भारतीय संस्कृति का स्वरूप

September 1963

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सामाजिक जीवन में व्यवहृत परम्परागत संस्कारों को ही संस्कृति कहते हैं। न जाने कब से, मानव के कर्म, रूप, वेश-भूषा, ग्रंथ आदि और प्रकृति से प्रभावित पारस्परिक सम्बन्धों का एक रूप चला आ रहा है और वही रूप उसकी संस्कृति को बनाता है।

संस्कृति के अनुसार ही राष्ट्रों का निर्माण होता हैं। संस्कृति के नष्ट होने पर राष्ट्र भी नष्ट हो जाते है। यह कथन मिथ्या है कि संस्कृति बनायी जाती है, बल्कि वह स्वयं बनती है। संस्कृति में समय के अनुसार परिवर्तन भी होता रहता है। परन्तु, वह परिवर्तन इतना धीरे होता है कि उसका तत्काल अनुभव नहीं हो पाता।

संसार की सभी संस्कृतियों में भारतीय संस्कृति अत्यंत प्राचीन है। अनेक झंझावातों में भी हमारी संस्कृति ज्यों की त्यों बनी रही। युग बदल गये, राज्य बदल गये, कितने ही विधर्मी क्रूर शासकों ने तलवार के बल पर हमारी संस्कृति को नष्ट करना चाहा, परन्तु वे उसमें सफल न हो सके।

हमारी संस्कृति के मूल आधारों में आध्यात्मिकता का बहुत बड़ा स्थान है। हम अपने जीवन संबंधी सब कार्यों को आध्यात्मिक ढाँचे में ढाले हुए हैं। हमारे सब सामाजिक नियम आध्यात्मिक भित्ति पर ही खड़े हैं। हमारे स्वास्थ्य पर भी आध्यात्मिक का बड़ा प्रभाव पड़ा है। विभिन्न व्रत आदि का पालन जहाँ आध्यात्मिकता का अंग माना जाता है, वहाँ स्वास्थ्य के लिए भी अत्यन्त हितकर है।

हमारे सामाजिक नियमों में भौतिकवाद को अधिक महत्व नहीं दिया गया। चाहे किसी भी मत का अनुयायी क्यों न हो परमात्मा को सभी मानते हैं।-’आत्मा और परमात्मा एक है’ का सिद्धान्त हमारी संस्कृति को उत्कृष्ट बनाए हुए है। विभिन्न वादों के वर्तमान रहते हुए भी अद्वैतवाद की भावना का ही प्राबल्य है।

हमारी संस्कृति ने भोगादि विषयों को भी आध्यात्मिक रूप दिया। हमारी सुख-भोग की कामना भी निरे भौतिकवाद के सहारे नहीं रही। हमारा देश पारलौकिक उन्नति के साथ ही इहलौकिक उन्नति के लिए भी भले प्रकार कटिबद्ध रहा है। हमारे राजा दिग्विजय द्वारा अपना साम्राज्य स्थापित करते रहे हैं। हमारी संस्कृति का झंडा देश-विदेशों में फहराता रहा है परन्तु, सम्राट बनने की आकाँक्षा में भी हमारे यहाँ धर्म का हाथ था। इस कार्य में गर्व और धर्म समझा जाता था। इस प्रकार के कार्य यज्ञ और अनुष्ठानों के द्वारा आरंभ किये जाते थे।

हमारे यहाँ के सब शुभ कामों में यज्ञ की प्रधानता का रहना इस बात का प्रमाण है कि वे आध्यात्मिकता के आश्रय में भौतिक कार्यों को करते थे। परंतु यह आध्यात्मिक धारणा ही हमें दया और क्षमा की ओर भी प्रेरित करती रही है। शरणागत शत्रु पर हमने कभी भी हाथ नहीं उठाया, निर्बल पर हमने सदा ही दया-भाव रखा। जिसने क्षमा माँगी, उसे क्षमा देने में कभी देर नहीं की गई।

हमने दूसरों के धर्म और संस्कृति के प्रति कभी भी असम्मान प्रदर्शित नहीं किया। हमने विधर्मियों के गिर्जों और मस्जिदों को ढाने की कभी चेष्टा नहीं की। यद्यपि हमारे देवालय गिरा दिये गये उनके स्थान पर मस्जिद आदि बन गयी। परंतु, हमने जिस सहनशीलता का परिचय दिया, वैसा कोई अन्य धर्म वाला नहीं दे सका है।

