महामानवों की ढलाई करने वाला- उच्चस्तरीय मनोविज्ञान

December 1991

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सामान्यतया जीवनक्रम की इतिश्री साधन सुविधाओं को अर्जित करने और भोगने में मान ली जाती है। इतने पर भी हर युग में कुछ ऐसे व्यक्ति होते आये हैं जिन्होंने सामान्य से दीख पड़ने वाले जीवन को असामान्य बनाया। उसे इस रूप में ढाला कि देखने वाले कठिनतापूर्वक विश्वास कर सकें यह पहले वाला वही साधारण व्यक्ति हैं जो अब कतिपय सूत्रों को अपनाकर असाधारण हो गया है।

बाहर से रूप रंग काया ढांचा के आधार पर विवेचना विश्लेषण करने पर प्रायः सभी एक समान दिखाई देते हैं। इतने पर भी निर्विवाद रूप से यह स्वीकारा जाता है कि शंकराचार्य, विवेकानन्द, गाँधी, बुद्ध सरीके व्यक्ति सामान्य से परे महान थे। कौन सी चीज है, जो उनकी महानता का कारण बनी? शारीरिक ढांचे में अंतर तो कोई खास था नहीं। साधन सुविधाओं की दृष्टि से भी वे बहुत अधिक समुन्नत नहीं कहे जा सकते थे। फिर उन्होंने इसका आश्रय भी नहीं लिया जिससे कोई यह कह सके कि उनकी ख्याति इन्हीं से फैली हो। फिर भी कारण क्या है? उत्तर मनोविज्ञान देता है। इस दिशा में प्रगति की ओर बढ़ते कदम इस महानता के रहस्य को बहुत करीब से अनुभव करने लगे हैं। इसमें जुटे हुए वैज्ञानिकों ने अध्यात्म को महामानव ढालने का विज्ञान कह कर स्वीकारा है। वास्तविकता भी यही है। व्यक्ति की महानता बाह्य परिस्थितियों, साधन सामग्रियों अथवा किसी वस्तु पर निर्भर नहीं करती। यह तो मानवीय चेतना की एक अवस्था का नाम है। जिसकी प्राप्ति आध्यात्मिक प्रणाली के द्वारा काटने-छाँटने-तराशने से ही हो सकती है। कोई भी किसी स्तर का व्यक्ति बिना किसी भेद भाव के इसे उपलब्ध करा सकता है।

मनुष्य के चिंतन, चरित्र, व्यवहार की निर्भरता उसकी आँतरिक चेतना के स्तर पर निर्भर है। यदि यही अनगढ़ है, तो फिर जीवन में उत्कृष्टता आए कैसे? आँतरिक चेतना को समझाते हुए अध्यात्म मनोविज्ञान ने इसे कल्पना, मन, विवेचना बुद्धि, चित्त अचेतन संस्कार और अहं मान्यता कह कर स्पष्ट किया है। यही चार क्षेत्र मिल जुल कर मनुष्य जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को ऊँचा उठाते या नीचा गिराते हैं। इसी को सुधारने सँवारने पर जीवन सुधर सँवर सकता है।

अभी तक इनको सुधारने सँवारने वाली अध्यात्म विद्या को गुह्य विद्या के रूप में जाना माना जाता था। अब भी इस प्रक्रिया के अस्तित्व से तो इन्कार नहीं किया गया है, पर उसके प्रति मान्यता कुछ ऐसी बन गयी थी कि इसका उपयोग कुछ ही व्यक्तियों द्वारा संभव है। इसके उपचार भी सर्वजनीन व वैज्ञानिक नहीं हैं न माने जाते थे। पर ये विगत युगीन मान्यताएँ अब समाप्त प्रायः हो गयी हैं। आज अध्यात्म एक सशक्त उच्चस्तरीय मनोविज्ञान के रूप में उभर कर सामने आ गया है।

