अनधिकार चेष्टा

September 1963

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एक बार काशी नरेश ने एक महोत्सव का आयोजन किया। उसमें अनेक सम्भ्रान्त अतिथियों के अतिरिक्त चार देव-पुरुष भी पधारे।

चारों के पास दिव्य पुष्पों से बनी मालाएं थी। वे इतनी महक रही थीं कि उनकी सुगन्ध से सारा नगर सुवासित हो गया उन मालाओं को देखने सारा नगर उमड़ पड़ा।

दर्शकों ने देव पुरुषों से अनुरोध किया कि यह मालाएं मनुष्यों को दे जायँ तो उस सुगन्ध का लाभ इस लोक के निवासियों को भी मिलता रहेगा। आप तो अपने लोक में ऐसी मालाएँ और भी प्राप्त कर लेंगे।

देव-पुरुषों ने लोगों को बताया कि इन्हें केवल गुणवान लोग ही धारण कर सकते हैं। सदाचरण से रहित होने पर भी जो इन्हें धारण करेगा वह अपार कष्ट भोगेगा।

लोभ के वशीभूत हो राज पुरोहित ने सोचा कि मैं अपने को भद्र पुरुष बता कर यह माला प्राप्त कर लूँ तो सब लोग मेरी प्रशंसा करेंगे और श्रेष्ठ भी मानेंगे। अज्ञात आचरणों को जानता भी कौन हैं?

राज पुरोहित ने देव पुरुषों से पूछा कि किन गुणों के होने पर मनुष्य यह माला प्राप्त कर सकते है?

जेष्ठ देव-पुरुष ने कहा-”जो किसी के अधिकारों का अपहरण नहीं करता, अपनी न्यायोपार्जित कमाई पर ही संतोष करता है, असत्य नहीं बोलता और ऐश्वर्यवान होने पर भी प्रमाद नहीं करता, वह माला ले सकता है।” राज पुरोहित ने अपने में वैसे ही गुण बताया और पहली माला लेली। दूसरे देव-पुरुष ने कहा-”जिसका चित्त धर्म में अविचल हो, जिसका हृदय श्रद्धा से भरा रहे जो दूसरों को बाँट कर अपनी कमाई खाता हो, वह मेरी माला भी ले सकता है।”

पुरोहित ने अपने को वैसा ही बताया और दूसरी माला भी लेली।

तीसरे देव-पुरुष ने कहा-”जो परनारी का चिन्तन न करता हो, दुखियों को देख दया से व्यथित हो उठता हो, सरलता और सज्जनता जिसमें कूट-कूट कर भरी हो वह मेरी भी माला ले सकता है।” पुरोहित ने अपने को वैसे ही बताया और वह तीसरी माला भी लेली।

तीसरे देव-पुरुष ने कहा-”जो परनारी का चिन्तन न करता हो, दुखियों को देख दया से व्यथित हो उठता हो, सरलता और सज्जनता जिसमें कूट-कूट कर भरी हो वह मेरी भी माला ले सकता है।” पुरोहित ने अपने को वैसे ही बताया और वह तीसरी माला भी लेली।

देव-पुरुष वह मालाएं देकर अपने लोक को चले गये। पुरोहित ने गर्वपूर्वक उन्हें धारण किया और विपुल कीर्ति का स्वामी बनने के लिए गर्व करता हुआ राज सभा में पहुँचा।

उन दिव्य मालाओं को धारण किये कुछ समय ही बीता होगा कि राज पुरोहित के सिर में भयंकर पीड़ा होने लगी। ऐसा लगा मानों उसका मस्तक कोई कुल्हाड़ी से काट रहा हो। पाप उसके सिर पर चढ़कर बोलने लगा- “लोगों ! मैंने अधिकारी न होते हुए भी विपुल प्रशंसा प्राप्त करने का हठ किया और अब उसका मर्मान्तक प्रतिफल भोग रहा हूँ।”

मालायें उतारते न उतरती थी। वह इस तरह गले में लिपट गई मानों नाग-पाश ने कण्ठ को कस लिया हो। पुरोहित को सात दिन इसी भयंकर पीड़ा को सहते हो गये। देखने वालों से उसका दुख देखा नहीं जाता था।

अमात्यों के परामर्श से राजा ने फिर वैसा ही आयोजन किया जिसमें वे चारों देव-पुरुष पुनः आमन्त्रित किये गये। पाखण्डी पुरोहित पीड़ा से संत्रस्त उलटा मुँह किये पड़ा था। देव-पुरुषों ने करुणा से द्रवित होकर माला लौटा कर उसका दुख दूर किया और उपस्थित सभासदों से कहा- अयोग्य होते हुए भी जो विपुल प्रशंसा प्राप्त करने का लालच करते है उनकी दुर्गति ही होती है।


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