कट्टर से कट्टर हिंदू भा अद्वैतवाद का पोषक होने के कारण आक्रमणात्मक विचारों का विरोधी रहा है। बलवान होते हुए भी वह नम्र रहता है। परंतु, तलवार के सामने उसने झुकना नहीं सीखा। धोखे से उसे वशीभूत भले ही कर लिया हो, परंतु मैदान में ‘विजय या बलिदान’ में ही उसका विश्वास रहा है।

हमारी संस्कृति में अपने कर्म पर बड़ा विश्वास है ‘हमने जैसा किया, वैसा भोगना ही पड़ेगा’ यह विचार हमारी मानसिक निर्बलता को दूर कर देता है। हम कभी विपत्तियों से विचलित नहीं होते। यद्यपि अपने भोगों की प्राप्ति के निमित्त विभिन्न देवी-देवताओं को मनाते और अनुकूल करने की चेष्टा करते हैं। परंतु, कार्य न बनने पर अपने कर्मों को दोष देते हैं, किसी देवी-देवता को नहीं कोसते।

इस जीवन में प्राप्त होने वाले दुःखों को पिछले जन्मों में किये कर्मों का फल मानते हुए, हम शुभ कर्म करने की प्रेरणा लेते हैं। हम भोगों में लिप्त रह कर भी यथासंभव बुरे काम नहीं करते। किसी के मन को दुखाना उचित न मानते हुए सबको प्रसन्न करने की चेष्टा करते रहते हैं। हमें अपने आत्मबल पर विश्वास रहता है और उससे सदा नवीन शक्ति प्राप्त होती है।

बुरे कर्मों से बचने का एक कारण परलोकवाद का विश्वास भी है। लोगों को नर्क का भय शुभ कर्मों के लिए प्रेरित करता है। इस लोक में किए गए अच्छे कार्यों से परलोक में शाँति मिलती है। जिसने पुण्य कर्मों को अर्जित किया, उसका परलोक सुधर गया।

वैराग्य को ऊँची वस्तु माना जाता है। वैरागी का सभी आदर करते हैं। इस देश में अनेकों तपस्वी, संन्यासी और साधक हुए हैं, जिन्होंने अपनी सिद्धि के बल से जनता का हित-साधन किया और स्वयं मुक्त हो गए। अद्वैत भाव वाले साधक ज्ञान-कर्म के द्वारा मुक्त होने के विश्वास रखते हैं। हमारे दर्शनशास्त्र इस विषय में एक मत हैं कि आत्मा उन्मुक्त होकर परमात्मा बन जाता है। गीता में स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है।

आध्यात्मिक कर्म-व्यवस्था के अनुसार हमारे मन पर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का संसार पड़ा है। हमारे ऋषियों ने कहा है कि धर्म, से ही अर्थ और काम की सम्पन्नता है अर्थात् अधर्मपूर्वक अर्थ संचय और विषय-सेवन अनुचित हैं और यदि धर्म में बुद्धि है तो मोक्ष प्राप्ति भी असंभव नहीं है।

हमारी संस्कृति ने नैतिकता को एक विशेष गुण माना है। जिसमें चारित्रिक दुर्बलता है, उसे अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता। कोई भी व्यक्ति उसे अपने पास बैठाना भी ठीक नहीं समझता। नारी निःसंदेह नारी है, परंतु उसके बहिन और माता वाले रूप को बनाए रखने के लिए सच्चरित्रता अत्यन्त आवश्यक है। सत्यवादिता, शिष्टता और नम्रता भी चरित्र सम्बन्धी गुण ही समझने चाहिए।

वर्णाश्रम व्यवस्था भी हमारी संस्कृति का एक प्रमुख अंग है। प्राचीन ऋषियों ने विभिन्न वर्ण बना कर उनके अनुकूल कार्यों का बटवारा किया। इससे समाज की दशा सुनियन्त्रित रही। आजीविका के अनुसार परस्पर सभी सब के लिए समान उपयोगी रहे।

एक शरीर से चारों वर्णों की उपमा देकर उनके सम्बन्धों को और भी दृढ़ कर दिया गया। ब्राह्मण की उत्पत्ति मुख से, क्षत्रिय की भुजाओं से वैश्य की कटि के, अधोभाग से और शूद्र की पाँवों से बताई गई है। जो महत्व मुख का है, वही पावों का है। समाज रूपी शरीर के इन चारों अंगों में से जिसकी उपेक्षा करोगे, वही कट जायगा। फिर वह शरीर कैसे बना रहेगा ?

