भाग्यवाद से हमारा अहित ही होगा

September 1963

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“प्रारब्ध” और “ईश्वरेच्छा”

किसी कार्य या योजना का अनिष्ट परिणाम आने पर ‘ईश्वर की इच्छा ऐसी ही थी’ या ‘प्रारब्ध ही ऐसा था’ ऐसी कल्पनाओं से मन को समझा लेने के बाद मनुष्य का दुख या असंतोष कुछ हद तक हलका हो जाता है, अपने और दूसरे लोगों की ऐसी असफलताओं के अवसर पर ‘ईश्वरेच्छा’ और ‘प्रारब्ध’ की कल्पनाओं के कारण हताश और दुखी मन को जो आधार, आश्वासन और धैर्य मिलता है, उस पर से इन कल्पनाओं को सिद्धान्त का रूप प्राप्त हुआ है। दुखी और निराश मन शान्त होने के लिये किसी महान वस्तु का आधार खोजता है। ‘ईश्वरेच्छा’ और ‘प्रारब्ध’ की कल्पनायें यदि मनुष्य को किसी अनुभव के बाद सूझी हों, तो भी मनुष्य अधिकतर निराशा की स्थिति में ही उनका प्रयोग करते आये हैं। सुख सम्पत्ति में, या वैभव में इन मान्यताओं का श्रद्धा पूर्वक स्मरण करके ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का और अपने भीतर निरहंकारता का भाव बढ़ाने में इनका उपयोग शायद ही कोई करता हो।

“ईश्वरेच्छा या प्रारब्धानुसार सब कुछ होता है” “जिन्दगी दो दिन की है” - “ये दिन भी बीत जायेंगे” आदि उद्गार मनुष्यों के मुख या हृदय से समय-समय पर प्रसंगानुसार निकला करते हैं। बहुत से लोग समझते हैं कि इन्हीं उद्गारों में ज्ञान भरा है और ये ही जीवन के महान् सिद्धान्त हैं। इस मान्यता से वे जानबूझ कर उदासीनता का जीवन बिताने लग जाते हैं। परन्तु हमें ध्यान रखना चाहियें कि ऐसे उद्गारों को जीवन सूत्र बनाकर उनके अनुसार नित्य का जीवन चलाने का प्रयत्न करना ही गलत है। निराश या निरुत्साही बने हुये, व्याधिग्रस्त, गरीबी से दुखी, लोगों के छल−कपट के शिकार बने हुये, मौत के किनारे लगे हुये, किसी दुख के कारण भग्न हृदय बने हुये तथा जिनका जीवन लगभग असफल सिद्ध हो चुका है ऐसे व्यक्तियों के मुँह से परिस्थितिवश निकले उद्गारों को जीवन का सिद्धान्त मान लेना और सम्पूर्ण सत्य वाले मानकर जीवन को वैसा ही समझ उसे अपने जीवन का ध्येय ठहराना, सर्वथा अनिश्चित है। एकाँकी सत्य को सम्पूर्ण सत्य समझना सदा गलत ही माना जायेगा। इससे हमारे भीतर भ्रामक कल्पना की वृद्धि ही होगी और समाज आज तक जिस तरह अवनत होता आया है उसी तरह आगे भी अवनत होगा रहेगा।

-विचार दर्शन

‘न जाने कल क्या होगा?’

भविष्य में क्या होगा, हमारे ग्रह शुभ हैं या अशुभ, हमारे भाग्य में क्या है, हमारे ऊपर कोई आपत्ति तो नहीं आ रही है, हमारे शकुन, फल अच्छे हैं या बुरे, न जाने कल क्या होगा- ये एक प्रश्न है जो कितने ही व्यक्तियों की मानसिक शान्ति भंग किया करते हैं। भविष्यत् जानने के लिये कितने ही थोथी विचारधारा के व्यक्ति फकीरों, साधुओं और ज्योतिषियों के पास भटकते फिरते हैं। किसी ने उनके मन की बात कह दी तो वे फूल उठें। किसी ने कुछ भयानक बात बतला दी, बस मुरझा कर निरुत्साहित हो गये, अपने भाग्य को दोष देने लगे। सिर्फ अनिष्ट की कल्पना मात्र से वे झींकने लगते हैं, परेशान हो जाते है और यह मान बैठते हैं कि हम तुच्छ हैं, क्षुद्र हैं, हीन हैं। हमारे भाग्य में तंगी, कमजोरी, अयोग्यता, अकर्मण्यता ही है। हमें तो सदैव रूखी-सूखी रोटी बदी है।

