युग निर्माण आन्दोलन

September 1963

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बहरायच जिले में सद्भावना यात्रा

प्राचीन काल में साधु ब्राह्मण परिव्राजक बनकर घर-घर, गाँव-गाँव धर्म बुद्धि जागृत करने के लिए भ्रमण करते थे। तीर्थ यात्राएँ पैदल होती थीं। तीर्थ यात्री जिन-जिन गाँवों में होकर जाते थे वहाँ धर्म उत्साह पैदा करते थे और जहाँ ठहरते थे, वहाँ धर्म समारोह के आयोजन होते रहते थे। इस प्रकार मानव अन्तःकरण की प्रसुप्त धर्म-बुद्धि को जागृत करने के लिए निरन्तर कार्य होता रहता था।

खेद है कि ये परम्पराएं आज भिन्न-भिन्न हो गई हैं और उनके अभाव में धर्म बुद्धि कुँठित होकर सन्मार्ग की ओर उपेक्षा वृत्ति बढ़ने लगी है। युग-निर्माण योजना में इन पुण्य प्रक्रियाओं को पुनर्जीवित करने पर बहुत जोर दिया गया है। विचारशील सत्पुरुषों की सामूहिक टोलियाँ सद्भावना प्रसार की यात्रा पर निकला करें और घर-घर जन-संपर्क स्थापित करते हुए धर्म बुद्धि जागृत करें तो इनसे इतना ठोस कार्य हो सकता है जितना अन्य उपायों से संभव नहीं। आचार्य जी धर्म फेरियों की प्रक्रिया को बहुत महत्वपूर्ण मानते हैं। उनने व्यक्तिगत रूप से हमें अपने जिले में ऐसी पदयात्रा का आयोजन करने की प्रेरणा भी दी। तदनुसार गत जून में इसका एक सुन्दर सफल आयोजन हो सका। पूरा जून मास बहरायच जिले में इस प्रकार की पद यात्रा के लिए रखा गया। सर्व श्री शिवप्रसाद शुक्ल, कन्हैयालाल श्रीवास्तव, फूलप्रसाद, जगदेव सिंह, विनोदकुमार, आनन्दशंकर सिंह, टीकासिंह, अयोध्यासिंह इस टोली के सदस्य बने और तीस दिन में तीस गाँवों में कार्यक्रम रखे गये थे, वहाँ के निवासियों को पूर्व सूचना दे दी गई थी ताकि वे नियत दिन आवश्यक तैयारी रखें। क्या तैयारी करनी चाहिए यह उन्हें पहले ही विस्तारपूर्वक बता दिया गया था। प्रायः सभी जगह तैयारी पूर्ण मिली, ग्रामवासियों ने हमारी टोली का हार्दिक स्वागत किया, कार्यक्रम को सफल बनाने में पूरा-पूरा योग दिया, और टोली के प्रयत्नों से प्रभावित हो समुचित लाभ भी उठाया।

टोली के सदस्य शाम को 5-6 बजे तक निश्चित ग्राम में पहुँच जाते थे। नित्यकर्म से निवृत्त होकर आठ बजे तक भोजन कर लेते थे। फिर उस ग्राम की तथा समीपवर्ती गाँवों की जनता सत्संग के लिए इकट्ठी होने लगती थी। प्रार्थना, वंदना के बाद प्रवचन होते थे। श्री कन्हैयालाल जी उपासना पर, श्री गिरीश देव वर्मा रामायण के माध्यम से चरित्र निर्माण और श्री बद्रीप्रसाद जी दोष दुर्गुणों के निवारण पर जोर देते थे। आगे हमें क्या करना चाहिए, जीवन क्रम कैसा बनाना चाहिए इस विषय पर अन्य वक्ता बोलते थे। इस प्रकार सत्संग 10 बजे तक चलाने की बात सोची गई थी पर वह प्रायः 11-12 बजे तक ही बंद हो पाता था।

