मन और उसका निग्रह

September 1963

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मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति मन है। मन के आधार पर ही उसका उत्थान और पतन निर्भर रहता है। उस महान शक्ति का महत्व हम समझें तो जीवन में स्वर्गीय सुख -शान्ति अवतरित हो सकती है। इस सम्बन्ध में शास्त्रकारों और ऋषियों ने बहुत ही मार्मिक निर्देश दिये हैं।

चित्तायत्त मिदं सव्र जगत्स्थिरचराचरात्मकम्।

चित्ताधीनवतो राम बन्धमोक्षावपिस्फुटम्॥

- योगवशिष्ठ 3 । 98। 3

यह सारा जड़ चेतन जगत चित्त के ही अधीन है। हे राम, बन्धन और मोक्ष भी चित्त के ही वश में हैं।

मन एव मनुष्याणाँ कारणं बन्ध मोक्षयोः।

चित्ते चलति संसारो निश्चले योग उच्यते॥

मन ही मनुष्य के बन्धन और मोक्ष का कारण है। चित्त के चलने में ही यह सारा प्रपंच, संसार है और चित्त के स्थिर होने से मोक्ष है।

मनः सर्वमिदं राम तस्मिन्नन्तश्चिकित्सिते।

चिकित्सतो वै सकलो जगज्जालामयो भवेत्॥

-योग वशिष्ठ 4। 4। 6

हे राम, मन ही सब कुछ है। मन की चिकित्सा कर लेने पर संसार के सब रोगों की चिकित्सा हो जाती है।

पूर्ण मनसि सम्पूर्ण जगर्त्सव सुधा द्रवैः।

उपानद् गूढ़े पादस्य नानुचर्यास्तृतैव भूः॥

-योग वशिष्ठ 5। 121। 14

मन यदि पूर्ण हो गया तो सारा संसार अमृत से परिपूर्ण दीखेगा। पैर में जूता पहन लेने से सारी पृथ्वी चमड़े से ढकी हुई प्रतीत होती है।

सर्वेषामुत्तम स्थानाँ सर्वासाँचिर संपदाम्।

स्वमनो निग्रहो भूमिर्भूमिः सस्यश्रियामिव॥

-योग वशिष्ठ 5। 53। 35

सब उत्तम परिस्थितियाँ, सब श्रेष्ठ चिर संपदाएं मन के निग्रह से उसी प्रकार प्राप्त होती हैं जैसे अच्छी भूमि से अब अन्न प्राप्त होते हैं।

मनः प्रमादार्द्वधन्ते दुःखानि गिरि कूटवत्।

तद्वशादेव नश्यन्ति सूर्यस्याग्रे हिमं यथा॥

- योग वशिष्ठ 3। 99। 43

मन के प्रमाद से ही दुख पर्वत की चोटी के समान बढ़ते हैं और मन की विवेकशीलता से वे ऐसे ही नष्ट हो जाते हैं जैसे सूर्य की धूप से बर्फ नष्ट होती है।

आनन्दी वर्धते देहे शुद्धे चेतसि राघव।

- योग वशिष्ठ 6। 81। 21

हे राम, चित्त शुद्ध होने से देह का आरोग्य, आनन्द भी बढ़ता है।

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत।

आत्मैवह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥

बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मनोजितः।

अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्॥

-गीता

स्वयं ही अपना उद्धार करना चाहिए। अपने आपको गिरावे नहीं। मनुष्य स्वयं अपना शत्रु है। जिसने अपने आपको सँभाल लिया वह स्वयं ही अपना मित्र है और जिसने अपने आपको पतित किया वह स्वयं ही अपना शत्रु है।

यतोनिर्विषयस्यास्य मनसो मुक्ति रिष्यते।

अतो निर्विषयं नित्यं मनः कार्य मुमुक्षुणा॥

मन का निर्विषय होना मुक्ति है। इसलिए बंधन से मुक्ति की इच्छा करने वालों को अपना मन निर्विषय करना चाहिए।

तावदेव निरोद्धव्यं यावद्धदि गतं क्षयम्।

सतज् ज्ञानं च ध्यानं च शेषोऽन्यो ग्रन्थ विस्तरः॥

- विष्णु पुराण 6। 7। 28

मन का तब तक निरोध करे जब तक कि हृदय की वासनाएँ नष्ट न हो जायं। यही ज्ञान है, यही ध्यान है और तो सब शास्त्र विस्तार है।

बन्धाय विषययाक्ति मुक्तयै निर्विषयं मनः॥

विषयों में ग्रस्त मन बन्धन का आधार है और निर्विषय मन मुक्ति का हेतु है।


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