भगवान् के जिन चरणों से शूद्रों की उत्पत्ति बताई गई, उन्हीं चरणों से पतितपावनी गंगा जी का भी आविर्भाव हुआ हैं। वही चरण भक्तों की भक्ति के भी केन्द्र रहे हैं। तब शूद्रों में अधर्मता का दोष भी कहाँ ? इसी प्रकार सब वर्णों का, अपने-अपने स्थान पर समान महत्व है, सभी एक दूसरे के आश्रित हैं।

आश्रम व्यवस्था द्वारा मनुष्यों के इहलौकिक और पारलौकिक कृत्यों की सम्पन्नता सुलभता से होती है। इसके द्वारा मनुष्य का व्यक्तिगत जीवन सुव्यवस्थित हुआ। इसका प्रारंभ ब्रह्मचर्याश्रम से होता है, जिसके अनुसार अपने शिक्षा-दीक्षा काल में बालक ब्रह्मचर्यपूर्वक रहता हुआ युवावस्था तक पहुँचता है।

इसके पश्चात् गृहस्थाश्रम का प्रारम्भ होता है। उसमें रहकर मनुष्य धर्मपूर्वक एवं सदाचरण द्वारा अर्थ और काम की प्राप्ति करता है। फिर वानप्रस्थाश्रम और संन्यासाश्रम द्वारा परहित साधना में लगता हुआ मोक्ष-मार्ग पर चल देता है।

हमारे यहाँ सभी कर्मों में संस्कार-विधि प्रयुक्त होती है। संस्कारों द्वारा हम पग-पग पर अपने को पवित्र बनाते रहते हैं। हमारे यहाँ पुँसवन, मुण्डन, विद्याध्ययन, यज्ञोपवीत, पाणिग्रहण आदि षोडश संस्कारों की महत्वपूर्ण व्यवस्था हैं।

गर्भाधान से लेकर मृतक तक के सभी संस्कारों में एक धार्मिक निष्ठा और कर्तव्य की भावना निहित है। यह संसार हमें अपने कर्मों की ओर प्रेरित करते हुए मुक्ति मार्ग की ओर खींच ले जाता है और हमारी निष्ठा हमें आध्यात्मिक कर्मों से संलग्न करती है।

अवतारवाद का सिद्धान्त भी हमारी संस्कृति का एक धार्मिक अंग रहा है। हमारा विश्वास है कि जब जब पृथ्वी पर अधर्म छा जाता और धर्म का लोप हो जाता है, तब-तब ईश्वर पृथ्वी पर प्रकट होकर हमारी रक्षा करते हैं।

हमारी संस्कृति में निराशा को कहीं कोई स्थान नहीं है। वह अपने अनुयायियों को आशावाद की ओर प्रेरित करती रही है। हम आपत्ति, विपत्तियों से कभी भयभीत नहीं होते, क्योंकि हम भगवान् पर भरोसा करके कर्मों में लग जाते हैं।

हमारे धर्म में ‘आत्मवत् सर्व भूतेषु’ और

‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना मनुष्येत्तर देहधारियों के प्रति भी प्रेम प्रदर्शित करती है। हम पशु, पक्षियों को भी दया-भाव से देखते हैं।

अतिथि-सत्कार का हमारे यहाँ बड़ा महत्व रहा है। सभी गृहस्थ पहले अतिथि को भोजन कराते और फिर स्वयं करते थे। अतिथि परिचित, अपरिचित कैसा भी हो, किसी का भी निरादर नहीं होता था।

मृतक कर्मों में अतिथि को भोजन कराने का विधान है। उसके लिए रोटियाँ निकाल कर दी जाती है। श्राद्धादि कर्मों में गौ, अतिथि, काक और श्वान को अन्न-भाग दिया जाता है। यह सब हमारे पशु-पक्षी प्रेम का ही प्रतीक है।

हिंदू धर्म में भी जैन और बौद्ध धर्म कुछ ऐसे चले जिनकी उपास्य और उपासना विधियों में विभिन्नता रही। परंतु परस्पर साम्प्रदायिक संघर्ष की नौबत कभी भी नहीं आई। बल्कि वे दोनों धर्म सनातन धर्मियों के सहयोग से उन्नत हुए। आज अनेक जन धर्मावलम्बी भी राम-कृष्ण और महावीर जी का साथ-साथ पूजन करते हैं।