प्रातःकाल 5 बजे उठ सब लोग पुनः एकत्रित हो जाते थे। सामूहिक संध्या, एवं जप के बाद हवन आरंभ होता था जिसमें ग्रामवासी श्रद्धापूर्वक भाग लेते थे । नारियों का उत्साह और भी अधिक रहता था। यह क्रम नौ बजे तक चलता। इसके बाद गायत्री और यज्ञ की महत्ता पर एक घंटा प्रवचन होता और उपस्थित लोगों से नशा, माँस, आलस, असत्य, फूट, क्रोध, दहेज, मृत्युभोज, गाली देना आदि दोषों को छोड़ने और नित्य उपासना स्वाध्याय, करने, बड़ों के चरण स्पर्श, साप्ताहिक उपवास, नागरिकता, सामूहिकता आदि सत्प्रवृत्तियों को अपनाने की प्रतिज्ञाएँ यज्ञ भगवान की साक्षी में कराई जातीं। यज्ञ कार्य प्रायः सभी जगह पं. शिवप्रसाद शुक्ल ने कराये । प्रातः काल का कार्यक्रम प्रायः दस बजे तक चलता था। दोपहर को भोजन, विश्राम और व्यक्तिगत परामर्श का कार्यक्रम चलता और तीसरे पहर अगले गाँव की यात्रा के लिए टोली रवाना हो जाती।

निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार रिसिया वंशपुरवा, बदैना बाजार, धुमनी, सधवापुर, एरिया, गदामार, कटघरा कलाँ, भिलौरा बाँसू, फरवटपुर मरबट, गौड़हिया, केसरगंज, नवाबगंज, नानपारा, पैडीहा, चिलपरिया, पहुँचकट्टा, इकौना तिलकपुर, आदि ग्रामों में यात्रा दलनें सफल आयोजन सम्पन्न किये। अन्तिम दिन बहरायच नगर में श्री बद्री प्रसाद जी के मकान पर सामूहिक सम्मेलन हुआ जिसमें जिले की शाखाओं के सदस्यगण भी सम्मिलित हुये। रात्रि के प्रवचनों के पश्चात् आगामी कार्यक्रमों पर विचार होता रहा। दूसरे दिन प्रातःकाल यज्ञ-कार्यक्रम के उपरान्त टोली के कार्यक्रम की समाप्ति घोषित की गई।

इस एक महीने में यात्रा दल को जहाँ शारीरिक कठिनाइयाँ और मानसिक दबाव अनुभव करने पड़े, वहाँ आत्मिक अपार आनन्द भी मिला। हजारों व्यक्तियों को धर्म मार्ग पर चलने की प्रेरणा और उसके फलस्वरूप युग-निर्माण में योगदान की संभावना की कल्पना मात्र से हम सब को भारी संतोष प्राप्त होता है।

-गिरीश देव वर्मा, बहरायच

गायत्री मंदिर की नव रचना

युग निर्माण योजना में अभिरुचि रखने वाले व्यक्तियों का परस्पर मिलते-जुलते रहना, विचार विनिमय करना, निर्धारित कार्यक्रमों को आगे बढ़ाना तथा प्रेम भाव की वृद्धि करना आवश्यक है। क्योंकि जो कार्य मिलजुल कर संगठित प्रयत्नों के द्वारा हो सकता है वह अकेले रह कर नहीं किया जा सकता। संगठन के लिए आचार्य जी सदा से जोर देते भी रहे हैं।

जून का अंक पढ़ कर निश्चय किया गया कि नागपुर में युग-निर्माण केन्द्र का अधिक सुव्यवस्थित कार्यक्रम बनाना चाहिए और यहाँ विधिवत् एक ज्ञान-मंदिर की स्थापना होनी चाहिए। तदनुसार गत गुरुपूर्णिमा से 24 लक्ष गायत्री मंत्र लेखन लोगों से कराने का कार्यक्रम आरंभ कर दिया गया है। इस आध्यात्मिक श्रमदान में कम से कम 108 व्यक्ति भाग लेंगे।

हम लोगों ने पुराने गायत्री उपासकों तथा ‘अखण्ड-ज्योति’ के सदस्यों के घरों पर जा-जाकर, घूम कर अध्यात्म यज्ञ में भाग लेने की प्रेरणा दी है। मंत्र लेखन चालू हो गया है। जब यह कार्य पूरा हो जायेगा तब अन्त में सामूहिक गायत्री यज्ञ रखा जायगा, जिसमें मंत्र लेखन करने वाले व्यक्ति ही आहुतियाँ देंगे। उसी दिन सुसज्जित अलमारियों में मंत्र लेखन की जिल्ददार कापियाँ स्थापित की जायेंगी और गायत्री माता की बड़े साहज कर आइल पेन्ट जो चित्र बनेगा उसकी प्रतिष्ठा होगी। मूर्तियों की स्थापना और प्राण-प्रतिष्ठा में पुजारी रखने और विधिवत् पूजा होने का बन्धन है पर चित्र के लिए यह अनिवार्य नहीं। इसलिए माता का चित्र एवं मन्त्र लेखन की सम्मिलित स्थापना से जो मन्दिर बनेगा वही सब के लिए सुविधाजनक रहेगा।

