जीवित मृत्यु देने वाला - आलस्य

September 1963

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दुनिया में यदि कोई भयंकर बीमारी है तो वह है आलस्य की। आलस्य समस्त रोगों का राजा है, उसे मौत से भी अधिक भयंकर कह देना कोई अत्युक्ति न होगी। क्षय, टाइफ़ाइड, इन्फ्लुएंजा, बुखार, चेचक आदि रोग मनुष्य के शरीर को प्रभावित करते हैं। आवश्यक उपचार करने पर कुछ ही समय में ये ठीक हो जाते हैं और जीवनक्रम पूर्ववत् चलने लगता है। खासकर कई रोगों में तो शरीर की शुद्धि भी हो जाती है। इसी तरह मृत्यु भी जन्म, बचपन, यौवन, वृद्धावस्था की तरह ही जीवन की एक स्वाभाविक घटना है। जीवन की लम्बी यात्रा में असमर्थ, अयोग्य जर्जरित शरीर का त्याग और नव शरीर का धारण जन्म मरण की घटनाओं से ही सम्भव है। किन्तु आलस्य तो ऐसा भयंकर रोग है जो मनुष्य के तन, मन, धन, श्री समृद्धि, बुद्धि सबको चौपट कर उसे जड़ता के फौलादी जाल में जकड़ लेता है। यह जीवित होते हुए भी मनुष्य को मृतवत बना देता है। निष्क्रियता, प्रयत्नहीनता, जड़ता, मृत्यु का ही दूसरा नाम है। आश्चर्य की बात तो यह है कि आराम सुख मौज मजे, के लालच में मनुष्य स्वयं ही इसकी गोद में सोता है और फिर यह मायावी उसे उठने नहीं देता। अपना सम्मोहक आलस्य हावी हो जाता है। अपना नियन्त्रण स्थापित कर लेता है।

आलस्य के प्रभाव में पड़ने पर मनुष्य की क्रिया शक्ति कुँठित होने लगती है। शरीर शिथिल हो जाता है। मानव मन की यह विशेषता है कि वह कुछ न कुछ करते रहने का आदी है। जब क्रिया के माध्यम से उसकी अभिव्यक्ति नहीं होती तो वह विचार और बातूनी दुनिया में काम करने लगता है। बड़ी बड़ी गप्पे हाँकना, निरर्थक बातें करना, खयाली दुनिया में उड़ना आलसियों के काम रह जाते हैं। जिस तरह सोते समय मनुष्य स्वप्नों की दुनिया में तरह-तरह के दृश्य देखता है, कभी हँसता है, कभी रोता है, कभी बड़ा धनी बन जाता है तो कभी गरीब दीन भिखारी, कभी दुखी होता है तो कभी सुख के गीत गाता हैं, इसी तरह आलसी व्यक्ति भी दिवास्वप्न देखने में व्यस्त और थका-थका सा मालूम पड़ता है। वह दिन भर कल्पना के पंख लगाकर उड़ता रहता है। इन कल्पनाओं की दुनिया में उसे उसी तरह अनुभूतियाँ होती हैं जैसे बाह्य संसार के रंग मंच पर सक्रिय व्यक्ति को। कल्पना की दुनिया में सुख-दुख के थपेड़े खात-खाते आलसी आन्तरिक एवं बाह्य जीवन में खोखला बन जाता है और हाथ पर हाथ धरे बड़ी वेदना, निराशा, काल्पनिक दुखों की पीड़ा का भारी बोझ उठाये असमय में ही काल कवलित हो जाता है। जीवन भर मरने की दुखद कल्पना से भयभीत आलसी को मृत्यु के समय भी कुछ कम कष्ट नहीं होता। इतना ही क्यों जीवन में आने वाले दुख कठिनाइयाँ भी उसकी कल्पना का संयोग पाकर सुरसा की तरह मुँह फाड़ उसे भयभीत करते रहते हैं। असंतोष, निराशा, घुटन, भय, संदेह, आशंका, चिन्ताओं से ग्रस्त आलसी का नारकीय जीवन एक अभिशाप ही होता है।

मनुष्य के विभिन्न रोगों की पहचान, निराकरण सरलता से किये जा सकते हैं। जीवन में आने वाली विभिन्न कठिनाई, समस्याओं, परिस्थितियों को समझकर उनका हल करना भी कोई कठिन बात नहीं है। किन्तु आलस्य का आक्रमण इन सबसे ज्यादा खतरनाक है। उसे समझना, हल करना आसान बात नहीं है क्योंकि सबसे पहले आलस्य अपने छल फरेब का जाल फैला कर मनुष्य की समझने बुझने, समाधान करने की शक्ति को नष्ट करता है। आलस्य, आराम, सुख का लालच देकर मनुष्य में ऐसी मादक खुमारी पैदा करता है, जिससे मनुष्य स्वतः ही इसकी शरण में चला जाता है, फिर यथार्थ की धरती पर कर्तव्य की कठोरता से बचने के लिए यह सरल रास्ता नजर आता है। यही कारण है कि बहुत से मनुष्य आलस्य के शिकार बन जाते हैं।