हमारे धर्म में स्वार्थ भावना को प्रश्रय नहीं दिया गया। हमारी संस्कृति हिन्दुस्तान का ही नहीं, बल्कि अखिल विश्व की कल्याण-कामना करती है। वह मनुष्यों को ही नहीं, सभी प्राणियों को सुखी देखना चाहती है। उसने मानव जाति को प्रेम, विश्वास और उदारता का संदेश दिया है।

हमारे प्रेम-भाव का ही यह प्रभाव है कि यहाँ मुस्लिम शासन काल में ही मुसलमान कवियों ने राम और कृष्ण से सम्बन्धित कविताएं रचीं, मुस्लिम भक्तों ने भी कृष्ण की उपासना की। यहाँ राम और रहीम में कुछ भी अंतर नहीं माना जाता और अंत में गाँधीजी ने ‘ईश्वर अल्ला एक हि नाम’ वाला मंत्र देकर संसार की आंखें खोल दीं कि भारतीय संस्कृति में सम्प्रदायवाद को किंचित भी स्थान नहीं है।

दैवी-विधान और मनुष्य की स्थिति

संसार की प्रत्येक घटना, क्रिया-कलापों का संचालन एक नियत विधान के अनुसार ही होता है, जिसे प्राकृतिक, ईश्वरीय विधान, कुछ भी कहें। इस विधान की प्रेरणा से सृष्टि का जर्रा-जर्रा गतिशील है। इस विधान के अनुकूल चलने पर ही सुख सुविधा, सहयोग, प्रगति, विकास निश्चित है। इतना ही नहीं उस दिशा में मनुष्य प्रयत्न करके विशेष गति और स्थिति, प्राप्त कर सकता है। किंतु प्रतिकूल दिशा में चल कर तो संघर्ष, अशाँति, कष्ट, दुःख, पराजय के सिवा और कुछ नहीं मिलता। इससे उल्टी-अपनी शक्तियाँ व्यर्थ ही नष्ट होती हैं और मनुष्य-प्रगति की ओर न चलकर अवनति के गर्त में गिरता जाता है - पिछड़ जाता है। शास्त्रकारों ने इसी दैवी विधान के अनुकूल आचरण करना पुण्य और इसके प्रतिकूल चलना पाप कहा है। इसी तथ्य की कसौटी पर परीक्षण करने वाले जीवन विद्या विशारदों में-महापुरुषों ने कहा है “बुराई का परिणाम सदैव बुरा ही होता है। दुष्कर्म, कुचिन्तन, दुर्भावनाओं का परिणाम सदैव दुःखदायी ही होता है।” क्योंकि ये सब विश्व विधान के विरोधी, अनैतिक तत्व हैं।

विवेक-हीनता और अज्ञान से प्रेरित मनुष्य जब विश्व-प्रवाह, प्रकृति की विकास यात्रा के अनुकूल नहीं चलता तो प्रकृति उसे एक न एक दिन ठोक पीटकर उस ओर चलने को बाध्य कर ही देती है। जब मनुष्य बाह्य आकर्षणों में अपने लक्ष्य, पथ को भूल जाता है तो उसे प्रकृति के थपेड़े खाने ही पड़ते हैं। यह निश्चित तथ्य है कि स्वार्थ, क्षणिक सुखोपभोग, समृद्धि आदि अस्थायी, क्षणभंगुर हैं फलतः इनका पर्यवसान अनन्त दुःख में ही होता है। इन्द्रिय लोलुप व्यक्ति कई मानसिक और शारीरिक रोगों के शिकार हो जाते है, स्वार्थी लोभी, लालची लोग हृदय रोग उदर विकार, रक्त दोष आदि से पीड़ित हो जाते है। इसके साथ ही बाह्य जीवन की परिस्थितियों का गठन इस तरह हो जाता है जिसमें विश्व नियम के विरुद्ध चलने वाले को बार-बार ठोकरें लगती हैं, कष्टों से गुजरना पड़ता है। जनमन का, समाज का विरोध और तिरस्कार सहना पड़ता है। मनुष्य की समृद्धि शक्ति, उसका वैभव ऐश्वर्य सुख साधन उसे इन आन्तरिक एवं बाह्य प्रताड़ना, पीड़ा, झटकों से नहीं बचा सकते और बार-बार इस तरह की होने वाली शारीरिक मानसिक पीड़ा की अनुभूति-दुःख द्वन्द्वों की प्रतिक्रिया कालान्तर में मनुष्य की बुद्धि को स्थायी सुख नित्यानंद करने के लिए बाध्य कर ही देती है। और तब मनुष्य विश्व-नियम, दैवी-विधान, को समझने, सोचने और उसे जीवन में उतारने की दिशा में प्रयत्न करने लगता है। दुःख द्वन्द्वों की यह मार, कष्टानुभूति की यह कड़वी प्रतिक्रिया तब तक शान्त नहीं होती जब तक मनुष्य अपने जीवन के सही तथ्य को पाकर उस पर आचरण करना प्रारम्भ न कर दे। इस तरह विचारपूर्वक देखा जाय तो दुःख पीड़ायें, कष्टानुभूतियाँ कोई दण्ड नहीं हैं अपितु प्रकृति की, ईश्वरीय विधान की एक सुधार प्रक्रिया है।

