्ता, परेशानी, उलझनों, समस्याओं का ताँता लग जाता है। बहुत कम लोगों को बचपन में यह सौभाग्य प्राप्त होता है। जिन्हें ऐसा अवसर मिलता भी है तो उनकी जीवन धारायें भौतिक आकर्षणों की मृगमरीचिका की ओर प्रभावित हो जाती हैं जहाँ जिससे जीवन का कोई उद्देश्य नहीं सधता। अन्ततः चिन्ता, निराशा, अवसाद, असफलता का ही सामना करना पड़ता है। इससे मानसिक संस्थान पर बुरा असर पड़ता है। साथ ही शारीरिक असन्तुलन भी। इससे मनुष्य अल्पायु में ही जीवन समाप्त कर देता है।

खेद की बात है कि हम सभ्यता और प्रगति के नाम पर जीवन के स्वाभाविक क्रम, प्रकृति की मर्यादाओं का उल्लंघन करके असन्तुलित जीवन बिताते हैं या किन्हीं कारणों से बिताने के लिए बाध्य होना पड़ता है। रहन-सहन, आहार-विहार, कार्य-क्रम विश्राम आदि में कोई तालमेल नहीं बैठाकर भौतिकता की अन्धी दौड़ में बेतहाशा भागे जा रहे हैं। और फिर स्वास्थ्य की गड़बड़ी अल्पायु रोग बीमारियों, अशान्ति क्लान्ति से पीड़ित हो नारकीय जीवन बिताते हैं। किन्तु इसके जिम्मेदार हम स्वयं हैं कोई दूसरा नहीं। इस स्थिति से उबरने के लिए हमें इस गलत जीवन क्रम को बदलना होगा तभी दीर्घजीवन, सुन्दर स्वास्थ्य,सबल मनोभूमि के वरदानों से हम कृत-कृत्य हो सकेंगे।


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