अभी मंदिर की निज की इमारत नहीं होगी। हम में से किसी सदस्य के मकान का एक कमरा ही इसके लिए प्रयुक्त होगा। स्थापना के पश्चात् दैनिक पूजन, हवन, कीर्तन, सत्संग आदि की व्यवस्था रहेगी। जिन लोगों ने मंत्र लेखन किया है वे इस केन्द्र के संचालक सदस्य माने जावेंगे, और उन्हें यहाँ के कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए विशेष आग्रह एवं सम्मानपूर्वक बुलाया जाता रहेगा। यों यहाँ से चलने वाली प्रवृत्तियों में कोई भी धार्मिक व्यक्ति प्रसन्नतापूर्वक भाग ले सकता है।

हम सब कार्यकर्ताओं के परस्पर मिलते-जुलते रहने के लिए यह गायत्री मन्दिर ही एक प्रकार से मिलन-मन्दिर रहेगा। युग-निर्माण योजना के लिए जिन क्लबों को बनाने का संकेत, प्रेरणा की गई है वहीं कार्य यह मिलन मन्दिर करेगा। यहीं से नागपुर नगर में उन सब प्रवृत्तियों का संचालन हुआ करेगा जो युग-निर्माण के लिए आवश्यक हैं। पर्व त्यौहार मनाने के लिए सदस्यगण यहीं इकट्ठे हुआ करेंगे। पुस्तकालय, वाचनालय, संगीत शिक्षा, पाठशाला आदि की जो भी प्रवृत्तियाँ संभव होंगी इस मंदिर में चला करेंगी। नागपुर शाखा का इसे केन्द्रीय कार्यालय भी कह सकते हैं।

आचार्य जी ने ऐसे ही बिना खर्च के बनने वाले, ईंट चूने से नहीं, श्रद्धा और श्रम के माध्यम से बनने वाले गायत्री मंदिरों के निर्माण पर जोर दिया है। हम लोगों ने उनके इसी आदेश का पालन करते हुए नागपुर में यह रचनात्मक कार्य आरम्भ किया है।

-मोरेश्वर रामचन्द्र पारघी, नागपुर

संगीत के माध्यम से भाव जागरण

जून के युग-निर्माण अंक में संगीत एवं कविताओं के माध्यम से जन भावनाओं को सन्मार्ग की ओर मोड़ने की योजना छपी है। गत जेष्ठ मास में जब मैं चान्द्रायण व्रत शिविर में सम्मिलित होने मथुरा गया था तब आचार्य जी ने इस सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक चर्चा की थी और कहा था कि गायन और वाद्य का जन भावनाओं को तरंगित करने से भारी महत्व है, इसलिए जिन्हें यह कला आती हो उन्हें अपनी इस प्रतिभा का उपयोग जन जागरण के लिए करना चाहिए। युग निर्माण के लिए यह कार्यक्रम एक अत्यन्त महत्व का माध्यम सिद्ध होगा। आचार्य जी की उस प्रेरणा से मैं बहुत प्रभावित हुआ था और उसी समय से निश्चय किया कि उस दशा में एक सुव्यवस्थित योजना बनाकर जीवन भर कार्यरत रहूँगा।

यों संगीत में मुझे आरम्भ से ही अभिरुचि रही है और उस दिशा में अध्ययन-अध्यापन का कार्य चिरकाल से कर रहा हूँ। संगीत मेरा प्रिय विषय होने के कारण इस कला की साधना में मेरे जीवन का अधिकाँश समय लगा है। शास्त्रीय विधि से संगीत की शिक्षा प्राप्त करके ‘संगीतालंकार’ की उपाधि प्राप्त की है। पर अब तक यह विषय कला की साधना की दृष्टि से करता रहा हूँ। युग-निमार्ण योजना ने मुझे एक नई दृष्टि दी है और यह प्रेरणा मिली है कि वाणी की उस महती शक्ति का उपयोग सद्भावनाओं के विकास का दृष्टिकोण रखकर ही करना उचित है।