मनुष्य के अनेकों मानसिक दोषों का मूल जिम्मेदार उसका अहंकार होता है। नीतिकारों ने अभिमान को समस्त पापों का मूल बताया है। अभिमान की छत्र-छाया में ही अनेकों मानसिक दोष पनपते हैं बढ़ते हैं और फैलकर मनुष्य के आन्तरिक जीवन को अस्त-व्यस्त असन्तुलित कर देते हैं और इसी की छाया स्वरूप जीवन के बाह्य पर्दे पर भी उल्टे काम, उल्टा व्यवहार, होने लगता है। किन्तु प्रकृति भी अभिमान को जड़ से खत्म किए बिना नहीं छोड़ती। देखा जाता है कि गिरे हुए उठते हैं और ऊपर चढ़े हुए गिरते हैं।

वैज्ञानिक अन्वेषणों से यह मालूम हुआ है कि हिमालय पहाड़ किसी समय समुद्र में डूबा हुआ था। ऊपर की चोटियों पर प्राप्त मछलियों, जलचरों के अवशेषों से यह सिद्ध भी हो गया है। इसी तरह हिन्द महासागर में एक पूरे का पूरा महाद्वीप ही डूबा हुआ है। स्थूल-जीवन, बाह्य संसार परिवर्तनशील हैं अभिमान का आधार भौतिक विशेषताओं में ही होता हैं। अतः एक न एक दिन भौतिक समृद्धि, सम्पन्नता शक्ति आदि पर खड़ा अभिमान का महल स्वतः ही धराशायी हो जाता है। आज जो गिरे हुए हैं कल उठेंगे। जो आज अपने को ऊपर उठे हुए जान रहे हैं उनका एक दिन गिरना भी निश्चित ही है। इस तरह उन्नति, अवनति, उत्थान पतन दोनों तरह की परिस्थितियों में समत्व रखने की शिक्षा प्रकृति देती रहती है। प्रकृति के इस रहस्य को समझने वाला व्यक्ति कभी अभिमान के मादक खुमार से मदहोश नहीं हो सकता।

शरीर के अंदर के विकारों का शमन करने के लिए प्रकृति शरीर में जो प्रतिक्रिया पैदा करती है उसके फलस्वरूप कई रोग फोड़े, फुन्सी, चेचक, बुखार, दस्त, उल्टी, दर्द आदि उत्पात होते हैं। वस्तुतः यह सब शरीर के विजातीय द्रव्यों को निकाल बाहर करने के प्रभाव मात्र हैं। किसी तरह का अत्यधिक कष्ट होने पर प्रकृति माता चेतना को ही शाँत कर देती है ताकि मनुष्य असहाय वेदना से पीड़ित न हो। किसी तरह का जबर्दस्त शारीरिक एवं मानसिक आघात लगने पर मनुष्य बेहोश, अचेत हो जाता है ! लोग इन सबको रोग, अभिशाप आदि समझते हैं, भगवान को कोसते है। किंतु हम यह नहीं सोचते कि यह सब प्रकृति माता का कितना बड़ा उपकार है हम लोगों पर, अन्यथा कष्टदायक वेदना और दोषों के भण्डार दूषित शरीर की क्या स्थिति होती इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है।

