गायत्री उपासक स्वामी विद्यारण्य जी

December 1991

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दक्षिण भारत के महान संत विद्यारण्य जी का नाम अपनी विलक्षण प्रतिभा के लिए विख्यात है। संस्कृत वाङ्मय में उनकी इतनी अधिक एवं इतनी उच्चकोटि की कृतियाँ हैं कि उन्हें इस युग का व्यास कहा जाता है। वे विद्या के भण्डार सरस्वती के वरद् पुत्र महातपस्वी और अद्भुत प्रतिभावान थे। उनकी प्रतिभा का इतना विकास गायत्री उपासना द्वारा ही हुआ था।

उनका जन्म दक्षिण भारत के एक संभ्रान्त ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बाल्यावस्था विद्याध्ययन में बीती, किन्तु ज्यों ही उन्होंने युवावस्था में प्रवेश किया त्यों ही गायत्री महामंत्र की उपासना आरंभ कर दी। उनकी यह तपस्या पूरे चौबीस महापुरश्चरणों तक चलती रही। उसकी पूर्णाहुति करने के उपरान्त भी जीवनमुक्ति स्थिति में रहकर वे संसार का कल्याण करते रहे तथा जीवनपर्यन्त पीड़ा-पतन निवारण के कार्यों में संलग्न रहें।

साधनाकाल में ही विद्यारण्य की अंतर्निहित शक्तियाँ जाग्रत हो गयी थीं और वे अलौकिक क्षमताओं के स्वामी बन गये थे। छिपाये रखने पर भी उनका परिचय जब तब संपर्क में आने वालों को मिल ही जाता था। इसी अवधि में दो राजकुमार हरिहर राय व बुक्काराय उनकी शरण में पहुँचे। उनका राज्य छिन गया था और वे मारे मारे फिर रहे थे। स्वामी जी का आशीर्वाद प्राप्त करके उन्होंने अपना खोया हुआ राज्य फिर से प्राप्त कर लिया और जीवन भर उनकी शिक्षाओं एवं आदर्शों पर ही राज्य चलाते रहे। जिस प्रकार समर्थ गुरु रामदास की अप्रत्यक्ष प्रेरणा से छत्रपति शिवाजी ने आर्य संस्कृति की रक्षा के लिए राज्य स्थापना की थी, वैसे ही विद्यारण्य जी की कृपा और प्रेरणा से यह दो राजपुत्र विजय नगर राज्य की स्थापना में समर्थ हुए।

स्वामी जी को तप करते हुए दीर्घकाल व्यतीत हो गये, चौबीस पुरश्चरण पूरे हो गये, फिर भी उन्हें गायत्री माता का साक्षात्कार नहीं हुआ। अपनी इस असफलता पर उन्हें बड़ा दुख और निराश होकर उन्होंने संन्यास ले लिया। संन्यास धारण करने के उपरान्त ही उनका नाम स्वामी विद्यारण्य प्रसिद्ध हुआ।

जब वे संन्यासी हो गये तब एक दिन गायत्री माता ने उन्हें दर्शन दिया। इस पर उनको बड़ी प्रसन्नता भी हुई और आश्चर्य भी। उनने माता से पूछा - “मैंने चौबीस पुरश्चरण आपके दर्शनों की इच्छा से किये तब आपने मुझे दर्शन नहीं दिया और अब मैं सब प्रकार की, आपके दर्शन की भी कामना छोड़कर जब संन्यासी हो गया हूँ तब आप अनायास ही दर्शन देने क्यों पधारी हैं? इस पर माता ने उत्तर दिया कि इसके दो कारण हैं। एक तो यह कि जब तक साधक के दिव्य नेत्र नहीं खुलते, मेरा साक्षात्कार नहीं होता। तुम्हारे पुरश्चरणों से पूर्व जन्मों के 24 महापातक नष्ट हुए हैं। और अब तुम इस योग्य हुए हो कि मेरे दर्शन प्राप्त कर सको। दूसरा कारण यह है कि जब तक साधक के मन में कामनाएँ बनी रहती हैं, तब तक वह मुझसे सच्चा प्रेम नहीं कर सकता। कामना और इष्ट देव के साथ-साथ प्यार करते रहना संभव नहीं है। अधूरे प्रेम से मैं प्रसन्न नहीं होती। तुम्हारे मन में मेरे दर्शन की कामना थी। यद्यपि वह इच्छा सतोगुणी थी, फिर भी थी तो कामना ही। अब जब कि तुमने कामना त्यागकर मेरा आश्रय लिया है और सच्ची भक्ति में प्रवृत्त हुए तो फिर मेरा वात्सल्य रुक न सका और मैं तुम्हें दर्शन देने के लिए दौड़ी आई हूं।”

माता भगवती के यह वचन सुनकर स्वामी विद्यारण्य के आनन्द की सीमा न रही और वे आनन्द सागर में मग्न होकर प्रेमाश्रुओं से माता के चरण धोने लगे। गायत्री माता ने उनसे कहा-कुछ वरदान माँगों, उनने कहा- “जिस निष्काम भावना के कारण आपके दर्शन मिले हैं उसे मैं किसी वरदान के बदले नहीं खो सकता। मुझे किसी वरदान की आवश्यकता नहीं है।” तब माता ने अपनी ओर से वरदान देते हुए कहा- “तुम संसार के कल्याण के लिए सद्ग्रंथों की रचना करो। जैसे गणेश जी की कृपा से महर्षि व्यास अठारह पुराण लिखने में समर्थ हुए?, वैसे ही मैं तुम्हारी लेखनी पर सवार होकर संसार के जनमानस के कल्याण करने वाले ग्रंथों की रचना करूंगी”। विद्यारण्य ने माता का आदेश शिरोधार्य किया और सद्ग्रंथों की रचना में लग गये। उनके द्वारा रचित ग्रंथों की एक विशाल सूची है। चारों वेदों के, शतपथ, ऐतरेय, तैत्तरीय, ताण्ड्य, आदि ब्राह्मण ग्रंथों के भाष्य, देशोपनिषद दीपिका जैमिनीय न्यायमाला विस्तार, अनुभूति प्रकाश, ब्रह्म गीता, सर्वदर्शन संग्रह, माधवीय धातु वृत्ति, शंकर दिग्विजय, काल निर्णय, श्री विद्या महार्णव तंत्र, पंचदशी आदि। यह सब गायत्री उपासना का प्रतिफल था जो उनने अपने जीवन में कर दिखाया और अमर बन गये।

अखण्ड-ज्योति परिजनों के लिए विशेष सामयिक संदर्भ-


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