हारमोन रसायनों का अद्भुत विलक्षण संसार

December 1991

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मानव की शारीरिक मानसिक और अध्यात्मिक खूबियों खामियों में हारमोन रसायन महत्वपूर्ण भूमिका संपन्न करते हैं। शरीर के प्रमुख क्रिया कलापों को यह रसायन तंत्र प्रभावित तो करता ही है, साथ ही व्यक्ति के स्वभाव, मानसिक स्तर आदि पर भी अपना असर डालता हैं। अंग-अवयवों के विकास, चयापचय, भावात्मकता, एवं समग्र व्यक्तित्व को हारमोन रसायनों की घट बढ़ से प्रभावित परिवर्तित होते देखा जाता है। इन हारमोनों के प्रमुख स्रोत अंतःस्थित नलिका विहीन कुछ ग्रंथियाँ होती हैं जिन्हें ‘एण्डोकाइन ग्लैण्ड’ या ‘अंतःस्रावी ग्रंथियाँ’ कहा जाता है। इनसे निस्सृत रसायन ही हारमोन कहलाते हैं और अपने उद्गम स्रोत से निकल कर सीधे रक्त प्रवाह में मिल जाते हैं। इनका संबंध मनुष्य जाति की विशेषताओं एवं सूक्ष्म शक्ति केंद्रों षट्चक्रों से भी होता है जिन्हें विज्ञान की भाषा में प्लेक्सस कहा जाता है।

पाया गया है कि हारमोन रसायनों का मानवी मन से गहरा संबंध है। एक के लड़खड़ाने पर दूसरा भी विकारों से ग्रस्त हो जाता है। अनुसंधानकर्त्ता वैज्ञानिक भी अब यह मानने लगे हैं कि एक ओर जहाँ हारमोन रसों को उत्पादन या प्रवाह में तनिक भी व्यतिक्रम या अवरोध उत्पन्न हो जाने पर शरीर का ही नहीं मन का भी सारा ढांचा गड़बड़ाने लगता है। वहीं दूसरी ओर यह भी सत्य है कि मनुष्य की अच्छी बुरी भावनाओं के द्वारा ही भले बुरे हारमोन शरीर में स्रावित होकर रासायनिक संतुलन या विकृति उत्पन्न करते हैं। प्रत्येक मनोभावों का पृथक विश्लेषण तो नहीं किया जा सकता पर विविध वैज्ञानिक प्रयोगों से यह अब निर्विवाद रूप से सिद्ध हो चुका है कि शुभ और अशुभ मनोभाव अंतःस्रावी ग्रंथियों को प्रभावित करके दूरगामी भले बुरे परिणाम उत्पन्न करते हैं। मन की, भावनाओं की शुद्धता और पवित्रता ही इस तंत्र की सक्रियता एवं सुदृढ़ता का आधार है। यदि यही तंत्र. दबा हुआ एवं विकृत बना रहे तो व्यक्ति स्वस्थ एवं प्रसन्न कैसे रह सकता है? व्यक्तित्व और प्रतिभा प्रखरता का लाभ उठा पाना ऐसी स्थिति में संदिग्ध ही बना रहेगा।

शरीर में चुस्ती, थकान, सर्दी, गर्मी का बाहुल्य, कद का बहुत छोटा या बहुत बड़ा होना, मंद और तीव्र बुद्धि, साहस और भीरुता, सौंदर्य और कुरूपता जैसी बातों का आधार ये ग्रंथियाँ हैं। जो हारमोन रसों को प्रवाहित करती रहती हैं और उसे रक्त में मिलाकर संजीवनी का काम करती हैं। मानवी काया में इस प्रकार की अंतःस्रावी ग्रंथियों की संख्या सात है (1) पीनियल ग्रंथि जो मस्तिष्क के मध्य में स्थित होती है (2) पिट्यूटरी ग्रंथि-मस्तिष्क मूल में (3) थाइराइड एवं पैराथाइराइड-ग्रीवा में (4) थायमस ग्लैण्ड- सीने में (5)एड्रीनल- गुर्दे के ऊपर (6) पैंक्रियाज- आमाशय के नीचे वाले भाग के पीछे स्थिति ग्रंथि एवं(7) गोनेड्स- प्रजनन ग्रंथियाँ। सामान्य अवस्था में ये ग्रंथियाँ बारह से अधिक प्रकार के हारमोन रसायन उत्सर्जित करती हैं। किन्तु भावनाओं से प्रभावित होने पर यह ऐसे विशेष प्रकार के रसायन भी उत्पन्न करती हैं जो हर्ष उत्साह आदि उत्पन्न करती और समूचे व्यक्तित्व को बदल कर रख देती हैं। शरीर के विभिन्न स्थानों में स्थित होते हुए भी सातों अंतःस्रावी ग्रंथियाँ संगीत के सप्त स्वरों की भाँति अपनी-अपनी जिम्मेदारियों का तालमेल बिठाये रहती हैं। इनमें से किसी एक के असंतुलित होते ही औरों की गतिविधियाँ भी असंबद्ध होने लगती हैं।