मनुष्य अपने भविष्य की अच्छी बात सुनकर इतना प्रसन्न नहीं होता जितना कुत्सित बात सुनकर डर जाता है। हम लोगों की प्रकृति ही कुछ ऐसी होती है कि अशुभ, निकृष्ट, आधि-व्याधि के विचारों पर शीघ्र विश्वास कर लेते हैं। हमारे ऊपर इन अन्धकारमयी भावनाओं का प्रभाव बड़ी शीघ्रता से होता है और कभी-कभी तो यह विचार इतने स्थायी हो जाते हैं कि हम उन्हें जन्म भर तक नहीं भूल पाते। एक व्यक्ति के दिल में किसी भविष्यफल के कारण यह विचार जम गया कि मेरी मृत्यु पागल कुत्ते के काटने से होगी। बस वह मामूली कुत्ते को देखकर भी भागता, छिप जाता और जब तक कुत्ता चला न जाता जब तक बाहर न निकलता। एक बार एक साधारण कुत्ते ने उसे जरा सा पंजा लगा दिया जिससे कुछ खरोंच सी आ गई। वह बीमार पड़ा और लगभग एक मास चारपाई पर पड़े रह कर मृत्यु को प्राप्त हुआ। इसी प्रकार अनेक व्यक्तियों की यह धारणा बन जाती है कि हमारा आगामी समय बड़ा कठिन, संघर्ष पूर्ण और संकटों से भरा आ रहा है बस, वे बेसिर पैर की, निराशाजनक कल्पनाओं के द्वारा अपने जीवन को कठिन बना लेते है, घबरा कर व्यर्थ चिन्ताओं में ग्रस्त रहते है और पनपने नहीं पाते।

-आनन्दमय जीवन

भाग्यवाद को छोड़कर पुरुषार्थवादी बनिये

संसार में दो प्रकार के लोग होते हैं एक भाग्यवादी और दूसरे पुरुषार्थवादी। पहले प्रकार के लोग अपने जीवन की सफलता और विफलता को भाग्य, ईश्वर, देवी, देवता की कृपा आदि बातों पर निर्भर कर देते हैं, दूसरे प्रकार के लोग अपने भविष्य का निर्माण करना अपने पुरुषार्थ की बात मानते हैं। जिस व्यक्ति का स्वभाव ढीला-ढाला है, जिसके मन में अनेक प्रकार के अन्तर्द्वन्द्व चलते रहते है, जो अपने आप पर विजय प्राप्त करने में असमर्थ रहा हैं, वह भाग्यवादी हो जाता है। ऐसा किसी मनुष्य की सफलता और विफलता का कारण उसकी मनोवृत्तियों और कर्तव्य में न देखकर किसी बाहरी अज्ञात सत्ता में आरोपित करता है।

इस प्रकार वह अपनी असफलता के लिये अपने आपको दोषी न ठहरा कर किसी ऐसी शक्ति को दोषी ठहराता है जिस पर उसका कोई अधिकार नहीं। इस प्रकार वह अपनी कमजोरी के प्रति अपनी आँखें मूंद लेने की चेष्टा करता है और अपने आपको सुधारने से विमुख हो जाता है।

जब मनुष्य में काम करने की उत्कट भावना होती है तो वह उसके लिये उचित कल्पनाओं, योजनाओं और उन्हीं के अनुकूल विचारों का निर्माण करता है। इसके विपरीत जब उसमें निकम्मापन आता है, जब उसकी मानसिक शक्ति भीतरी झगड़ों में ही समाप्त हो जाती है तो उसकी कल्पनाएं निराशावादी योजनाएं अधूरी और विचार असफलता के लिये जब अपने भाग्य को दोष नहीं देते तो किसी अन्य व्यक्ति को दोष देते हैं। भाग्यवादिता और निराशावादिता एक दूसरे के सहगामी हैं। जिस व्यक्ति को भविष्य का जितना ही अधिक डर रहता हैं वह उतना ही अधिक ज्योतिषियों, हस्तरेखा, देखने वालों आदि के चंगुल में फँसता है।