आशा, उमंग, उत्साह एवं चेतना की सात्विक उत्तेजना के फलस्वरूप मनुष्य कर्म रत रहकर सक्रिय जीवन बिताता है। जीवन में ऐसा भी समय, परिस्थितियाँ, वातावरण आ जाते हैं जब असफलता, निराशा, आकस्मिक दुर्घटना एवं चोट खाकर मनुष्य का उत्साह, उमंग, साहस, क्षत-विक्षत घायल हो जाते हैं। उत्तेजना ठण्डी पड़ जाती है। ठीक ऐसे ही अवसर पर आलस्य अपना आक्रमण करता है और मनुष्य पर अपना अधिकार करता है। ऐसे समय में जो सम्हल कर फिर उठ खड़े होते हैं अथवा धैर्य एवं सन्तोष के साथ साहस, शक्ति, उमंग की चिकित्सा कर समय की प्रतीक्षा के साथ अपना प्रयास जारी रखते हैं, आराम की चिन्ता जिन्हें नहीं होती वे आलस्य के आक्रमण से बच जाते हैं। जीवन की असफलता, विघ्न, बाधा, कठिनाइयाँ आलस्य के प्राथमिक हथियार हैं, इनके सामने घुटने टेक देना आलस्य की अधीनता स्वीकार करना हैं।

आलस्य के आक्रमण के प्रारम्भिक दौर में मनुष्य अपने काम को आगे के लिए टालने का प्रयत्न करता है। अपने कर्तव्य को छोड़ इधर उधर मन बहलाने अथवा भागने का मार्ग ढूंढ़ने लगता है। इधर-उधर के निरर्थक कामों में मन दौड़ाता है। ऐसी स्थिति में जरा कठोरता से काम लेना चाहिए और अपने सामने जो काम पड़ा है उसी को पूर्ण करने के लिए जुट जाना चाहिए मन को जबरन उस ओर लगा देना चाहिए।

आलस्य के प्रबल आक्रमण से मनुष्य की क्रिया शक्ति काफी कुँठित हो जाती है। एक तरह की शिथिलता उसे घेर लेती है। ऐसा व्यक्ति सब तरफ से हाथ पाँव समेट कर विक्षिप्त की तरह जड़वत् हो जाता है, अपने आवश्यक कार्यों को भूलने लगता है, उनसे उदासीन होने लगता है। ऐसी स्थिति में बुद्धि, विवेक भी इतने कुँठित हो जाते हैं कि अपनी स्थिति भी समझ में नहीं आती जिससे आलस्य का निराकरण कर उससे बचना सम्भव नहीं हो पाता। ऐसी स्थिति में किसी उत्साही, साहसी, व्यक्ति का संपर्क विशेष लाभदायक होगा। उत्साही, लगनशील, कर्मरत व्यक्ति के संपर्क से बड़े से बड़ा आलसी भी इस असाध्य रोग से छुटकारा पा सकता है। जिस तरह अग्नि के संपर्क में आने वाली वस्तुयें गर्म हो जाती हैं इसी तरह आलसी व्यक्ति भी उत्साही परिश्रमी व्यक्ति के संपर्क में आकर वैसा ही बनने लगता है।

आलस्य के कारण शरीर के समस्त अंग शिथिल हो जाते हैं। हाथ-पैर, दिमाग, पाचन-संस्थान, श्वास-प्रणाली सभी में विकृति पैदा हो जाती है और बैठे-बैठे शरीर अनेकों रोगों का घर बन जाता है। इतना ही नहीं आलसी व्यक्ति दूसरों की सहानुभूति, सहयोग पाने एवं बहाने बाजी के लिए साधारण रोगों को भी बहुत बड़ा-चढ़ा कर कहता है। साधारण सी बीमारी भी उसे बहुत भयानक लगती है। इस तरह आलसी व्यक्ति जीवित होते हुए भी मृतवत ही होता है। कर्मवीर के लिए मृत्यु कोई महत्व नहीं रखती उसके लिए वह एक देह परिवर्तन की शुभ बेला होती है। इसलिए मृत्यु से भयंकर, समस्त रोगों से भी भयानक आलस्य रोग से बचने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को सावधान रहना आवश्यक है।


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