नलिका विहीन ग्रंथियों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण ‘पिट्यूटरी’ या ‘पीयूष’ ग्रंथि होती है। इसका स्थान मस्तिष्क में प्रति पृष्ठीय भाग में दोनों आँखों को मिलाने वाले स्थान पर ललाट के पीछे होता है। इसका मन से सीधा संबंध होता है, अतः मन में उठने वाली हर तरंग इसको प्रभावित करती हैं। पिट्यूटरी को मास्टर ग्लैण्ड भी कहा जाता है। बुद्धि की तीव्रता, आत्मीयता, उत्साह, आत्मनियंत्रण, इसका प्रमुख कार्य है। बौनापन या लम्बाई की बढ़ोत्तरी से इसी की विकृति का संबंध है। पुरुषत्व और नारीत्व का दिशा परिवर्तन यही से होता है, यौवन के उतार-चढ़ाव तथा प्रजनन सम्बंधी गतिविधियों का नियमन इसी केन्द्र द्वारा होता है। योगशास्त्रों में वर्णित सहस्रार चक्र के विकास एवं उससे स्रावित सोम का संबंध भी इसी ग्रंथि से है।

विशेषज्ञों के अनुसार पीयूष ग्रंथि यदि निकाल दी जाय तो शरीर की वृद्धि रुक जाती है। किसी कम उम्र के बच्चे के शरीर से यदि इसे हटा दिया जाय तो बुढ़ापे तक उसका शरीर बच्चों जैसा ही रहेगा। इसके विपरीत यदि उस ग्रंथि की सामर्थ्य बढ़ा कर इसके स्राव की मात्रा अधिक कर दी जाती है तो दैत्याकार शारीरिक विकास भी संभव है। वैज्ञानिक प्रयोगों के आधार पर कद के साथ पिट्यूटरी ग्रंथि का अविच्छिन्न संबंध सिद्ध भी हो चुका है। सिकंदरिया के राजदरबार के अलीपियस नामक विदूषक का कद मात्र सत्रह इंच था तथा तोते के पिंजड़े में भी वह आसानी से समा जाता था। इसी तरह विश्व का सबसे ऊँचा 9 फीट वाला राबर्ट वाइलो और 24 इंच ऊँचा बौना टामथम्ब अपनी विलक्षणता इसलिए प्रस्तुत कर सके कि उनकी पिट्यूटरी ग्रंथि के स्रावों का अनुपात रक्त में असाधारण स्तर का था।

वाशिंगटन विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डॉ. एडगर एलन तथा डॉ. एडवर्ड ए. डौजी ने अपने अनुसंधान निष्कर्षों में बताया कि यौन उत्तेजना का प्रमुख कारण पीयूष ग्रंथि है। इससे स्रावित हारमोन रसायन यौन आकाँक्षाओं में तीव्रता ओर मंदता की स्थिति उत्पन्न करते हैं। यदि रोगियों की तरह साधारण मनुष्य भी इस ग्रंथि पर नियंत्रण साध सके तो वासनात्मक उभार पर सहजता से नियंत्रण पाया जा सकता है। इस ग्रंथि से उत्पन्न असंतुलन या विकृति से प्रजनन अवयवों का द्रुतगति से विकास होता है और प्रायः किशोरावस्था आने से पूर्व ही मनुष्य में युवावस्था के सभी चिह्न उभर आते हैं। इस तरह ग्रंथि सक्रियता के बढ़ जाने पर व्यक्ति का शरीर असाधारण रूप से ऊँचा और निष्क्रियता अपनाने पर कद बौना रह जाता है।

“द ग्लैण्ड्स आफ डेस्टिनी” नामक प्रसिद्ध कृति में मूर्धन्य वैज्ञानिक डॉ. कोब ई. गैकी ने बताया कि पिट्यूटरी ग्रंथि पर नियंत्रण रखने और उसका समुचित विकास कर लेने वाले कुछ लोगों ने इतिहास पर अधिकार रखा है और जमाने को बदल दिया है। ईसा, बुद्ध, गाँधी, लिंकन आदि ऐसे ही महापुरुष थे जिनमें आत्मानुशासन की, स्व नियंत्रण की, आत्म संयम की महान क्षमता थी। यही कारण था कि न केवल अपने समय में वरन् आने वाली मानव पीढ़ियों के लिए भी वे आदर्श कर्तृत्व एवं आदर्श नेतृत्व की अमिट छाप छोड़ गये। पिट्यूटरी ग्रंथि की विकृति का वर्णन करते हुए डॉ. गैकी ने आगे कहा कि नैपोलियन अपने पराक्रम एवं दूरदर्शी निर्णय लेने के लिए विख्यात था। जब तक उसकी हारमोन ग्रंथियाँ सशक्त बनी रही, वह युद्ध में सतत् जीतता रहा, कभी हारा नहीं पर वाटर लू के युद्ध में हार गया। उसके शव का अन्त्य-परीक्षण करने वाले डॉक्टरों ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि इस युद्ध के समय नैपोलियन की पिट्यूटरी ग्रंथि में विकृति आ गयी थी जिसके कारण वह सही समय पर उचित निर्णय नहीं ले सका और अंतर्द्वन्द्व एवं असमंजस ग्रस्त बना रहा और अवसर चूक गया।

अध्यात्म शास्त्रों में पिट्यूटरी ग्रंथि को हाइपोथेलेमस से जुड़े सहस्रार चक्र से संबद्ध बताया गया है और कहा गया है कि सहस्रार से स्रावित होने वाले अमृत रससोम के ग्रहण ओर वितरण में इसकी प्रमुख भूमिका है। आधुनिक शरीर क्रिया विज्ञानी भी इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि अनेक महत्वपूर्ण मस्तिष्कीय रसायनों का स्राव पीयूष ग्रंथि से होता रहता है। जो साधक या योगी इस रहस्य को जानते हैं, वे इन रसायनों को यों ही व्यर्थ नहीं होने देते, वरन् उसे धारण कर ओजस् तेजस् से लाभान्वित होते हैं। कुँडलिनी महाशक्ति से इसे संबद्ध कर मूलाधार चक्र एवं सहस्रार चक्र के मध्य समन्वय स्थापित करते और अमरत्व का पद प्राप्त करते हैं।

हारमोन रसों के बारे में यही मान्यता है कि उनकी न्यूनाधिकता को घटाया बढ़ाया जाना कठिन है। अपने निज के अंतःस्रावी ग्रंथियों को उत्तेजित या शिथिल करने में स्थायी प्रभाव उत्पन्न करने वाले उपचारों में अभी चिकित्सा विज्ञान को यत्किंचित् ही सफलता मिली है। हारमोन स्राव इतने महत्वपूर्ण और इतने अनियंत्रित हैं कि मनुष्य के लिए अभी भी एक पहेली बने हुए हैं। किन्तु प्राचीन तपस्वी, ऋषियों, योग विद्या विशारदों ने अनुसंधान के पश्चात यह जान लिया कि योगाभ्यासपरक किन उपाय उपचारों से शरीर में स्थित ग्रंथितंत्र, एवं सूक्ष्म शक्ति केन्द्रों, चक्रों को जाग्रत एवं विकसित किया सकता है। उन्हें सशक्त सक्रिय बनाया और उनसे लाभान्वित हुआ जा सकता है। आसन, प्राणायाम, ध्यान आदि परक अष्टग योग के विधि विधानों का सृजन इसी निमित्त हुआ था, इनका आश्रय लेकर हर कोई अपने ग्रंथि समूह एवं षट्चक्रों को जाग्रत कर अमृत रसायनों का रसास्वादन करते हुए महानता का वरण कर सकता है।


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