महत्वाकाँक्षाओं की पूर्ति कैसे हो?

December 1991

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मनुष्य आगे बढ़ना चाहता हैं, ऊँचा उठना चाहता है। यह उसकी स्वाभाविक इच्छा है। इस दिशा में जिसे जितनी सफलता मिलती है वह उतना ही प्रसन्न और यशस्वी होता है इसलिए पेट भरने के उपरान्त हर जीवंत व्यक्ति का मन उन्नतशील बनने का होता है।

देखना यह है कि वास्तविक उन्नति क्या है और आकाँक्षाओं की पूर्ति क्या पाने कमाने में होती है। प्रचलन को देखते हुए कामना धन की रहती है। क्योंकि धन के बदले सुख-सुविधा के साधन खरीदे जाते हैं। यह खरीद कितनी मात्रा में होनी चाहिए यह विचारणीय है। धन कितना अभीष्ट है, इससे किसी को तृप्ति नहीं होती। वह जितना मिल जाय उतना ही कम है। सुविधा सामग्री आज तो सीमित भी हो सकती है पर भविष्य में वह कितनी अधिक चाहिए, इसकी कल्पना पर कोई अंकुश नहीं रखा जा सकता। आज जिसकी जेब में सौ रुपया है, वह भविष्य के लिए हजारों चाहता है, हजार मिल जाने पर दस हजार या लाख चाहिए। इसका क्या उपयोग होना चाहिए इसके संबंध में भी यही बात है। आज सूती कपड़ा शाल पर है तो कल रेशमी मखमली चाहिए। आज छोटा घर है तो कल कोठी बंगला चाहिए। यह सुविधा सामग्री है। कल्पना के आधार पर इसकी कोई सीमा नहीं, किन्तु वास्तविक उपयोग की एक सीमा है। वह सीमा पूरी हो जाने के बाद उपलब्धियों की बढ़ोतरी भारभूत हो जाती है।

पेट भरने के लिए आधा सेर अनाज चाहिए। यदि किसी के कटोरदान में दस सेर भोजन भर दिया जाय तो उसे सोचना पड़ेगा कि आवश्यकता से जो अधिक है उसका क्या किया जाय? तन ढ़कने को दस गज कपड़ा चाहिए। यदि पचास गज हाथ में हो तो विचार करना पड़ेगा कि जो अधिक है उसका क्या किया जाय? सोने के लिए एक चारपाई से काम चल जाता है पर कहीं से पाँच चारपाई मिल जाय तो सोचना होगा कि शेष का क्या किया जाय?

मनुष्य की व्यक्तिगत आवश्यकताएँ सीमित हैं। यदि व्यक्तिगत में कुटुम्बियों को भी सम्मिलित किया जाय तो वे भी सीमित होते हैं उनकी आवश्यकता जुट जाने के बाद फिर प्रश्न उठता है कि यदि इससे भी अधिक सामग्री है तो उसका क्या किया जाय? उत्तर सामने आता है कि अपने न सही किन्हीं बिरानों के काम आ जायेगी। इस प्रकार विस्तार करते-करते संग्रह की बात चल पड़ती है। संग्रह कितना हो, इसकी कोई सीमा नहीं है। क्योंकि इसका संबंध आवश्यकता से नहीं, इच्छा से है। इच्छाएँ असीम हैं।

इच्छाओं में धन ही प्रमुख है। हर कोई असीम धन चाहता है ताकि असीम सुख साधनों का उपभोग किया जाय। उचित उपयोग की एक सीमा है। अनुचित उपभोग करना हो तो व्यसनों के रूप में यह असीम भी हो सकता है, संग्रह के रूप में भी।

मनुष्य के कमाने का सामर्थ्य भी सीमित है। बाहुबल, बुद्धिबल साधन और पराक्रम आदि के सहारे हर आदमी एक सीमित मात्रा में ही कमा सकता है। पर यदि असीम कमाने की इच्छा है तो उपार्जन की मर्यादाओं से बाहर जाना पड़ेगा। अधिक मुनाफा लेना या श्रमिकों को कम देना आदि उपाय अपनाना पड़ेगा। बिना ऐसा कुछ किये असीम धन उपलब्ध कर सकना संभव नहीं। उचित कमाई की एक सीमा है उचित खर्च भी असीम नहीं हो सकता। ऐसी दशा में असीम धन किसी के पास कहाँ से आये? फिर मनुष्य की अंतरात्मा का भी तकाजा है। पिछड़े लोगों की सहायता के लिए समाज में सत्प्रवृत्तियां बढ़ाने के लिए अपने पास जो है उसका एक बड़ा अंश परमार्थ रूप में हस्तान्तरित किया जाना चाहिए। यह पुकार भीतर से ही उठेगी। समाज में दुखियारों पिछड़े हुए लोगों की कमी नहीं, वैसे अपने आस-पास ढेरों होते है। उन्हें न दिया जाय तो लगता है कि चोरी जैसा कुछ किया जा रहा है। सत्प्रवृत्तियों को बढ़ाये बिना समाज उन्नतिशील नहीं हो सकता। ऐसी ढेरों माँगें सामने रहती हैं।