प्रकृति बहुत हद तक शरीर के दोषों को दूर करने का प्रयत्न करती है किंतु मनुष्य जब उससे कोई सहयोग नहीं करता और दूषित आचरण करके उसके नियमों का उल्लंघन ही करता जाता है तो वह जीर्ण-शीर्ण शरीर छीन लेती है और आत्मा को नया शरीर प्राप्त करने के लिए फिर से स्वतन्त्र कर देती है। जिसे हम मृत्यु कहते हैं, क्या वह प्रकृति माता का अमूल्य वरदान नहीं है जिसमें हम जीर्ण-शीर्ण, असमर्थ, आरोग्य शरीर को त्यागकर नये शरीर की प्राप्ति के हकदार बन जाते है?

शारीरिक विकारों की तरह ही मानसिक विकार, चिन्ता कुढ़न कुविचार दुर्भाग्य आदि का भी प्रकृति अपने ढंग से निवारण करती है। मनुष्य जिस बात से चिन्तित अथवा भयभीत होने लगता है उसके जीवन में उसी तरह की परिस्थितियाँ बार बार रहकर मनुष्य उनका ऐसा अभ्यासी हो जाता है जिससे पूर्व भय और चिन्ता शेष नहीं रहते। इसी तरह स्वप्नों के माध्यम से भी मनुष्य के मानसिक भावों का रेचन हो जाता है। जैसे स्वप्न देखे जाते हैं वैसे भावों का रेचन भी हो जाता है। काम विकास जन्य दूषित भाव स्वप्न में व्यक्त होकर क्षीण हो जाते हैं। स्वप्न में भूत को बार-बार देखने वाले भूत के भय से मुक्त हो जाते हैं। हिंसक पशुओं के संपर्क में आने पर तज्जन्य भय का निवारण हो जाता है। गन्दे स्वप्न देखने पर गन्दे भावों का रेचन हो जाता है। स्वप्न में अपनी मृत्यु का दृश्य देखने वाले मृत्यु की चिन्ता से मुक्त हो जाते हैं। यदि सूक्ष्म निरीक्षण करके देखा जाय तो मालूम होगा मनुष्य जिस विषय के स्वप्न देखता है वह उठने पर उस विषय में अपने आपको हल्का, स्वस्थ महसूस करता है। प्रकृति माता मनुष्य की मानसिक गुत्थियों, विषमताओं को विभिन्न अनुभूतियों के माध्यम से सुलझाती रही है, चाहे यह कार्यक्रम दृश्य हो अथवा अदृश्य, बाह्य जगत में हो या स्वप्न जगत में।

बाह्य जीवन की परिस्थितियों, बीमारियों विषमताओं का स्वरूप ही प्रकृति की एक सुधारात्मक प्रक्रिया है। प्रत्येक मनुष्य के जीवन में इस तरह की सुधारात्मक, दोष निवारक परिस्थितियाँ, वातावरण, परिणाम समयानुसार अवश्य ही मिलते हैं। यह सब एक ठीक-ठीक नियम, व्यवस्था, के अनुसार होता रहता है। अहंकारी, शक्तिशाली, गर्व में चूर दुर्योधन जब अपनी अनीतियों से बाज नहीं आया तो उसे अपनी ही आँखों अपना सर्वस्व नष्ट भ्रष्ट होते देखना पड़ा और बड़ी असहाय अवस्था में शरीर छोड़ना पड़ा। महाबली रावण का दर्प अहंकार उस समय नष्ट हो गया जब उसका सारा वैभव नष्ट हो गया और वह असहाय घायल अवस्था में रणभूमि में पड़ा था। जिसने बड़े−बड़े देवों पर विजय पाकर उन्हें बन्दी बना छोड़ा था, उसे दो क्षत्रिय पुत्रों ने कुल सहित नष्ट कर दिया। विश्व विजयी सिकन्दर महान अपनी अपार सम्पत्ति के होते हुए भी छटपटाता हुआ मरा और उसे कोई न बचा सका। उसका दर्प अहंकार मिट्टी में मिल गया। दुनिया की खुली पुस्तक में दैवी विधान की इस सुधार प्रक्रिया का पाठ सरलता से पढ़ा जा सकता है।

