गायत्री की उच्चस्तरीय उपासना, पंचकोशी साधना के नाम से विख्यात है। साधारण प्राथमिक उपासना में एक मुखी और द्विभुजी गायत्री का ध्यान किया जाता है। सद्बुद्धि एक मुख है और जप, ध्यान-नाम रूप-उसकी दो भुजाएँ हैं। ज्ञान की प्रतीक, सद्भावनाओं की प्रेरक श्रद्धामयी गायत्री को हिन्दू-धर्म के प्रत्येक सदस्य का एकमात्र उपासना माध्यम माना गया है। सृष्टि के आदि से लेकर अब तक के सभी आस्थावान धर्मज्ञ गायत्री उपासना के माध्यम से साधना करते हुए जीवन-लक्ष्य की पूर्ति के लिए-आत्मोत्कर्ष के लिए-प्रयत्नशील रहे है।
गायत्री महामंत्र के 24 अक्षरों द्वारा परब्रह्म परमात्मा के सद्गुणों का ध्यान करते हुए उससे सद्बुद्धि की याचना की गई है। इसका तात्पर्य यह है कि हम परमात्मा के सद्गुणों को अपने जीवन में उतारें और अपने मस्तिष्क में सद्विचार एवं हृदय में सद्भावनाओं को अवतीर्ण करें। गायत्री उपासना का वैज्ञानिक आधार यह है कि इस शब्द-समूह का जप, ध्यान, चिन्तन, मनन करते रहने से अन्तःकरण में सत् तत्व की अभिवृद्धि होती हैं। इसलिये अन्तःकरण में आवश्यक सत्प्रेरणाएँ भी उद्भूत होने लगती हैं।
जप के साथ ध्यान करने से एकाग्रता बढ़ती है और तन्मयता की परिपुष्टि होती है। मन का निग्रह भी होता है और इस निग्रह के फल-स्वरूप आत्मबल का विकास सम्भव होता है। इस विकास से अनेक लौकिक और पारलौकिक सुख सुविधाएँ प्राप्त होने के अवसर मिलते हैं और आन्तरिक शक्ति सामर्थ्यों की अभिवृद्धि होने लगती है। इन्हीं को ऋषि-सिद्धि के नाम से भी पुकारते हैं। गायत्री उपासना मनुष्य की लौकिक और पारलौकिक प्रगति में निश्चय ही बहुत सहायक सिद्ध होती है। सर्व साधारण के लिए जिस गायत्री उपासना की आवश्यकता है, उसका उल्लेख गायत्री महा विज्ञान ग्रन्थ के प्रथम खण्ड में किया जा चुका है। जप और ध्यान ही उसके प्रमुख आधार हैं। विशेष शक्ति प्राप्ति के लिए अनुष्ठानों का आयोजन किया जाता हैं। किन्हीं विशेष अभाव या कष्टों की निवृत्ति के लिए बीज मंत्र समेत जप के विशेष विधान है। ऐसे विशेष आयोजनों के अन्त में हवन भी करना पड़ता है।
गायत्री की उच्चस्तरीय साधना एक प्रकार का योगाभ्यास है। घर-गृहस्थी में रहते हुए, साधारण काम काज करते हुए, योगी और तपस्वियों की तरह आन्तरिक स्तर को उच्च भूमिका में विकसित करने के लिए श्रद्धावान साधक इस मार्ग को अपनाते हैं। इस विशेष उपासना क्रम को “पंचकोशी गायत्री साधना” इसलिए कहते हैं कि इसमें आत्मा के ऊपर वस्त्रों की तरह चढ़े हुए पाँच कोशों का अनावरण करना पड़ता है। प्रत्येक कोश की अपनी-अपनी विशेषता है उसके अनावरण एवं जागरण से आत्म-शक्ति की विशिष्ट अभिवृद्धि होती है और साधक साधारण मनुष्य न रह कर अनेक दृष्टियों से असाधारण बनने लगता है।