गुरु पूर्णिमा के पश्चात् मैंने अपने घर पर एक संगीत, कक्षा प्रारम्भ कर दी है, जिसमें वाद्य-शिक्षण को गौण मानकर उच्च भावनाओं को विकसित करने वाली कविताओं का गाना सिखाया जाय। संगीत शिक्षा का माध्यम केवल उत्कृष्ट भावोत्पादक कविताएँ ही रहती हैं। गाने योग्य ऐसी कविताओं का एक अच्छा संग्रह भी अब तक मेरे पास हो गया है।

संगीत क्षेत्र के अपने अन्य मित्रों को भी मैंने ऐसी ही प्रेरणा दी है। उन्होंने इस नये सुझाव का हृदय से स्वागत किया है। पुराने ढंग के भजन कीर्तन ही उन्हें याद थे। इसलिए इच्छा रहते हुए भी वे कुछ न कर पा रहे थे। मैंने बहुत-सी जीवन संचारिणी कविताएँ सिखाई हैं और उनकी वरदन-प्रणाली का अभ्यास कराया है। अब हम लोगों का एक गायक परिवार दिन-दिन बढ़ता जाता है। जब कभी हमारी यह मित्र मंडली इकट्ठी होती है और गायन-वाद्य का क्रम चलता है तो पहले की तरह कला की मधुरता ही सीमित नहीं रह जाती वरन् श्रोताओं को जीवन का नव-निर्माण करने वाली भावनाओं से भी तरंगित करती हैं। अब हमारी गोष्ठियाँ, प्रेरणाएं और भावनाओं से पूरी भरी रहती हैं।

थोड़े दिनों से इस छोटे से अनुभव से मुझे विश्वास हो चला है कि ‘युग-निर्माण परिवार’ से सम्बन्धित हजारों संगीतज्ञ मेरी तरह अपनी कला भाव-निर्माण में उपयोग करेंगे तो उसका व्यापक प्रभाव होगा। गायन कला के माध्यम से जन-मानस को तरंगित करने की बात कितनी महत्वपूर्ण और प्रभावशाली है इसे मैं आज भली-भाँति अनुभव कर रहा हूँ। विश्वास है कि निकट भविष्य में देशव्यापी परिवार में इस माध्यम का उपयोग करके लोगों की मनोभूमि बदलने में भारी सफलता प्राप्त होगी।

-सुधाराम महाजन,

गुजरात में योजना का प्रकाश

‘अखण्ड ज्योति’ के माध्यम से ‘युग निर्माण योजना’ की जो प्रबुद्ध विचारधारा प्रसारित हो रही है उसे जब मैं ध्यानपूर्वक पढ़ता हूँ तो अन्तःकरण पुलकित हो उठता है। मनुष्य जाति आज जिस पतन पथ पर चलती हुई अपना सर्वनाश करने के लिए बढ़ रही है उसे रोकने के लिए ठोस और प्रभावशाली उपाय यही हो सकता है कि नैतिक विचारधारा को परी शक्ति के साथ जनमानस प्रवेश करने का एक सुसंगठित आन्दोलन किया जाय। ‘युग निर्माण योजना’ में इस उद्देश्य की पूर्ति की सभी संभावनाएँ बीज रूप से मौजूद हैं। जिन सुदृढ़ भुजाओं के द्वारा इस प्रवृत्ति का संचालन हो रहा है उनकी मजबूती को देखते हुए यह विश्वास होता है कि मानव जाति के भाग्य पुनः फिर और प्राचीनकाल जैसी मंगलमयी परिस्थितियाँ पुनः उत्पन्न होगी।

योजना को गत डेढ़ वर्ष से मैं बहुत ध्यानपूर्वक पढ़ता चला आ रहा हूँ। जितना ही पढ़ता हूँ उतनी ही श्रद्धा और भी अधिक बढ़ती है। अब मेरा मन निरन्तर इस बात के लिए अकुलाता रहता है कि किस प्रकार इस योजना में सक्रिय भाग लूँ और अपनी आन्तरिक श्रद्धा, सद्भावना को चरितार्थ करने का सुअवसर प्राप्त करूं ?

