अन्न से ही मन बनता है जैसा अन्न खाया जाता है वैसा ही मन बन जाता है। अध्यात्म का सारा क्रिया कलाप मन की स्थिति पर ही अवलम्बित रहता है। मन भी तमोगुण, रजोगुण में डूबा हुआ है, उस पर तृष्णा और वासना के मल-आवरण छाये हुए हों तो बाहरी उपायों से सुधार हो सकना कठिन है, हम देखते हैं कि रोज कथा-वार्ता कहने-सुनने वाले और धार्मिक कर्मकाण्डों में देर तक लगे रहने वाले व्यक्ति भी दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों को चरितार्थ करते रहते हैं। यह आश्चर्य की ही बात है कि जिसे धर्म का पर्याप्त ज्ञान हैं, जो दूसरों को भी का उपदेश देता है वह अपने व्यावहारिक जीवन में अधर्म का आचरण करता रहता है। विचार करने पर उसका एक ही कारण प्रतीत होता है कि व्यक्ति का अन्तःकरण, मानसिक स्तर ही वह मर्म स्थल है जहाँ से प्रेरणायें और प्रवृत्तियाँ उसी दिशा में अग्रसर होंगी जैसी कि उसकी मनोभूमि बनी हुई होगी।
मनोभूमि के सुधारों में स्वाध्याय और सत्संग बहुत सहायक होता है, उपासना तथा दूसरे धार्मिक कर्मकाण्डों का भी बहुत कुछ असर होता है पर सबसे अधिक प्रभाव अन्न का होता है। जिस प्रकार का, जिस स्तर का आहार किया जाता है उसी तरह का मन बनता है। वस्तु जैसी कुछ बनी है उसका प्रधान गुण तो वही रहेगा। सुधार और संस्कार से उसकी प्रगति में कुछ न कुछ अन्तर तो आता है पर पूरा परिवर्तन नहीं होता। आज साधना मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति आहार पर उतना ध्यान नहीं देते जितना कि देना चाहिए। फलस्वरूप तमोगुणी और रजोगुणी प्रकृति की वस्तुएँ खाते रहने पर मन का मूल स्वभाव भी वैसा ही बन जाता है। स्वाध्याय-सत्संग में उस पर नियन्त्रण तो रहता है, पर जब कभी भीतर से कामना एवं वासना का प्रबल वेग उठता है तो उस बाह्य नियंत्रण को तोड़-फोड़ कर मनुष्य को दुष्कर्म में प्रवृत्त कर देता है। दुष्प्रवृत्तियाँ रुक नहीं पाती।
इस कठिनाई का एकमात्र हल यह है कि श्रेय पथ का पथिक अपने आहार पर सबसे अधिक ध्यान दे। पंचकोशी गायत्री उपासना का आरम्भ अन्नमय कोश की शुद्धि से ही होता है। नींव पक्की न हुई तो आगे ऊँची दीवार उठाने और उसे स्थायी बनाने का कार्यक्रम सफल न हो सकेगा ? जो व्यक्ति जिह्वा के गुलाम हैं, स्वादेन्द्रिय पर जो नियंत्रण नहीं कर सकते, शुद्ध आहार की प्राप्ति में जो कष्ट और असुविधा उठानी पड़ती है उसे सहन कर सकना जिनके वश की बात न हो, उन्हें योगाभ्यास, आत्मोत्कर्ष लक्ष्य की पूर्ति, स्वर्ग-मुक्ति जैसे स्वप्न नहीं ही देखने चाहिए। अध्यात्म शूरवीरों का मार्ग है। साधना को संग्राम कहा गया है। इसमें षडरिपुओं के चक्रव्यूह को तोड़ने के लिए घनघोर युद्ध करना पड़ता है। गीता में कृष्ण ने धनुर्धर अर्जुन को जिस महाभारत में प्रवृत्त किया है वह वस्तुतः आन्तरिक शत्रुओं से लड़ने का ही प्रशिक्षण है। अपनी दुर्बलता से लड़ पड़ने का प्रबल पुरुषार्थ किये बिना जीवन मुक्ति की विजय वैजयन्ती धारण कर सकना किसी के लिए भी संभव नहीं होता।
गायत्री उपासना की उच्चस्तरीय साधना में प्रवेश करने वाले योद्धा को सर्वप्रथम शिक्षण स्वादेन्द्रिय से लड़ने और आहार शुद्धि की सुव्यवस्था बनाने का ही है उसकी उपेक्षा करने से आगे का मार्ग अवरुद्ध ही पड़ा रहेगा, यह बात हर उच्चस्तरीय साधक को कान खोलकर सुन लेनी चाहिए और सुन समझकर गाँठ बाँध लेनी चाहिए कि आहार को सात्विक बनाये बिना किसी भी प्रकार काम चलने वाला नहीं है। जो साधक मिष्ठान, पकवान और माल-मलाई विपुल परिमाण में चरते रहते हैं उन्हें वासनाएँ ऐसे ही पथ पर भ्रष्ट कर देती हैं जैसे मुर्गे की गर्दन को बिल्ली मरोड़ कर रख देती है। ऐसे साधकों को पग-पग पर आलस, प्रमाद सताता है और वासना तृष्णा की मृग मरीचिका उन्हें निरन्तर भ्रमाती, भटकाती रहती हैं।
हमारा अन्नमय कोश शुद्ध हो सके इसके लिए गत दो वर्षों में हमने अस्वाद-व्रत और उपवास का आरंभ करने के लिए साधकों को भली प्रकार समझाया है। बिना नमक और बिना शक्कर का अलौना फीका भोजन स्वास्थ्य की दृष्टि तो से हितकर है ही मन, को सतोगुणी बनाने में भी बहुत सहायक होता है। जो स्वाद पर काबू कर लेगा वही ब्रह्मचर्य भी पालन कर सकेगा, जिसकी जीभ चटोरी है उसके लिए काम वासना पर काबू पा सकना कभी संभव न होगा। इसलिए गत दो वर्षों से हम उच्च श्रेणी के साधकों को बराबर बताते रहे हैं कि उन्हें सप्ताह में एक दिन रविवार को या दो दिन रविवार और गुरुवार को अस्वाद व्रत करना चाहिए। उस दिन बिना नमक और बिना शक्कर का अलौना भोजन किया जाय। जिस दिन ऐसा आहार लिया जायेगा उस दिन मन की शक्ति बहुत कुछ बढ़ी रहेगी और अन्तःकरण में सात्विक सत्प्रवृत्तियों की ओर ही उत्साह उठता रहेगा। इस बात की परीक्षा करके कोई भी व्यक्ति परिणाम को प्रत्यक्ष देख सकता है।
गत दो वर्षों में अन्नमय कोश के साधकों को यह भी बताया गया है कि भोजन में वस्तुओं की संख्या कम से कम हो। एक बार में एक साथ अनेक प्रकार के, अनेक स्वाद और अनेक प्रकृति के भोजनों का खाया जाना न शरीर के लिए हितकर है और न अन्तःकरण की स्वस्थता को स्थिर रहने देता है। इसलिए रोटी के साथ एक या अधिक से अधिक दो वस्तुएं लेनी चाहिए। थाली में कटोरियों की संख्या का बढ़ाना साधना में प्रत्यक्ष विघ्न है।
हमें आशा है कि जो लोग पंचकोशी साधना में प्रवृत्त हैं वे इन दोनों नियमों को आचरण में ला रहे होंगे। जिनने इसमें ढील रखी हो उन्हें अब इन नियमों पर अधिक सावधानी और दृढ़ता के साथ आचरण करना आरंभ कर देना चाहिए। व्रत को पालन करने में ही कल्याण है। कभी करना कभी न करना यह शिथिलता संकल्पशक्ति को दुर्बल बनाती है और साहस घटता है। अतएव उचित यही है कि जो कुछ करना हो उसके संबंध में देर तक विचार किया जाय और जब भली प्रकार सोच समझ कर कोई निश्चय कर लिया जाय तो फिर दृढ़तापूर्वक उसे निभाया जाय। अस्वाद व्रत सप्ताह में दो दिन न बन पड़े तो भले ही एक दिन रखा जाय। रविवार असुविधाजनक पड़ता हो तो भले ही कोई दूसरा दिन रख लिया जाय, पर जो कुछ निश्चय किया जाय उस पर दृढ़ता से आरुढ़ रहा जाय, छोटे-मोटे बहाने मिलते ही अपने व्रत को तोड़ देना उचित नहीं। आस्थावान साधकों के लिए यह अशोभनीय है।