जिस प्रकार प्याज में एक के भीतर एक पर्त होते हैं। केले के तने में एक के ऊपर एक आवरण रहता है इसी प्रकार आत्मा के ऊपर भी (1) अन्न मय कोश, (2) मनोमय कोश, (3) प्राणमय कोश, (4) विज्ञानमय कोश, (5) आनन्दमय कोश-चढ़े हुए हैं। इनमें से एक-एक चक्र माना गया है। अन्नमय कोश का प्रतिनिधि आज्ञा-चक्र भू-मध्य भाग में उपस्थित है। मनोमय कोश का अधिष्ठाता शून्य-चक्र मस्तक के मध्य में, प्राणमय कोश का प्रतीक विशुद्ध-चक्र कण्ठ में, विज्ञानमय कोश का प्रतीक अनाहत-चक्र हृदय में और आनन्दमय कोश का प्रतिनिधि स्वाधिष्ठान-चक्र पेडू में रहता है। पाँच कोशों के अनावरण की साधना इन पाँच चक्रों को जागृत करती है और फिर योगाभ्यास का अन्तिम लक्ष्य “कुण्डलिनी जागरण” के लिए नितान्त सरल हो जाता है।
मल द्वारा और मूत्र द्वार के मध्य में जो थोड़ा-सा खाली स्थान रहता हैं जिसमें कपड़ों को मिला कर बनाई हुई सीवन की तरह जोड़ जैसा प्रतीत होता हैं, उसके मध्य भाग में मूलाधार-चक्र का निवास है। छठवाँ चक्र यही है। एक तिकोने कर्म परमाणु में इसी स्थान सर्पिणी की तरह साड़े तीन घेरे लगाती हुई कुण्डलिनी नामक विद्युत-शक्ति निवास करती है। जान वुडरफ नामक विद्वान ने इसका “सर्पेण्टल पावर” नाम से उल्लेख किया है। इस शक्ति के जागरण से आत्मिक क्षेत्र में पड़ी हुई अगणित प्रसुप्त शक्तियाँ भी जागृत हो उठती हैं। और साधक उन सभी विशेषताओं से सम्पन्न बन जाता है जो योगाभ्यासियों को पूर्णावस्था में उपलब्ध होती हैं।
पंचकोशी साधना करने से पाँच चक्र जागृत होते हैं। इसके अनन्तर छठवाँ चक्र कुण्डलिनी चक्र ही होता है। यह लक्ष्य का अन्तिम स्थल है। पाँच कोशों के, पाँच द्वार के खुल जाने के बाद यह छठवाँ लक्ष्य स्थान सामने आ उपस्थित होता है और फिर उसे साधारण प्राण प्रक्रिया से ही जागृत किया जा सकता है। कभी-कभी कोई कोई तेजस्वी सिद्ध पुरुष अपनी शक्तिपात करके किन्हीं साधकों की कुण्डलिनी जागृत कर देते हैं, पर वे सब होते वे ही हैं जिन्होंने इस जन्म में अथवा पूर्व जन्म में पाँचों को जागृत कर लिया होता है। नये साधक की कुण्डलिनी कोई तेजस्वी सिद्ध पुरुष भी अपने शक्तिपात से जागृत नहीं कर सकता। इसके लिए पूर्व पुरुषार्थ अपने को ही करना पड़ता है। पाँचकोशों की अनावरण उपासना प्रायः प्रत्येक आत्म-लक्ष्य की प्राप्ति करने के इच्छुक को करनी पड़ती है।
षटचक्रों के जागरण की अन्य विधियाँ भी हैं। हठ-योग अथवा तंत्र-योग के माध्यम से भी वैसा हो सकता है। पर उसमें कठिनाइयाँ अधिक हैं। इन मार्गों पर चलने वाले को विरक्त, ब्रह्मचारी, हठयोगी या अघोरी, कापालिक ऐसी गति-विधियों अपनानी पड़ती हैं और जीवन-क्रम उसी ढाँचे में ढालना पड़ता है। गायत्री उपासना के माध्यम से पंचकोशों का जागरण और चक्रों का बेधन सब से सरल है। उसे साधारण स्थिति का गृहस्थ, कामकाजी आदमी थोड़े से सरल नियमों का पालन करते हुए, एक-दो घन्टे रोज साधना के लिए निकालते हुए प्रायः दस वर्षों में पूरा कर लेता है जब कि हठयोग या तंत्र-योग के मार्ग पर चलते हुए सारा जीवन लगाना पड़ता है और कोई थोड़ी-सी भी असावधानी होने पर प्राणघातक परिणाम भी निकल सकता है पर गायत्री उपासना के माध्यम से पंचकोशी साधना का मार्ग सर्वथा निर्दोष है। इसमें लगातार भूलें होते रहने पर भी खतरे की रत्ती भर संभावना नहीं है। हानि इतनी ही हो सकती है कि अनियमितता करने वाले को लाभ कम मिले।