मनुष्य के चारों ओर सदा विचारों का वातावरण रहता हैं। जैसे प्रत्येक मनुष्य का भौतिक वातावरण होता उसी तरह उसका विचारों का वातावरण रहता हैं। दूसरे लोगों के विचार अनेक प्रकार हमें प्रभावित करते रहते है। निराशावादी लोगों के पास चारों ओर से निराशावादी विचार आ जाते हैं। ऐसे लोगों को दूसरे लोग भी निराशावादी और भाग्यवादी ही मिलते हैं और ये उनके विचारों की पुष्टि कर देते हैं। भाग्यवादी व्यक्ति स्वतः प्रयत्न करना ही नहीं चाहतें है, वे दूसरों के भरोसे रहना चाहते हैं। फिर ऐसे लोगों का जीवन दुख में व्यतीत हो तो इसमें क्या आश्चर्य है?

-मनोविज्ञान जीवन

सौभाग्य और दुर्भाग्य आपकी कल्पनायें हैं।

बहुत से मनुष्य अपनी असफलता का दोष दुर्भाग्य के सिर मढ़ते हैं। वे यह समझते हैं कि हम भाग्य के अधीन है और उद्योग अथवा पुरुषार्थ द्वारा अपनी स्थिति को नहीं सुधार सकते। परन्तु वास्तव में बात यह है कि उनकी संकल्प शक्ति ही उनका भाग्य है। मनुष्य के जीवन का सुधार उसके भाग्य पर नहीं किन्तु उसके उद्योग पर निर्भर है। जिस मनुष्य की शक्ति बढ़ी-चढ़ी है, जिसकी योग्यता उच्च श्रेणी की है, जिसके संकल्प में दृढ़ता है वह अनेक दुर्घटनाओं का भी सामना कर सकता है। मनुष्य के भीतर ही वह शक्ति मौजूद है जिसके द्वारा वह उन आपत्तियों को दूर कर सकता है जिनको वह दुर्भाग्य के कारण आई हुई समझता है। जो मनुष्य उन्नति के अवसरों को काम में लाना जानता है और जो अपनी न्यूनताओं की पूर्ति संकल्प शक्ति द्वारा कर सकता है वह अपने जीवन का अवश्य ही सुधार कर सकता है।

क्या तुम ने कभी किसी दृढ़-प्रतिज्ञ व्यक्ति को अपने जीवन का कार्यक्रम निश्चित करते समय किसी बात को भाग्य के भरोसे छोड़ते हुये देखा है? जो मनुष्य भाग्य के भरोसे रहते हैं वे सफलता के लिये कभी भरपूर उद्योग करने में समर्थ नहीं होते। सफलता की प्राप्ति के लिये जितना मूल्य देना पड़ता है उतना वे नहीं देना चाहते। वे सस्ते सौदे की ताक में रहते हैं और सफलता तक पहुँचने का कोई छोटा मार्ग खोजते रहते हैं हमने किसी मनुष्य को उस समय तक कोई महत्वपूर्ण कार्य करते नहीं देखा जब तक कि उसने ‘सौभाग्य’ ‘दुर्भाग्य’ जैसे निरर्थक शब्दों को अपने कोश में से न निकाल दिया अथवा ‘मैं असमर्थ हूँ’ ऐसे विचारों को अपने मस्तिष्क से बहिष्कार न कर दिया।

हमारी भाषा के किसी शब्द का इतना दुरुपयोग नहीं हुआ है जितना कि ‘भाग्य’ का, बहुत से मनुष्य जिनको अपने कामों में असफलता होती है अपने भाग्य को दोषी ठहराते हैं। दुर्भाग्य के सिर जितने दोष, झूठमूठ मढ़े जाते हैं उतने और किसी बात के सर नहीं मढ़े जाते।

-सफलता का मार्ग


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