जून अंक ने मुझे बहुत प्रकाश दिया है। अपनी परिस्थितियों के अनुसार मैं अब अपना अधिकाधिक समय इस कार्य में लगाऊँगा कि ‘अखण्ड-ज्योति’ में प्रकाशित विचारधारा को गुजराती-भाषी जनता के लिए सुलभ बनाऊँ। आचार्य जी जो कुछ लिखते हैं वह हिन्दी में होता है। हिन्दी राष्ट्र भाषा तो है पर प्रान्तों में वहाँ की क्षेत्रीय भाषाएँ ही अधिक प्रचलित हैं और अधिक सुबोध एवं लोकप्रिय हैं। इसलिए यह नितान्त आवश्यक है ‘युग निर्माण’ विचारधारा का लाभ केवल हिन्दी भाषा जनता तक ही सीमित न रहे वरन् उसे विश्व की नहीं तो कम से कम भारत की समस्त भाषाओं में तो प्रसारित किया ही जाय। यदि यह प्रयत्न न हो सका तो युग निर्माण आन्दोलन हिन्दी भाषी क्षेत्र की एक छोटी-सी प्रवृत्ति मात्र बनकर सीमित रह जायगा।

मैंने युग निर्माण विचारधारा को गुजराती में अनुवाद करते रहने के विशाल कार्य में अपनी अकिंचन सेवाएँ निरन्तर देते रहने का निश्चय किया है। अनुवादों को गुजराती पत्र पत्रिकाओं में छपाना ही होगा। सितम्बर के ‘अखण्ड ज्योति’ में युग-निर्माण सत् संकल्प की जो विस्तृत विवेचना छपी थी उसका धारावाहिक अनुवाद गुजराती की ‘गायत्री विज्ञान’ पत्रिका में प्रकाशित हो रहा है। ‘ज्ञान यज्ञ ग्रन्थ माला’ के नाम से मैंने एक छोटा सस्ता प्रकाशन स्वयं भी आरंभ किया है, जिसमें युग-निर्माण विचारधारा का ही विस्तार है।

आगे पूरी लगन से यह कार्य करूंगा। युग निर्माण की विचारधारा को गुजराती में अनुवादित करूंगा और उसे इस प्रान्त की पत्र पत्रिकाओं में भेजता रहूँगा। सस्ते ट्रैक्टों के रूप में भी यह साहित्य फैले ऐसा भी प्रयत्न करूंगा।

गुजरात बड़ा प्रान्त है। इसमें युग-निर्माण के लिए आवश्यक जागृति और जीवन उत्पन्न करने के लिए मेरी जैसी श्रद्धा भावना रखने वाले अनेकों साहित्यिक कार्यकर्ताओं की आवश्यकता पड़ेगी। आशा करनी चाहिए कि ऐसे धर्म सेवकों की भी निकट भविष्य में कभी न रहेगी जो गुजरात में दीपक के समान जलने को तैयार होकर प्रकाश पाने को तैयार हों, तेल की प्रचुर मात्रा हमें ‘अखण्ड ज्योति’ से मिल ही जाती है।

-नटवरलाल नाथालाल जानी, राजकोट।

ज्ञानवृद्धि का सत्प्रयत्न

भारतवर्ष की प्रगति में सबसे बड़ी बाधा यहाँ की निरक्षरता है। ज्ञान को मनुष्यता का प्रधान चिन्ह माना गया है। सत्ज्ञान के बिना मानवीय सत्प्रवृत्तियों का विकास संभव नहीं और सद्ज्ञान साक्षरता के माध्यम से ही उपलब्ध हो सकता है। आँखों के बिना जिस प्रकार हर समय अँधेरा ही रहता है, उसी प्रकार शिक्षा के अभाव में मनुष्य को लौकिक ज्ञान से, सांसारिक परिस्थितियों से भी वंचित रहना पड़ता है। ऐसे लोग आत्मा का कल्याण करने वाला सद्ज्ञान तो पावेंगे ही कैसे ?

