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September 1963

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सत्येन धार्यते पृथ्वी सत्येन तपते रविः।

सत्येन वाति वायुश्च सर्व सत्ये प्रतिष्ठतम्॥

-चाणक्य

“सत्य से पृथ्वी स्थिर है, सत्य से सूर्य प्रकाश देता है, सत्य ही से वायु बहती है, सब कुछ सत्य के बल से ही स्थिर है।”

***

मनस्वी म्रियते कामं कार्पण्यं तु गच्छति।

अपि निवणिमायाति नानलयाति शीतताम्॥

- हितोदेपश

“उच्च मनोबल वाले मनस्वी व्यक्ति मर भले ही जायें पर कृपणता, कायरता नहीं करते, जैसे अग्नि भले बुझ जाय पर शीतल नहीं होती।”

क्षेत्रों में यही नियम लागू होता है। चिन्ता करते रहने या हानि का दुख मनाते रहने से वह क्षतिपूर्ति न हो सकेगी, वरन् इससे तो शारीरिक और मानसिक बल ही घटना आरम्भ हो जायेगा, जिससे उस क्षतिपूर्ति में और भी अधिक बाधा पड़ेगी। “बीती ताहि बिसारदे आगे की सुधि लेय” की नीति अपनाकर ही कोई व्यक्ति अपनी क्षतियों को पूर्ण कर सकता है। जो मनुष्य सतत अपने कर्तव्य कर्म में लगा रहता है उसे किसी दूसरे की निन्दा स्तुति करने का अवकाश नहीं रहता। कर्मरत के लिए एक क्षण भी इन बेकार बातों के निमित्त निकालना मुश्किल है। किसी भी व्यक्ति को अपने कार्य की सिद्धि के लिए दूसरों के गुणों को देखने, समझने और उनका अनुकरण करने की आवश्यकता होती है। कर्मयोगी को दूसरों के गुण अच्छाइयों को देखने की आदत बन जाती है और दोष दर्शन के लिए न उसे उत्साह रहता है और न अवकाश। छिद्रान्वेषण, परदोष दर्शन, असद्भाव विचार प्रायः उन्हीं लोगों में देखे जाते हैं जो अकर्मण्य होते हैं।

जल के बहते हुए प्रवाह में जिस प्रकार कूड़ा-करकट अपने आप बहता चला जाता है उसी प्रकार कर्तव्यपरायण व्यक्ति के मन में कुविचार भी टिक नहीं पाते। शरीर और मन की अनेकों विकृतियाँ उनमें पाई जाती है जिन्हें फालतू बैठे रहना पड़ता है। चिन्ता, शोक, उद्वेग के लिए जिन्हें अवसर ही नहीं मिलेगा वे कैसे इन झंझटों में पड़े रहेंगे? काम में थका हुआ मनुष्य गहरी नींद सो जाता है और फिर उसे रात भर जाग जाग कर कुकल्पनायें करते रहने का अवसर ही नहीं मिल पाता।

अच्छे आदर्श रचनात्मक उपयोगी और आत्मसंतोष देने वाले कार्यों में संलग्न रहकर मनुष्य को जो प्रफुल्लता मिलती है वह और किसी प्रकार उपलब्ध नहीं हो सकती। कामनाओं और लालसाओं को छोड़कर, खेल और अभिनय की तरह उदात्त बुद्धि से जो कार्य करते हैं उनके लिए तो यह जीवन ही नहीं सारा संसार और उसका प्रत्येक कार्य भी आनन्दमय बन जाता है। कर्म की महत्ता अनन्त है। इसीलिए उसे योग कहा गया है। अन्य योग साधनाओं की भाँति ही मनुष्य कर्मयोग की साधना से पूर्णता प्राप्त कर सकता है।


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