सूर्य की साधना से मिलती है-सद्बुद्धि!

December 1991

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जिस प्रकार दीपक को ज्ञान का, राष्ट्रीय ध्वज को देशभक्ति का, प्रतिमा को देवता का प्रतीक माना जाता है उसी प्रकार आकाश को निरन्तर ज्योर्तिमय बनाये रहने वाले सूर्य को तेजस्वी परब्रह्म का प्रतीक माना और सविता कहा गया है। गायत्री का जप करते समय इस सविता का ही ध्यान किया जाता है। सावित्री का तो यह सविता युग्म ही है, गायत्री-सावित्री उपासना के माध्यम से इसी सविता शक्ति का अवतरण होता है। शाकानन्द तरंगिणी 3/4/1 में भी कहा है-

“गायत्री भावयेद्देवी सूर्यांसारकृताश्रयाम्।

प्रातमध्यान्ह सन्ध्यायं ध्यानं कृत्वा जपेत्सुधीः”

अर्थात् बुद्धिमान मनुष्य को सूर्य के रूप में स्थित गायत्री महाशक्ति का प्रातः, मध्याह्न और सायं त्रिकाल ध्यान करके जप करना चाहिए।

अन्यत्र भी उल्लेख है-

“देवस्य सवितुर्यच्च भर्गमर्न्तगतविभुम।

ब्रह्मवादिन स्वाहुर्वरेण्यम् तच्च् धीमहि॥”

अर्थात् सविता देव के अंतर्गत तेज को ब्रह्मज्ञानी वरेण्य-श्रेष्ठ कहते हैं, उसी का हम ध्यान करते हैं।

अर्थात् सविता की भौतिक और अध्यात्मिक क्षेत्र में महती भूमिका का शास्त्रकारों ने उल्लेख किया है और ब्रह्मतेजस् प्राप्त करने के लिए सविता के साथ संबद्ध होने का निर्देश दिया है। महामनीषी महीधर का कहना है कि सविता मण्डल में ब्रह्म स्वरूप पुरुष विद्यमान है। वह प्रकाश वान ज्योतिपुँज, प्रेरक तथा प्राणियों की अंतःस्थिति को जानता है। समस्त विज्ञान से विभूषित वह आनन्द स्वरूप है। वेदान्त में उन्हीं का प्रतिपादन हुआ है। वह समस्त सृष्टि का संहार करने में समर्थ है। वह वरण करने तथा प्रार्थना करने योग्य सत्य स्वरूप है। उनका ध्यान करने से हमारी अंतरात्मा में ज्ञान विवेक और आनन्द प्रदान करने वाला दिव्य तेज बढ़ता हुआ चला जाता है। शास्त्रकार कहते हैं-

‘बुद्धे बोधयिता यस्तु चिदात्मा पुरुषो विराट्।

सवितुस्तद्वरेण्यन्तु सत्यधर्माणभीश्वरम्॥’

अर्थात् बुद्धि के सन्मार्ग पर लगाने वाला जो विराट् चिदात्मा पुरुष है, वही सत्य, धर्म, ब्रह्म रूप, वन्दनीय, सविता है। महर्षि अगस्त्य भी इस तथ्य की पुष्टि करते हुए कहते हैं-

‘यो देवः सवितास्माकं धियो धर्मादि गोचराः।

प्रेरयेत्तस्य यद्भर्गस्तं वरेण्यमुपास्महे ॥’

अर्थात् सविता नामक जो देवता हमारी बुद्धि को धर्मादि में लगाते हैं, उनके वन्दनीय तेज की हम उपासना करते हैं।

महातपस्वी पराशर मुनि का कथन है-

‘देवस्ये सवितुर्भर्गो वरणीये च धीमहि।

तदस्माकं धियो यस्तु ब्रह्मत्वेव प्रचोद्यात्॥’

अर्थात् सविता देवता के प्रशंसनीय तेज का हम ध्यान करते हैं जो हमारी बुद्धि को ब्रह्मत्व में प्रेरित करे।

आत्मोत्कर्ष की दिशा में आगे बढ़ने के लिए देवता की आराधना या ध्यान-धारणा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, मोक्ष पद के अभिलाषियों ब्रह्मपरायण साधकों के लिए उपनिषदों में माया के बंधनों से, कुसंस्कारों, कषाय-कल्मषों से छुटकारा पाने के लिए प्राणविद्या, पंचाग्नि, विद्या, मधु विद्या, पुरुष विद्या, षाडिविद्या, शाण्डिल्य विद्या आदि इन 32 प्रकार की विधाओं उपासनाओं का सुविस्तृत उल्लेख किया गया है। उनमें उद्गीथ विद्या के अंतर्गत अंतरादित्य विद्या का वर्णन है जिसमें सूर्य मण्डल में ध्यान करने का विधान है। सूर्यमण्डल मध्यस्थ महाप्रज्ञा गायत्री की आराधना साधक को परम पवित्र बनाती है और मनोरथों को पूर्ण करती है। महाभारत वन पर्व में स्पष्ट उल्लेख है कि सूर्य से ही समस्त जगत प्रकाश पाता है। वही जीवों की उत्पत्ति का कारण भी है। मुक्तिदाता भी वही हैं। उसकी उपासना कभी भी निष्फल नहीं जाती। जो व्यक्ति कोई मन को संयमित एवं चित्त को एकाग्र कर सूर्य की उपासना आराधना करेगा, उसकी इच्छा पूर्ति होगी, इसमें कोई संशय नहीं।

अग्नि पुराण में सूर्योपासना के संबंध में विस्तार पूर्वक वर्णन है। उसमें कहा गया है कि गायत्री महामंत्र द्वारा सूर्य की उपासना आराधना करने से वह प्रसन्न होते हैं और साधक का मनोरथ पूर्ण करते है। गायत्री का प्रज्ञा योग सविता शक्ति के साथ जुड़ा हुआ है। गायत्री उपासना इस रहस्य को समझाते हुए सूर्योपस्थान सूर्यार्घ्यदान आदि क्रिया-कृत्य संपन्न करते हैं और बदले में सद्बुद्धि का अनुदान प्राप्त करते हैं। प्रकाश पुँज सविता की ध्यान-धारणा साधक को प्रखर प्रज्ञा का, महापुराण का दिव्य वरदान प्रदान करती है, यह एक सुनिश्चित तथ्य है।


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