शिक्षा को मैं मानव-जीवन की अत्यधिक महत्वपूर्ण आवश्यकता मानता हूँ। युग-निर्माण योजना में भी उनके लिए बहुत जोर दिया गया है। मैंने निश्चय किया हैं कि मैं इस दिशा में अधिकाधिक प्रयत्न करूंगा। हमारा पिछड़ा हुआ क्षेत्र है। उधर पिछड़ी जातियों के लोग अधिक रहते हैं। सवर्णों की अपेक्षा उनकी आर्थिक, सामाजिक और मानसिक स्थिति भी गिरी हुई है। इसलिए मैंने सोचा है कि इन लोगों की ओर अधिक ध्यान दिया जाय और इलाके के हर गाँव में एक प्रौढ़ पाठशाला चलाई जाय। इसके लिए सेवा भावना से पढ़ाने वाले व्यक्ति ढूंढ़ने में लग गया हूँ। कहीं-कहीं वेतन देकर भी अध्यापक नियुक्त करने होंगे। इसके लिए कुछ धन जनता के सहयोग से और कुछ सरकारी सहायता से प्राप्त करने की योजना बनी है। इस सम्बन्ध में काफी काम हो चुका है। कई प्रौढ़ पाठशालायें चालू हो गई हैं और आशा है कि इसी वर्ष इनकी संख्या कम से कम 20 अवश्य हो जायेगी। अवकाश के समय बड़ी आयु के स्त्री-पुरुष उनमें शिक्षण प्राप्त किया करेंगे। जो बच्चे स्कूल नहीं जा सकते उनकी पढ़ाई भी वहाँ हुआ करेगी।

साक्षरों के लिए उनकी ज्ञान-वृद्धि का माध्यम पुस्तकालय ही हो सकते हैं। जीवन निर्माण करने वाली पुस्तकें ही इन पुस्तकालयों में रहेंगी, चाहे उनकी संख्या कम ही क्यों न हो। ऐसी ही पत्र पत्रिकाएं भी उनमें मँगाई जायेंगी। एक व्यक्ति संचालक नियुक्त किया जायगा जो पुस्तकों और अखबारों को सँभाल कर रखे, नियत समय पर पुस्तकालय भी साक्षरों के लिए आवश्यक ज्ञानवृद्धि के एक उपकरण ही होंगे। इन्हें भी विद्यालय ही कहना चाहिए।

मेरा काम आसपास के गाँवों में भ्रमण करने और दौड़ धूप का रहता है। सो इस क्षेत्र में विद्या का आलोक फैलाने के लिए निरन्तर सचेष्ट रहने का मैंने निश्चय किया है और गत गुरु- पूर्णिमा से इस निश्चय को कार्यान्वित करना भी आरम्भ कर दिया है।

-दलीप कुमार दत्त, अमरपाटन

एकाकी शुभारम्भ

राष्ट्र-निर्माण के लिए कुछ सेवा कार्य करने की अपनी इच्छा सदा से रही है, पर यह सूझ नहीं पड़ता था कि अकेला आदमी किस प्रकार क्या करे? संगठित संस्थायें तो बहुत कुछ करती हैं पर अकेला व्यक्ति क्या कर सकता है, उसके छोटे प्रयत्न और थोड़े सामर्थ्य से क्या कुछ हो सकता है इसका कोई रास्ता विदित न था। जून का अंक पढ़ा तो आंखें खुल गई और समझ में आया कि केवल संस्थाओं या संगठनों के माध्यम से ही लोक सेवा नहीं की जाती। अकेला व्यक्ति अपने सीमित साधनों से भी कुछ-कुछ कर ही सकता है और इस प्रकार एकाकी प्रयत्न भी अनेक व्यक्ति करने लगें तो संस्थाओं के खर्चीले एवं प्रतिस्पर्धा पूर्ण आडम्बरों के बजाय ठोस और महत्वपूर्ण कार्य हो सकता है।

गत गुरु पूर्णिमा को युग-निर्माण योजना का विधिवत् उद्घाटन हुआ है। जो कुछ साधन मिले उन्हीं से पाठशाला आरंभ कर दी है। प्रथम दिन केवल 4 व्यक्ति पढ़ने आये, पर अब उनकी संख्या बढ़ती जाती है। आशा है कि संख्या की दृष्टि से भी हमारा शिक्षण कार्य कुछ दिन में काफी आगे बढ़ जायेगा।

शिक्षार्थियों को नित्य एक लेख अखण्ड-ज्योति का पढ़ कर सुनाया जाता है और फिर कुछ देर उस लेख की विवेचना की जाती है। इस प्रकार शिक्षा और दीक्षा के दोनों कार्यक्रम साथ-साथ चल रहे हैं। यह छोटा प्रयत्न देखने में साधारण-सा भले प्रतीत होता है पर युग-निर्माण योजना की पूर्ति में इस से सहायता मिलेगी इसका मुझे काफी संतोष है। स्वान्तः सुखाय सेवा-धर्म को अपने जीवन की शुभारंभ मुझे बहुत आनन्दमय प्रतीत हो रहा है।

-वीरसिंह चौहान, पारा

प्रौढ़ महिलाओं की शिक्षा व्यवस्था

छोटी आयु में विधवा हो जाने के बाद जीवन निरर्थक ही दिखता था। सब लोग मुझे अभाग की तकदीर को कोसते ही रहते थे। कभी ससुराल कभी माता के घर तिरस्कृत और भारभूत प्राण की तरह जिन्दगी के दिन किसी प्रकार दूर करती रही। मन तो न लगता था पर भगवान की पूजा में भी बैठती थी। इस प्रकार वैधव्य चौदह वर्ष कटे।

मेरी रिश्ते की मौसी स्कूल में अध्यापिका थी। वे बार-बार यही कहती रहती थीं कि तुम्हें पढ़ना चाहिए। इससे समय कटेगा, ज्ञान प्राप्त होगा और किसी की दया पर भार रूप जीने की हीन स्थिति न रहेगी। चौदह वर्ष तक तो उनकी बात पर ध्यान न दिया पर जब रिटायर हो गई और हमारे पड़ौस के मकान ही में रहने लगीं तो उनके आग्रह से मैंने पढ़ना शुरू किया। तीस वर्ष की आयु में पढ़ाई करना अटपटा तो लगा पर मौसीजी के आग्रह पर वह मुझे करना ही पड़ा। चार वर्ष में हिन्दी मिडिल पास कर लिया। नौकरी करने की आवश्यकता स्तर मौजूद थे।

पड़ौस में एक मास्टर साहब रहते हैं उनके अखण्ड-ज्योति आती थी। उनसे माँगकर मौसी पढ़ने लाया करती थी और उसके लेख मुझे सुनाया करती थीं। कुछ ही दिन के बाद में मुझे वे लेख बहुत रुचिकर लगने लगे और अपने पैसे भेज कर मंगाना शुरू कर दी। कुछ दिन के बाद जीवन का साथ कनेडडडडड के सम्बन्ध में आचार्य जी से परामर्श और पत्र-व्यवहार भी करना आरम्भ कर दिया। इससे मुझे बड़ी प्रेरणा मिली। दो वर्षों से युग- निर्माण की जो प्रौढ़ विचारधारा आ रही है। उसने मेरे जान पर यही छाप डालो के परमार्थ किये बिना मनुष्य का जीवन सार्थक नहीं हो सकता।

जून का युग-निमार्ण अंक पढ़ा उसमें मेरे उपयुक्त कार्यक्रम मौजूद थे। महिलाओं में शिक्षा प्रसार भारतवर्ष की सबसे बड़ी आवश्यकता है, इस तथ्य को हृदयंगम करते हुए मैंने गत गुरु पूर्णिमा के निश्चय किया कि मैं महिलाओं की प्रौढ़ पाठशाला चलाऊँगी। वृद्धा मौसी जी ने इस कार्य में मुझे पूरा सहयोग देने का वचन दिया। हम दोनों मुहल्ले भर में घर-घर घूमे और तीसरे पहर दो से पाँच बजे तक मेरे घर पढ़ने आने के लिए अनेक महिलाओं को समझाया। आरंभ में 12 महिलाएँ तैयार हुई। गुरु-पूर्णिमा को हवन कीर्तन के साथ हमारी युग-निमार्ण महिला प्रौढ़ पाठशाला का शुभारंभ हुआ। इस एक महीने में पढ़ने वाली महिलाओं की संख्या 19 हो गई है। लगता है कि कुछ दिनों में यह संख्या काफी बढ़ेगी और मेरे छोटे घर में पढ़ाई का स्थान न रहा तो दूसरी और कोई उपयुक्त जगह पाठशाला के लिए ढूँढ़नी पड़ेगी।