आधुनिक समय में मनोवैज्ञानिक सिर्फ शरीर व मन तक सीमित नहीं रहा। इसका उपयोग न केवल गड़बड़ियों को ठीक करने में रहा, बल्कि इसकी और भी गति हुई कि अनगढ़ को सुगढ़ और सुगढ़ को और अधिक स्वरूपवान कैसे बनाया जाय? अध्यात्म के सूत्र सिद्धाँतों को वैज्ञानिकता की कसौटी पर खरा साबित करने वालों के लिए कई धाराएँ हैं। इनमें बुद्धि मनोविज्ञान प्रमुख है। जिसकी विवेचना जी. डब्लू. आलपोर्ट की “दि कोर्स ऑफ बिकमिंग“, सी. आर. राजर्स की “टूवर्डस ए थ्योरी ऑफ क्रिएटिविटी एण्ड इट्स कल्टीवेशन” आदि में मिलता है। इनके अतिरिक्त फ्रैंकल, इरा प्रोगाफ आदि ने अन्य धाराएँ विकसित की हैं जिसे उन्होंने “आर्थो साइकोलॉजी” नाम दिया है। इसी तरह राबर्टी असागिओली ने साइको सिंथेसिस नामक पद्धति विकसित की है। इन सभी धाराओं का समूह मनोविज्ञान के क्षेत्र में तीसरी शक्ति के रूप में विख्यात हुआ है। कुछ ने इसे मनोविज्ञान आध्यात्मीकरण की संज्ञा दी है।

प्रश्न नाम का नहीं है। सवाल यह है कि अध्यात्म के सूत्रों, तकनीकों, प्रक्रियाओं के वैज्ञानिकता की कसौटी पर खरे उतरने मात्र से ही क्या मानव जाति अपनी विस्मृत सम्पदा को फिर से पहचान सकेगी? मनोविज्ञान को समूचे खोजने में दो चीजें भरी हैं सूत्र और तकनीक। सूत्रों की स्थिति का विवेचन होने के साथ तकनीकों के संकेत हैं। तकनीकों द्वारा स्थिति को ठीक करने के प्रयास किये जाते रहे। सारी पद्धति का एक ही उद्देश्य था कि रोगी को निरोग कैसे किया जाय। अध्यात्म मनोविज्ञान न सिर्फ मानसिक परेशानियों से छुटकारा दिलाता है बल्कि उससे एक कदम और आगे बढ़कर महानता को उपलब्ध कराने, जीवन को गरिमापूर्ण बनाने का राज खोलता है।

बात सही भी है हमारे अंतराल (चित्र) के पाँच अवस्थाएँ हैं क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध। पहली में आँतरिक स्थिति हमेशा चलायमान रहती है। परिणाम स्वरूप चिंतन व व्यवहार भी अस्थिर होता है। सामान्यतया इस स्थिति में छोटे बच्चे रहते हैं, पर कभी कभी बड़ों में इसकी उपस्थिति रहने पर उनमें बचकानेपन के लक्षण दिखाई पड़ते हैं। मूढ़ स्थिति जड़ता अथवा पागलपन की दशा है। इसमें समूचा जीवन क्रम नष्ट प्रायः होता है। तीसरी स्थिति औसत व्यक्ति की है। कभी दुखी कभी सुखी कभी हैरान परेशान कभी प्रफुल्ल प्रसन्न। ऐसी दशा में मनुष्य साधारण सोच विचार वाला प्राणी भर होता है। अंतराल की गहराइयों में दिव्य क्षमताओं, शक्तियों का जो खजाना दबा छिपा है वह प्रकाश में नहीं आता। परिणाम स्वरूप इस अमूल्य धन के रहते भी वह उस क्षेत्र में निर्धन कंगाल सी जिंदगी गुजारता रहता है।