उनकी ओर से कृपणता, निष्ठुरता अपनाई जाय तो भी आत्महनन जैसा होता है। दिया जाय तो जो थोड़ा बहुत जमाकर लिया गया था उसे खाली कर देने का मन करता है। ऐसी दशा में कोई ईमानदार आदमी संपन्न नहीं हो सकता। पूरी क्षमता लगाकर अधिक से अधिक जो कमाया जा सकता है, वह जरूरतमंदों के लिए चला जाता है।

आत्म हनन करके अनीतिपूर्वक कमाया और निष्ठुरता पूर्वक जमा किया जाय तो संचित धन का कोई महत्व नहीं। वस्तुतः धन संचित रहता भी नहीं, वह अहंकार प्रदर्शन करने में, दुर्व्यसनों में, किसी न किसी रास्ते खर्च होने लगता है। अपने काम न आये तो कुटुम्बियों संबंधियों के हाथों वह विलासिता और अहंकार प्रदर्शन में चला जाता है। इतने पर भी बचा रहे तो उसे चोर, चापलूस, कुकर्मी डॉक्टर आदि हरण कर लेते हैं। धनी दीखते तो हैं, पर वस्तुतः वे होते नहीं उनके धंधे का फेर ऐसा होता है कि पूँजी सदा कम ही प्रतीत होती रहती है। कुछ और होता तो अधूरी योजना पूरी होती। यही लगता रहता है ऐसी दशा में वह अभाव ग्रस्त दरिद्र ही रहा, भले ही बाहर वालों को सम्पत्तिवान दृष्टिगोचर होता रहे।

महत्वाकाँक्षाओं की प्रचलित मान्यताओं में धन ही प्रधान है, उसकी पूर्ति में कितने झंझट है यह स्पष्ट है। लाभ इतना ही है कि दूसरे लोगों को यह भ्रम बना रहता है कि यह धनवान है। कमाने में अनीति, खर्चने में अनौचित्य, इन दोनों कारणों से न तो अंतरात्मा संतुष्ट हो पाती है और न विवेकशील जनों की आँखों में वह दूरदर्शी ठहरता है। आतिशबाजी का तमाशा करने वालों की तरह ऐसे लोग ऊटपटाँग खेल खेलते रहते हैं। जिसे महत्वाकाँक्षा कहना चाहिए। वह हो नहीं पाती। न वे साँसारिक दृष्टि से आगे बढ़ते हैं और न आत्मिक दृष्टि में ऊँचे उठते हैं। बहुमूल्य मानव जीवन धीरे धीरे इसी गोरखधंधे में समाप्त हो जाता है।

फिर उस आकाँक्षा की तृप्ति कैसे हो, जो जन्म के साथ आरम्भ होती है और मरणपर्यन्त लगी रहती है। इसके लिए दूसरों का अनुसरण करने से काम न चलेगा। जब अपने को रोटी कपड़ा ही मिलना है तो उतने से ही संतोष करके श्रेय पथ पर क्यों न चला जाय। अपनी क्षमताओं को उन कार्यों में नियोजित क्यों न किया जाय जो हाथों-हाथ प्रसन्नता देती हैं, बुद्धिमानों की दृष्टि में विवेकशील ठहरती हैं और ऐसी राह बनाती हैं जिस पर चल कर अन्य लोग भी अपना कल्याण कर सके और दूसरों को पार उतार सके। सृष्टा ने जिस दिन मनुष्य शरीर दिया, उसी दिन यह काम सौंपा कि इस विश्व उद्यान को अधिक सुरम्य बनाने में अपनी क्षमताओं को नियोजित किया जाय। मनुष्य समुदाय को सुसंस्कृत बनाने के लिए अपना पुरुषार्थ नियोजित किया जाय। परमार्थ ही वास्तविक स्वार्थ साधन है। दूसरे को हित साधन के साथ अपना पराक्रम ऐसी क्षमताओं को विकसित करने में नियोजित किया जाय, जिनके सहारे लोकहित कर सकने की क्षमताएँ हस्तगत हो सकें।

गुजारे का प्रश्न अति सरल है। जिस दिन जन्म मिला, उसके पूर्व ही दूध के दो कटोरे भरे हुए प्रदान किये गये। माता के रूप में ऐसी सेविका भेजी गयी जो समय समय पर हर आवश्यकता को तत्काल पूरी करती रहती है। जब बोलना तक नहीं आता था तब जन्म काल में जीवन की आवश्यकता पूरी करने का समस्त सुयोग बनाकर भेजा तो बड़े होने पर निर्वाह का प्रश्न न हल हो सके ऐसा कोई कारण नहीं, कमी कुछ है नहीं। अधिक के लिए हाथ पैर पीटने पर जो हाथ लगेगा, वह हैरानी उत्पन्न करने और समस्याओं में उलझने के अतिरिक्त और कुछ कर सके ऐसा दीखता नहीं।


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