युग-कर्तव्य (Kavita)

December 1991

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उतने ही हम अधिक दुखी होते जाते,

सहें नहीं अब असंतुलन की पीड़ा हम,

पाँव जमाकर चलें, ढलानों पर ठहरें।

त्यागें हम आलस्य, खुमारी धो डालें,

देखो, कैसा हाहाकार मचा है अब,

महाकाल के स्वर में स्वर हम मिला, चलें,

समय बहुत थोड़ा ही शेष बचा है अब,

नवयुग की ऐसी नीवें निर्माण करें।

हिला न पायें जिन्हें प्रलय की भी लहरें।

परिवर्तन की अद्वितीय इस बेला में,

हमको भी अपनी आहुति देनी होगी,

संध्या को संकल्प अटल देकर अपना,

चिंताकुल मन की पीड़ा लेनी होगी,

पल भर की भी देर प्राणघाती होगी,

हम हृदयों की घोर हताशा अभी हरें।

-शचीन्द्र भटनागर

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