अध्यात्म की वैज्ञानिक प्रणाली इस स्थिति से आगे बढ़ने और स्वयं में निहित महानता को उजागर करने का मार्ग सुझाती है। यों तो इसके लिए बताई गई तकनीकों की संख्या सैकड़ों हजारों में हैं, पर सामान्य जन इसमें से जप, ध्यान प्राणायाम आदि उपचारों से थोड़ा बहुत परिचित हैं। यद्यपि इनमें हर एक के कई कई प्रकार हैं। व्यक्ति की स्थिति के अनुरूप इनमें से किसी उपयुक्त प्रकार का आलम्बन मन को एकाग्र स्थिति में ले जा सकता है। सारे अन्वेषण महत्वपूर्ण कार्य इसी स्थिति में संपन्न होते हैं। विभूतियों, महानताओं का दरवाजा इसी दशा में खुलना शुरू होता हैं। इस तत्व को स्पष्ट करते हुए स्वामी विवेकानन्द का कहना है कि संसार का हर महान व्यक्ति किसी न किसी रूप में आध्यात्मिक रहा है, भले ही वह इसके बारे में स्वयं पूरी तरह अवगत न हो।

आध्यात्मिकता और महानता परस्पर समानुपाती हैं। एक जितनी मात्रा में आयेगा दूसरा भी उतनी ही मात्रा में पनपेगा। बढ़ी हुई एकाग्रता पवित्रता के साथ मिलकर एक नया सोपान पाती है निरुद्ध अवस्था का। यह मनुष्य की महान स्थिति है। अंतराल के इसी विकास को उपलब्ध कर वह मानव से महामानव बनता है।

सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डॉ. इन्द्रसेन ने अपने शोध अध्ययन “इन्टीग्रल साइकोलॉजी” में “अध्यात्म विज्ञान को पूर्ण मनोविज्ञान का नाम दिया है। तथ्यतः यह बात ठीक भी है। मनो विज्ञान की पूर्णता और अध्यात्म की वैज्ञानिकता इसी बिंदु पर आकर मिलती हैं। विभिन्न प्रयोगों द्वारा इसके परिणामों को जाँचा-परखा और खरा पाया गया है। इस विज्ञान का व्यापक स्तर पर प्रसार ही व्यक्तिगत स्तर पर मनुष्य में देवत्व का उदय और समाजिक स्तर पर धरती पर स्वर्ग के अवतरण में सहायक सिद्ध हो सकेगा।

मानवीय चेतना के परिष्कार और उसके महामानव स्तर तक के उन्नयन का ठीक और सही समय यही है। इस तरह से ढले व गढ़े हुए व्यक्ति प्रारम्भ में संख्या की दृष्टि से कम हों तो कोई बात नहीं। बुद्ध अरविंद जैसे महामानव पहले भी कम ही हुए हैं, पर उन्होंने अपनी महानता के बल पर अनेकों को दिशा दी। ऋषि युग में मूर्धन्य सप्त ऋषियों की ही गणना की गयी, पर यह नहीं समझना चाहिए कि उनके अलावा और उच्चस्तरीय प्रतिभाएँ तब नहीं थीं। इन दिनों भी जरूरत भी इसी बात की है कि मानवी गरिमा को निष्कृष्टता के दलदल से उबारा तथा आत्मिक दृष्टि से उच्च शिखर तक पहुँचा दिया जाय।

हम सभी के अंतराल में दिव्य क्षमताओं का खजाना भरा पड़ा है। इसे निकालने के लिए स्वयं के जीवन में अध्यात्म मनोविज्ञान को अविच्छिन्न रूप से समाविष्ट करना होगा। ऐसा करने पर क्राँतिकारी परिवर्तन होने संभव नहीं सरल भी हैं। यदि हम इस उच्चतम मनोविज्ञान की तकनीकों का अवलम्बन लेकर स्वयं की चेतना को परिष्कृत करने के निमित्त तत्पर हो सकें, गुण, कर्म, स्वभाव को अपनी गरिमा के अनुरूप ढाल सकें, तो जीवन उत्कृष्ट, समुन्नत, प्रखर बन सकेगा यही देवत्व है। इन विशेषताओं और विभूतियों से मानवी अंतराल भरा पड़ा है। उसे निखारने व उभारने भर की जरूरत है। अध्यात्म की वैज्ञानिक तकनीकों द्वारा इसे सरलतापूर्वक संपन्न कर सकना हम में से प्रत्येक के लिए संभव है।


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