दुनिया से छिप कर अपने दुराचरण, पाप अन्याय, अनीति का खेल खेलने वाले, समाज और राजनीति की आँख में धूल झोंक सकते हैं। अदालतों में झूँठे प्रमाणों से अनुकूल न्याय प्राप्त कर सकते हैं। चमक-दमक पूर्ण कीमती पोशाक और समृद्धि की चकाचौंध से अपने असली स्वरूप को छिपा सकते हैं, दूसरों को चालाकी से अपना बड़प्पन जता सकते हैं। किन्तु विश्व विधायक की नजर से वे नहीं बच सकते। वहाँ उनका तर्क प्रमाण, बुद्धि, चातुर्य सब धरा ही रह जाता है। छलबल, दम्भ, समृद्धि आदि कोई भी उसे नहीं बचा पाते।

दुराचारी अपनी बाह्य सफलताओं के झूठे अभिमान से स्वयं ही ऐसी परिस्थितियों का निर्माण कर लेता है कि जिनमें कष्ट, मुसीबतों, दुःखों का सामना करना पड़ता है, उसका मनोबल नष्टप्रायः हो जाता है जिससे जीवन के विभिन्न पहलुओं में उसे पराजय का सामना करना पड़ता है। गुब्बारे की तरह फूला हुआ अभिमान तनिक सी कष्टकारक, अपमानजनक, परिस्थितियों की ठेस लगते ही फट जाता है और तब उसे अपनी असलियत का पता चलता है। स्वेच्छाचार दर्प अभिमान नष्ट होकर मनुष्य अपने को सामान्य श्रेणी में अनुभव करता है। यह सब ठीक उसी तरह नियमबद्ध होता है जैसे ऋतुओं का आना, दिन रात का होना आदि।

छिपे -छिपे पाप करने वाले कष्ट साध्य मानसिक रोगों से पीड़ित हो जाते हैं। उनके आसपास का वातावरण इस तरह का बन जाता है जिससे उन्हें दुःखदायी यन्त्रणायें सहन करनी पड़ती है। ऐसे लोग शान्ति से नहीं रह पाते। चैन से खा नहीं सकते न सुख की नींद सो सकते हैं। इस तरह अन्तर्बाह्य सर्वत्र दुःख क्लेश अशान्ति पीड़ादायी यन्त्रणायें मनुष्य को वास्तविक सुख और सत्य की खोज के लिए बाध्य कर देती हैं। जब मनुष्य दैवी विधान के अनुसार मिली ताड़ना, दण्ड कष्टों से भी नहीं सुधरता तो प्रकृति उसे चैन से जीने भी नहीं देती और एक दिन जीने का अधिकार भी उससे छीन लेती है।

संसार एक नियत विधान, नियम द्वारा संचालित और प्रेरित है। संसार का प्रत्येक कण, उसकी गतिशीलता, स्थिति, सम्वर्धन सब उसी नियम के अंतर्गत चलते हैं और यह विश्व नियम सदैव एक सा, अचल और सार्वभौम है। इसके प्रवाह की अनुकूल दिशा में बहकर मनुष्य विकास प्रगति की ओर अग्रसर हो सकता है। विशेष प्रयत्न करने पर वह विशेष स्थिति भी प्राप्त कर सकता है। जैसे नदी के प्रवाह में पड़ जाने पर मनुष्य उलटता-पुलटता बहता चला जायगा।

यदि वह हाथ पैर हिलाये तो अपनी विशेष स्थिति बना सकता है।

संक्षेप में विश्व नियम पुरोगामी, रचनात्मक सृजनात्मक, सत्य, प्रेम, न्याय पर आधारित है। संसार में फैली विकृतियाँ, विपरीतता, अन्याय आदि मनुष्य द्वारा पैदा किए गये हैं और इसी कारण मनुष्य सर्वाधिक दुखी परेशान भी है। आवश्यकता इस बात की है कि शाश्वत नियम, सिद्धान्तों, आदर्शों का अवलम्बन लेकर जीवन को पुरोगामी बनाया जाय तो मानव जीवन अनन्त आनन्द सुख का उद्गम बन जायगा। इसके विपरीत विश्व नियम की प्रतिकूल दिशा में चलना प्रकृति का कोपभाजन बनना है, जिससे जीवन में दुख, कष्ट, परेशानी, रोग, शोक, भय, ताप यन्त्रणाओं का सामना करना पड़ता है, जो वस्तुतः प्रकृति की एक सुधार प्रक्रिया ही है।


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