सर्वोपरि उपलब्धि

December 1991

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

यों तो कच ऋषि शुक्राचार्य के आश्रम में एक विद्यार्थी मात्र था। किन्तु उसके सद्गुणों, सहज ग्रहणशील बुद्धि, स्वभावगत मधुरता तथा कर्तव्यनिष्ठ व्यक्तित्व के कारण वे उसे पुत्रवत् मानते थे। उतनी ही आत्मीयता तथा स्नेह था उसके प्रति ऋषिवर का जितना अपनी निज की एक मात्र सन्तान देवयानी से था।

इस समय उसके सामने बड़ी ही जटिल समस्या थी। गुरु पुत्री देवयानी भी वर्षं से उसके साथ ही रहने के कारण निशि-दिवस की साहचर्य था। देवयानी को वह निज की बहिन के जैसा मानता था। गुरु कन्या आखिर बहिन ही तो होती है। और स्नेह भी उतना था उसके प्रति जिसकी तुलना नहीं हो सकती। गंगोत्री की पावन धारा सा निर्मल निष्कलुष स्नेह।

किन्तु देवयानी-पता नहीं कब उस निर्मल स्त्रोत से सींच-सींच कर अपने उर में प्रणयाँकुर लगा बैठी। मानस पटल पर कच की मूर्ति जीवन देवता के रूप में प्रतिष्ठित की और उसमें पता नहीं कितनी भावनाओं तथा सम्भावनाओं के अरुणाभ रंग भर दिए।

अब जब वह अपनी विद्याध्ययन की अवधि समाप्त कर देव लोक जाने को हुआ तो देवयानी का प्रणयासक्त निवेदन सामने रास्ता रोके खड़ा था। आज प्रातः ही तो देवयानी ने अनुरोध किया था कि “तुमसे विवाह किये बिना मैं नहीं रह सकती।” कच को वही समस्या उद्वेलित किये थी।

सायंकाल फिर वही प्रसंग। निस्तब्ध वातावरण। उद्यान की समस्त मधुरता जैसे स्पन्दनहीन थी इस समय। एक स्फटिक शिला पर दोनों बैठ थे। देवयानी अश्रुपूरित नयनों से देख रही थी कच की भाव भंगिमाओं को। आखिर उससे न रहा गया तो बोली “मैंने ने क्या अपराध कर डाला ऐसा जो बोलते भी नहीं कुछ।” कच ने तत्परता से कहा कि ऐसा न कहो देवयानी! मैंने कब कहा कि तुमने कोई अपराध किया है। मैं तो अपनी बात कह रहा था -आखिर तुम मेरी बहन हो गुरु कन्या। मैं तुमसे कैसे..................।”

“पर यह तो सोचो कच मैं तुम्हारे बिना कैसे रह रहूँगी। आज तक जिन सपनों के सहारे जीवन का सृजन किया था, उनके टूट जाने पर कैसे जीवन धारण करूंगी।”

कच बोला “स्वप्नों को आकाश महल से अधिक महत्व इस धरती पर बसे घरों का होता है। सिद्धाँत इस आदर्श कल्पनाओं से कही अधिक मूल्यवान होते हैं।” डबडबाई आंखें पोछते हुए देवयानी ने बोलने का प्रयास किया। उसकी वाणी में कंपकंपी की स्पष्ट झलक थी, “आत्म संतोष का अपना महत्व है कच। जीवन में उसको पाने के लिए ही तो हम सब निरन्तर प्रयत्न शील है। अनादि काल से जीवन उसी की खोज में निरन्तर धावमान है। कच मैं अंतिम बार फिर तुम्हारे सामने अपनी झोली फैलाती हूँ।”

किन्तु वह व्यक्तित्त्व तो जैसे पत्थर की चट्टान की तरह अडिग था। सान्त्वना के स्वर में कहने लगा मेरे हृदय के स्नेह की तुम सदा ही से अधिकारिणी रही हो और भविष्य में भी इसी प्रकार मैं सदा ममता ओर प्यार देता रहूँगा पर बहन मान कर ही निर्मल स्नेह की निर्झरिणी सर्वदा तुम्हारे लिए बहती रहेगी देवयानी।

आदर्शों ओर मर्यादाओं को छोड़कर जीवन धारण किये रहना मृत्यु से अधिक कष्टकारक है।

देवयानी का धैर्य टूट गया। दुःख जब अपनी सीमा पार कर जाता है तो फिर क्रोध में बदल जाता है। उसे क्षुब्धता ने इतना आक्रान्त कर दिया कि मानसिक संतुलन बनाये न रख सकी और शाप देने पर उतारू हो उठी, अंततः उसने शाप दे ही डाला “तुमने जो भी विद्या मेरे पिता से सीखी है- वह सब विस्मृत हो जाय।”

शाप सार्थक हुआ और कच संजीवनी विद्या जिससे मृतक दुबारा जीवित हो सकता था भूल गया। फिर भी उसे असीम संतोष था। विद्या खोकर भी उसने धर्म मर्यादा और नीति की रक्षा कर ली।

विद्या का अर्जन पुनः संभव है किन्तु मर्यादा एक बार टूटी तो समूची मानवता पतन के गहरे गर्त के सामने लगेगी। बड़ी वस्तु के लिए छोटी कम महत्वपूर्ण वस्तु का त्याग यही शाश्वत नियम है। इसी से लोक जीवन में आदर और सम्मान मिलता है। और इसी से मिलती हैं संसार में सबसे बड़ी उपलब्धि आत्म संतोष।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles