आस्तिकता की आवश्यकता

September 1963

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प्रायः सभी धर्मों ने ईश्वर की सर्वव्यापक, सर्वसमर्थ, परम शक्तिमान सत्ता को अपनी श्रद्धा और विश्वास का आधार बनाया है। मनुष्य की अपनी शक्ति अल्प, सीमित और मर्यादित है। संसार और जीवन की विभीषिकाओं में मनुष्य अपनी “स्वः” शक्ति पर अपने आपको निरीह, असहाय अनुभव करता है। किन्तु जब वह ईश्वर की व्यापक शक्तिशाली सत्ता से अपने आपको जुड़ा हुआ पाता है तो उसके द्वन्द्व स्वतः ही तिरोहित हो जाते हैं। ईश्वर का संसर्ग पाकर स्व-शक्ति इतनी प्रबल हो जाती है कि द्वन्द्व उसके लिए द्वन्द्व नहीं रहते। कठिनाई, क्लेश, परेशानियों में भी मनुष्य सन्तुलित होकर आगे बढ़ता रहता है। ईश्वर पर दृढ़ आस्था और विश्वास मनुष्य को मानसिक सन्तुलन और शक्ति प्रदान करता है।

अपने को ईश्वरीय सत्ता से संयुक्त करने के लिए शरणागति आत्म निवेदन, प्रार्थनाओं को धर्म का रचनात्मक रूप माना गया है। चिन्तन, मनन धारणा, ध्यान, समाधि का आयोजन ईश्वरीय सत्ता से एकीभूत होने के लिए, शक्ति प्रेरणा पाने के लिए, मानसिक सन्तुलन प्राप्त करने के लिए हुआ। मन के अन्तर्द्वन्द्व शान्त होने पर मनुष्य को क्लेश पहुँचाने वाले अनेकों मनोभावों का सहज ही निवारण हो जाता है।

इस तरह धर्म के अनेकों कार्यक्रम, आस्था, व्यवस्थाओं का आदि काल से अबोध क्रम चलता रहा और समय-समय पर इनमें विकास, साथ ही परिवर्तन, नवीनीकरण भी होता रहा।

ईश्वर के विश्वास के साथ ही प्रार्थना धर्म की दूसरी देन है। प्रार्थना से मनुष्य के मानसिक स्वास्थ्य में बहुत बड़ी सहायता मिलती है। प्रार्थना एकान्त में स्वच्छ शान्त वातावरण में विभिन्न मुद्राओं के साथ की जाती है। प्रार्थना सामूहिक भी होती है। प्रार्थना की पूर्णता और विधि व्यवस्था के लिए शारीरिक पवित्रता, मन्दिर, मस्जिद, गिर्जाघर, मूर्तियाँ विभिन्न प्रतीकों को माध्यम लिया गया। अनेक प्रकार के कर्मकाण्डों का प्रादुर्भाव हुआ। संगीत और कला के समन्वय से उसे अधिक रोचक बनाया गया। सभी धर्मों में प्रार्थना का कोई न कोई रूप रखा गया है किन्तु सभी का एक ही उद्देश्य है, संसार के बाह्य जीवन से कुछ क्षणों के लिए विश्राम लेना। उत्तेजना, संघर्ष, अशान्ति, क्लेश आदि से कुछ समय उपराम लेकर अन्तर्मुखी बनना। असीम, अनन्त के साथ एकाकार होकर, आत्म निवेदन करके या आत्मानुभूति प्राप्त करके मानसिक सन्तुलन, आत्म प्रसाद, मानसिक दृढ़ता प्राप्त कराना प्रार्थना का मूल उद्देश्य है।

प्रार्थना से मानसिक सन्तुलन, आत्मानुभूति, ईश्वरीय सत्ता के साथ एकात्मकता के साथ ही शारीरिक तनाव भी दूर होता है। दिन-रात संसार के ताने-बाने में ही रत यहाँ के संघर्षों में लिप्त रहने से शरीर के स्नायु-संस्थान, पेशियों, नस नाड़ी, दिल, दिमाग, एवं अन्य अवयवों में एक तरह का तनाव, खिचाव सा पैदा हो जाता है। आज के युग में तो मानव जीवन की दौड़ भाग, संघर्ष आदि और भी अधिक बढ़ गये हैं। प्रार्थना के समय मनुष्य यदि प्रयत्नपूर्वक संसार से अपने आपको कुछ समय के लिए समेटकर एक सत्ता में केन्द्रित हो जाय तो उसे सहज ही उपराम मिले और उसका शारीरिक मानसिक स्नायविक तनाव दूर होकर पर्याप्त विश्राम मिलता रहे। प्रार्थना एक रूप में संसार की ओर से मानसिक शिथिलीकरण का आध्यात्मिक उपाय है जिससे मन के साथ−साथ शरीर को भी काफी आराम- उपराम मिलता है।

नदी की भयंकर लहरों में पड़ें हुए मनुष्य को कुछ क्षणों के लिए यदि किनारे पर लाकर शान्ति सुरक्षा की छाया में बिठा दिया जाय तो उसे कितना परितोष, शान्ति, आनन्द, आराम मिलेगा इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है, ठीक इसी तरह संसार सागर की विभीषिकाओं, संघर्षों से विरत हो मनुष्य कुछ क्षणों के लिए प्रार्थना के द्वीप पर असीम, अनन्त प्रभु की छत्रछाया में बैठकर उसकी अनुभूति करे तो वह सहज ही जीवन की क्लान्ति को दूर करके अधिक सक्षम हो जाय। संसार की ज्वालाओं से दग्ध उसका मानस पुनः हरा-भरा हो जाय। उसे सर्वत्र सौंदर्य शान्ति के दर्शन हों और वह फिर से नई ताजगी, नई शक्ति,साहस पाकर संसार में उतर कर अपना कर्तव्य पूरा कर सकता है। प्रार्थना मानव का अन्तर बाह्य सभी तरह से कल्प कर सकती हैं।

प्रार्थना से मनुष्य के निराशावादी, हीन दृष्टिकोण में परिवर्तन हो जाता है। उसे सर्वत्र शान्ति सौंदर्य, जीवन, माधुर्य के दर्शन होते हैं। संसार की विभीषिकायें गौण हो जाती हैं। उत्तेजनायें शान्त हो जाती हैं। प्रार्थना आन्तरिक और बाह्य जीवन में सन्तुलन और व्यवस्था पैदा करती है। एक दम बाह्य जगत में खो जाना यदि दुःख द्वन्द्वों से लिपटना है तो एक दम आन्तरिक जगत में रहना भी धरती और संसार के कर्तव्यों से दूर हटना है। योगी की अर्धोन्मीलित दृष्टि की तरह आधी से संसार और आधी से अन्तर को देखकर जीवन में समता, सन्तुलन व्यवस्था प्राप्त करना ही आध्यात्मिकता का सरल अर्थ है। प्रार्थना इसका एक महत्वपूर्ण उपाय है।

प्रार्थना आत्मविश्लेषण का एक वैज्ञानिक उपाय है जिसके अंतर्गत मनुष्य संसार स्वयं, और ईश्वरीय सत्ता के सम्बन्ध में अपने विचारों को सुलझा सकता हैं। सूक्ष्म तथ्यों का समाधान कर सकता है।

धर्म की मनुष्य को एक और महत्वपूर्ण देन है। वह है “आत्मा की अमरता का प्रतिपादन। कुछ नास्तिक मतों को छोड़कर संसार की अधिकाँश धर्मों में पुनर्जीवन, आत्मा की अमरता आदि को स्वीकार किया है। पूर्व जन्मों की बात बताने वाले अनेक बच्चों का प्रत्यक्ष प्रमाण, अन्य योगसाधनाओं से प्राप्त होने वाले सूक्ष्म रहस्यों से यह सब प्रयोगात्मक रूप में सिद्ध भी होते आये हैं।

जन्म और मृत्यु मनुष्य जीवन की दो महत्वपूर्ण घटनायें हैं। इनमें मृत्यु का नाम सुनकर प्राणी भयभीत हो जाता है। मृत्यु का भय अन्य सभी प्रकार के भयों से अधिक प्रभावशाली है, जो मनुष्य के मन में बहुत बड़ी प्रतिक्रिया पैदा करता है। इस प्रतिक्रिया के फलस्वरूप मनुष्य में एक तीव्र तनाव पैदा होता है और इस तनाव से मनुष्य की शक्ति और क्षमताओं का बहुत बड़े रूप में क्षय होता है। मृत्यु के भय से कई लोग तत्क्षण मरते देखे गये हैं। पागल हो जाते हैं। इसी मृत्यु भय को आदि काल से मनुष्य अनेकों प्रयत्नों से दूर करता आ रहा है। अमृत की खोज, “मृत्योर्माअमृत गमय” प्रार्थना और धर्म के द्वारा अमरता के वरदान की प्राप्ति के प्रयत्न सदा से होते रहे हैं-


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