इस तीसरे वर्ष में आहार शुद्धि के लिए यह नया विधान आरंभ करना है कि भोजन दो बार ही लिया जाय। बार-बार खाते रहने और बकरी की तरह दिन भर मुँह चलाते रहने की आदत स्वास्थ्य को तो चौपट करने वाली है ही, जिह्वा की लोलुपता को भी भड़काती है और मन को असंयमी बनाती है। जो कुछ खाना हो दिन में दो बार ही खाया जाय। प्रातः जलपान में दूध, छाछ, नींबू, शहद का शरबत शाक का रसा जैसी पतली चीज ही ली जाय। भारी नाश्ता केवल कठोर श्रम करने वाले श्रमिकों के लिए उपयुक्त हो सकता है। तीसरे पहर नींबू का शरबत जैसी कोई चीज ली जा सकती है, जिन्हें चाय की आदत पड़ी हो वे गेहूँ का चोकर, अदरक, तुलसी के पत्ते उबालकर उसमें गुड़ एवं दूध डालकर देशी चाय बना लिया करें। यह बिना हानि का चाय का स्थानापन्न पेय है रात को सोते समय दूध लेने की अपेक्षा शाम को भोजन में पानी के स्थान पर दूध लेवे तो अच्छा है। बार-बार भोजन करने की आदत को घटाने के लिए इस वर्ष पंचकोशी साधना के साधकों को विशेष व्रत लेना चाहिए।
अन्नमय कोश के शोधन का दूसरा व्रत इस वर्ष यह लेना चाहिए कि सप्ताह में एक दिन अथवा कम से कम एक समय उपवास अवश्य किया जाय। अब तक अस्वाद व्रत ही पर्याप्त माना जाता था, उपवास अनिवार्य नहीं था। पर अब इस वर्ष से उच्चस्तरीय साधकों को सप्ताह में एक दिन या एक समय उपवास भी करना चाहिए। जिन्हें पूरे दिन उपवास करना हो वे फलाहार, शाक का रस, दूध, छाछ जैसी हलकी वस्तुएं लें। जिन्हें कठिन शारीरिक श्रम करना पड़ता है या शरीर से बहुत दुर्बल हैं उनके लिए एक समय का उपवास भी पर्याप्त है। इसके अतिरिक्त दूध आदि आवश्यकतानुसार लिया जा सकता है। अस्वाद व्रत का अलौना आहार भी चल सकता है। जिसके लिए जैसी सुविधा हो उसे अपनी स्थिति के अनुसार निर्णय कर लेना चाहिए और उस पर दृढ़तापूर्वक आरुढ़ रहना चाहिए।
उपवास में बचाया हुआ अन्न या उसका मूल्य हर एक को ज्ञान-यज्ञ के लिए अपने पास सुरक्षित रखना चाहिए। पेट का हिस्सा काट कर आत्मा को भोजन देने में ही उसका उपयोग हो। घर में गायत्री ज्ञान मंदिर की स्थापना होनी चाहिए। यह छोटा-सा घरेलू पुस्तकालय निरन्तर बढ़ता रहे इसके लिए उपवास से बचाये हुए अन्न का मूल्य खर्च किया जाता रहे। नैतिक आध्यात्मिक एवं जीवन को ऊँचा उठाने वाले साहित्य का घरेलू पुस्तकालय एक छोटे गायत्री मंदिर के ही समान है। घर के प्रत्येक व्यक्ति के स्वाध्याय का अवसर मिलने लगे तो यह उपवास का क्रम साधक के लिए ही नहीं उसके सारे परिवार के लिए श्रेयष्कर सिद्ध हो सकता है।