सरकारी जूनियर हाईस्कूल तथा प्रयाग महिला विद्यापीठ का कोर्स पढ़ाना चालू किया गया है। सिलाई और संगीत की कक्षाएँ भी साथ-साथ चल रही हैं। अभी मेरा हारमोनियम और सिलाई मशीन ही काम आ रही हैं। पर आगे इनकी और भी जरूरत पड़ेगी सो शिक्षार्थी महिलाओं ने थोड़ा-थोड़ा चंदा करके उसकी व्यवस्था करने का भी विचार व्यक्त किया है। यह प्रयत्न यदि थोड़ी-सी महिलाओं के जीवन में भी कुछ प्रकाश उत्पन्न कर सका तो मैं समझूँगी कि युग-निमार्ण के लिए मेरी भी कुछ उपयोगिता रही और उपेक्षित तिरस्कृत, एवं निरर्थक समझा जाने वाला जीवन किसी हद तक सार्थक हुआ।

-कमलेश कुमारी वर्मा, खड़गपुर

परिवार निर्माण का प्रयत्न

युग-निर्माण योजना को ध्यान पूर्वक पढ़ा तो प्रतीत हुआ कि समाज की ठोस सेवा अपने परिवार को सुधारने की पद्धति अपनाने से ही संभव हो सकती है। यह बात मुझे बिलकुल सही जँची। हर आदमी अपना और अपने परिवार का सुधार कर ले तो इसी आधार पर सारे समाज और संसार का सुधार हो सकता है। एक दूसरे को उपदेश करने की अपेक्षा अपना और अपने परिवार का सुधार कर सकना अधिक वास्तविक और अधिक उपयोगी है।

गुरु पूर्णिमा से मैंने अपने घर की विचारगोष्ठी आरम्भ कर दी है। रात को 8 से 9 बजे तक का समय इसी के लिए नियत कर लिया है। मनुष्य जीवन की विभिन्न समस्याओं की जानकारी अपने घर वालों को कराता है और यह बताता है कि जीवन को कैसे सुव्यवस्थित और प्रगतिशील बनाना चाहिए। कथा, कहानियाँ, ऐतिहासिक घटनायें तथा वर्तमान समाचार सुनाकर उनका मनोरंजन भी करता है और शिक्षा भी करता है जिसे सब रुचिपूर्वक सुनते हैं।

गोष्ठी में घर की समस्याओं पर छोटे-बड़े सभी अपने विचार और सुझाव प्रकट करते हैं, जिससे कई उलझनें सुलझती हैं तथा अच्छी व्यवस्था बनाने में योग मिलता है। घर में सब छोटे-बड़े परस्पर ‘तुम’ ‘आप’ का संबोधन करने लगे हैं, ‘तू’ कहना छोड़ दिया गया है। अपने से बड़ों के नित्य चरण स्पर्श पूर्वक प्रणाम करने की बात अब अभ्यास में आ गई है। पूजा स्थान पर बैठ कर सब नित्य गायत्री मंत्र की एक माला जपने लगे हैं। शाम को सामूहिक पूजा आरती होती है। युग निमार्ण का सत्संकल्प आरती के द्वारा दुहराया जाता है, एक लेख अखण्ड ज्योति का पढ़ा जाता है, जिसे घर के सभी सदस्य ऐसे प्रेम से सुनते हैं मानों आचार्य जी स्वयं ही अपना प्रवचन कर रहे हों। कपड़ों की सफाई, हर वस्तु को नियत स्थान पर रखना, समय का कार्यक्रम बना कर उसी के अनुसार दिनचर्या पूरा करना, दैनिक व्यायाम आदि कई अच्छी प्रथाएँ इस एक महीने में ही चल पड़ी हैं। इसे देखते हुए लगता है कि परिवार का सुधार संतोषजनक रीति से हो रहा है और आशा बँधती है कि हम लोग आगे चलकर अपना व्यक्तित्व ऐसा उत्तम गठित कर सकेंगे जिसके संपर्क में आने वाले भी सभ्य नागरिक बन सकेंगे।

-राधेश्याम वार्ष्णेय गिरिडीट


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