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September 1963

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लक्ष्मी ने दर्प, व्यंग्य मिश्रित स्वर में कहा- “मेरी कृपा प्राप्त करने को सभी लालायित रहते है। मेरे बिना किसी का जीवन आनन्दमय नहीं हो सकता। इतना भी नहीं जानती तुम। मैं तुम्हारे पुत्रों को सुखी बनाने आई हूँ। उन्हें वरदान दूँगी। तुम्हारा मूर्खतापूर्ण अनुरोध मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं।”

धरती कुछ और कहती पर इसका अवसर दिये बिना ही लक्ष्मी जी ने अपन रथ बढ़ा दिया। वे जिधर से भी निकली उधर से ही वरदान बरसा, देखते - देखते लोगों के घर सोने चाँदी से भर गये।

अपने सौभाग्य की सराहना करते हुए लोग उल्लास भरे उत्सव मनाने लगे। विपुल धन पाकर उन्होंने आमोद प्रमोद के अनेक साधन जमा कर लिए। श्रम की ओर अब कौन ध्यान देता?

वर्षा आई, कोई खेतों को जोतने न गया। आमोद-प्रमोद से फुरसत ही किसे थी। न बीज बोया गया न काटा गया और न अन्न उपजा।

खेतों में खर-पतवार जम गये और घरों में भरे अन्न भंडार की इति श्री हो गई। भूख से व्याकुल लोग सोना-चाँदी लिए इधर उधर फिरने लगे। श्रम का अभ्यास छूट चुका था। दुर्भिक्ष ने विकराल रूप धारण किया। छाती से सोने की ईंट बाँधे क्षुधार्त लोग जहाँ तहाँ तड़प-तड़प कर प्राण त्यागने लगे।

धरती की आँखों में आँसू आ गये। उसने बचे खुचे पुत्रों से कहा- आकस्मिक लाभ का वरदान वस्तुतः अभिशाप जैसा दुर्भाग्यजनक ही होता है।


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