इस तीसरे वर्ष में पंचकोशी साधना क्रम में (1) दो समय से अधिक बार भोजन न करना (2) साप्ताहिक उपवास और उसके बचे हुए अन्न से घरेलू ज्ञान मंदिर पुस्तकालय की अभिवृद्धि करना यह दो नये विधान सम्मिलित किये गये हैं। भोजन में वस्तुओं की संख्या का कम रहना और अस्वाद व्रत की पिछली परम्पराएँ तो साथ चलती रहेंगी ही, आहार के सम्बन्ध में अगले वर्षों में अपनी सात्विक कमाई का आहार, पकाने वाले का सात्विक स्वभावयुक्त, संस्कारवान होना आदि बातें बढ़ाई जायेंगी। अभी तो जो बताया गया है उसे ही अभ्यास में लाना और कार्य रूप में परिणत करना पर्याप्त है।
ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में गत वर्ष अपेक्षाकृत अधिक संयम रखने का निर्देश किया गया था उसमें क्रमशः हर वर्ष कुछ कड़ाई बढ़ाते ही चलना चाहिए। गृहस्थ होते हुए भी साधकों को अधिकाधिक ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। इससे आत्म-बल बढ़ता है, स्वास्थ्य, सुधरता है मानसिक शक्ति एवं बुद्धि में तीव्रता आती है, दीर्घ जीवन सुलभ होता है और सन्तान की संख्या बढ़ने से परिवार का अर्थ-संतुलन बिगड़ने से बच जाता है। पत्नी की सबसे बड़ी सेवा यही हो सकती है कि उसे अधिकाधिक ब्रह्मचर्य से रहने देकर निरोगिता एवं संतान-पालन के असहाय भार से बचने का लाभ प्राप्त करने दिया जाय। इस सुविधा के प्राप्त होने पर ही वह पति तथा परिवार की अधिक सेवा कर सकने में समर्थ हो सकती है।
ब्रह्मचर्य की लम्बी मर्यादाएं पालन करने वाले, असंयम से बचे रहने वाले पति-पत्नी ही सुयोग्य संतान उत्पन्न कर सकते हैं। युग-निर्माण के उपयुक्त नई पीढ़ी को जन्म देने के लिए यह आवश्यक है कि गृहस्थ में भी वासनात्मक संयम का कड़ाई से पालन किया जाय और इन्द्रिय निग्रह की अवधि अधिकाधिक लम्बी बनाई जाती रहे। गायत्री उपासना में संलग्न पति पत्नी-स्वाध्याय और परस्पर विचार विनिमय द्वारा भावनात्मक उत्कर्ष करते रहें। साथ ही परमार्थिक कार्यों में भी आवश्यक अभिरुचि लेते रहें तो उनके शरीरों में वे तत्व उत्पन्न हो सकते हैं जिनके कारण नर रत्नों को जन्म दे सकना संभव होता है। हमारी हार्दिक इच्छा है कि गायत्री परिवार के सद्गृहस्थों के यहाँ उच्च कोटि की आत्माएँ जन्म लें। युग निर्माण के लिए वैसी ही विभूतियों की आवश्यकता भी पड़ेगी। दशरथ-कौशल्या, वसुदेव-देवकी, दुष्यन्त-शकुन्तला की तरह प्रबुद्ध दम्पत्ति ही यह सौभाग्य लाभ कर सकते हैं। पंचकोशी गायत्री उपासना में अन्नमय कोश को अनावरण करने का प्रयत्न करते हुए श्रद्धालु साधक यदि ब्रह्मचर्य को अधिकाधिक महत्व देते रहें और अपने साथ ही पत्नी का आत्मिक स्तर ऊंचा उठाने का प्रयत्न करते रहें तो गायत्री माता के अन्य वरदानों के साथ यह वरदान भी मिल सकता है कि इतिहास में अपना और पिता-माता का नाम अमर करने वाली सुसंतति उन्हें प्राप्त हो।