गायत्री की उपलब्ध प्रतिमाओं में एक वे मिलती है, जिनमें एक मुख दो भुजाओं का चित्रण है। दूसरी वे मिलती हैं जिनमें पाँच मुख और दस भुजाएं है। पाँच मुख अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय, आनंदमय कोश ही हैं। इनके खुलते ही गायत्री की उच्च स्तरीय अनुभूतियाँ उपलब्ध होती हैं। दस भुजाओं, दसों इन्द्रियों के नियंत्रण द्वारा प्राप्त होने वाली प्रचण्ड-शक्ति का संकेत करती हैं। उपासना का पथ इस संयम से ही प्रशस्त होता है। पंचकोशी उपासना का मर्म संकेत एवं महत्व पंचमुखी गायत्री प्रतिमाओं में प्रदर्शित किया गया है। यह स्पष्ट है कि इस मार्ग में जिन्हें कुछ विशेष अनुभूतियाँ प्राप्त करनी होती है। यों साधारण गायत्री जप, ध्यान तो सब के लिए उपयोगी एवं आवश्यक है ही।
गत दो वर्षों से अखण्ड-ज्योति के अक्टूबर अंक में एक वर्ष का पंचकोशी गायत्री उपासना क्रम प्रकाशित किया जा रहा है। दस वर्ष में यह पाठ्यक्रम पूरा किया जाना है। दो वर्ष बीत गये। तीसरा वर्ष यह आरम्भ होता है। इस वर्ष का पाठ्यक्रम सितम्बर, अक्टूबर, नवम्बर के तीन अंकों में दिया जा रहा है। एक ही अंक एक विषय का बन जाने से उन लोगों को असुविधा रहती थी जिन्हें अन्य विषयों में विशेष अभिरुचि रहती है। इसलिए तीन अंकों में इस वर्ष का पंचकोशी पाठ्यक्रम दिया जा रहा है। आगे हर अंक में गायत्री विद्या का उच्च स्तरीय प्रशिक्षण देने वाले लेख रहा करें, ऐसी व्यवस्था की गई है।
प्रारम्भिक उपासकों को गायत्री जप और ध्यान के माध्यम से अपना भूमि-शोधन क्रम धैर्य-पूर्वक जारी रखना चाहिए। जमीन को जब तक ठीक प्रकार जोता न जायेगा तब तक उसमें अच्छी फसल उत्पन्न न हो सकेगी। इसलिये जोतने की क्रिया का अपना महत्व है। एक मुखी आरम्भिक उपासना का अपने स्थान पर काफी महत्व है परन्तु लक्ष्य तक पहुँचने के लिए वहीं तक सीमित रह जाना ठीक नहीं। आगे न बढ़ने से प्रगति रुकी ही रहेगी। सदा खेत जोतते रहने से भी क्या बनेगा? (1) बीज बोना, (2) सींचना, (3) नराना, (4) रखवाली करना, (5) काट मीड़ कर दाने निकालना - यह पाँच क्रियाएँ भी चतुर किसान को करनी ही होती हैं। इसके बिना अन्न उत्पादन का लक्ष्य पूरा नहीं होता। पंचकोशों की अनावरण प्रक्रिया किसान के उपरोक्त पाँच कर्मों के ही समान हैं जो साधक श्रद्धापूर्वक इन्हें अपनाते हुए आगे बढ़ते हैं वे गायत्री उपासना के महान महात्म्य का, जैसा शास्त्रों में वर्णन है, वैसा ही लाभ प्राप्त करते हैं।