धर्मो रक्षति रक्षितः

December 1991

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अविनीत-सुनने वाले की भौहों पर बल पड़ गये माथे की रेखायें कुछ गहरी हुई। स्वर का कसैलापन झलकता पर अन्य कोई उपाय भी तो नहीं। कुछ बुदबुदाते हुए उसने एक ओर कदम बढ़ाये। शब्द अस्फुट और अस्पष्ट भले हो किन्तु उसके चेहरे से यही लग रहा था कि जैसे वह कह रहा हो धार्मिकों के इस महानगर में यह आध्यात्म कहाँ से आ गया? पर विवशता थी कि उसके बिना किसी का काम भी नहीं चलता।

उसका यह महानगर अब तो गहरे शोध प्रयत्नों का विषय बन चुका है। लेकिन इस सत्य को भौतिक विज्ञान में भूतत्व विशेषज्ञ या प्राणी विज्ञान के विशारद एक मत से स्वीकार कर चुके हैं कि पृथ्वी की केन्द्र से च्युति से पहले उत्तर दक्षिण दोनों ध्रुव प्रदेशों में मनुष्य सुख पूर्वक रहते थे। इसी दक्षिणी ध्रुव प्रदेश में एक महाद्वीप था अंतःकारिक जिसे अण्टार्कटिका कहते हैं इसी के एक महानगर की बात है यह, जिसे अंतःसालिक नाम से जाना जाता था।

यों अभी इस क्षेत्र में अनेकों रहस्य हैं। इनमें से कुछ को आधुनिक अन्वेषकों ने भी स्वीकारा हैं। जैसे वहाँ प्रत्येक वस्तु में दाहिने घूमने की विशेष प्रवृत्ति हैं। आँधियाँ दक्षिणावर्त्त चलती हैं, वहाँ के पक्षी बाँये से दाहिने मण्डलाकार चलते हैं। प्रकृति की यह शक्ति मन पर भी अनेकों प्रभाव डालती है। मन बहुत कम बाहरी दृश्यों, कार्यों में रस ले पाता है। स्वभाव से चुपचाप बैठने और अंतर्मुख होने का जी करता है यहाँ।

जहाँ प्रकृति स्वयं अंतर्मुख होने में सहायक है, मनुष्य एकाग्रता प्राप्त करने के अनेक साधनों को जीवन में उतार ले इसमें आश्चर्य की बात क्या? महाद्वीप के प्रत्येक नगर में बहुत कम कोलाहल था। राहों पर बहुत जरूरी होने पर भी कोई निकलता था। जीवन बहुत सादा और परिग्रह रहित।

कोई कान बंद किये दोनों कानों में गुटिका लगाये बैठा है। अनहद के माधुर्य के सामने जगत के सारे रस उसे फीके लग रहे हैं। कोई जिह्वा का दोहन छेदन कर उसे कण्ठ छिद्र से दबाये गगन गुफा से झरते रस के आस्वादन में मग्न है। इस स्वभाव का विचित्र परिणाम यह हुआ कि लोगों में बोलने की प्रवृत्ति नहीं रह गयी, सुनने के लिए तो जैसे किसी को अवकाश ही न था।

बस पूरे अंतःसालिक नगर में अगर कोई अपवाद था तो बस अविनीत। जहाँ प्रत्येक व्यक्ति को अपनी अंतर्मुखता के प्रयत्नों, उपलब्धियों और अपने धार्मिक होने का गर्व था। वही रहकर उसने कभी अंतर्मुख होने की कोई चेष्टा नहीं की। किसी के टोकने पर वह हँस कर बोल पड़ता। क्या परमात्मा तुम्हारे इसी हाड़ माँस के पिटारे में कैद हैं? बाहर की दुनिया में उसका अभाव है क्या? सुनने वाले का चिढ़ना सहज था। लेकिन सबको उचित सम्मान देता था वह, शायद उनके धार्मिक होने के नाते।

“मेरा पशु कीचड़ में फँस गया हैं। मैं अकेले उसे नहीं निकाल पाऊँगा। यदि आप चलते।”

वह शायद विनय के कुछ और शब्द कहता तभी कानों में यह नाम पड़ा “अविनीत”। मन ही मन झुंझलाकर रह गया लेकिन कहने वाला सहज ढंग से कह रहा था मेरे संध्याकालीन कृत्य का समय है। नियम को भंग करना असंभव हैं आप उसी को ढूँढ़ लें। अब विवशता वश इस अधार्मिक व्यक्ति से आश्रय लेना ही था।

मैं बीमार हूँ, बच्चा बहुत कष्ट में हैं। चिकित्सक को बुला देने की कृपा करेंगे आप। एक रोगी पड़ोसी से प्रार्थना करने के अलावा और कर भी क्या सकता है?

मैं अर्चन में बैठने जा रहा हूँ। आराधना में व्यतिक्रम अभीष्ट नहीं। आप राह पर नजर रखें अविनीत आता होगा इधर से। उत्तर अप्रिय अवश्य है किन्तु प्रार्थना करने वाले को मालूम है कि इस परिस्थिति में उसका उत्तर भी यही होता।

‘अविनीत’ इस शब्द के उच्चारण के साथ हर एक के मन में उपेक्षा, तिरस्कार, फटकार के भाव घुल जाते हैं। आखिर वह अधार्मिक जो है। पर वही एक आश्रय भी हैं इन विपत्ति में पड़े लोगों का। वह किसी के लिए औषधि लाने दौड़ रहा है और किसी के लिए चिकित्सक बुलाने। किसी का खोया पशु उसे ढूँढ़ना है अथवा किसी के प्रिय जन तक संदेश पहुँचा देना है। बनावट कृत्रिमता संकोच उसमें नाम का नहीं। सबके कार्य करके, सबकी सहायता करके, सबसे भिन्न रीति से रहने वाला यह अविनीत बड़ा विचित्र है। सभी कहते है साँसारिक है यह। कोई अंतर्मुख होने का साधन उसने नहीं अपनाया। उससे सेवा चाहें कितनी लोग लें, समाज में तिरस्कृत उपेक्षणीय ही है वह।

अचानक एक रात वह चौंक कर उठा। काफी कोशिश के बाद अपने गोल भवन का दरवाजा खोलने में समर्थ हुआ। बाहर उसने जो कुछ देखा उसे देख कर फूट-फूट कर रोया।

उसे अपने आस पास कुछ नहीं दिख रहा था। कोई भवन, कोई मार्ग, कोई जीवन चिह्न शेष नहीं थे। पृथ्वी की केन्द्र च्युति हुई है यह कौन बतलाता। संपूर्ण सृष्टि पर श्वेत अंधकार छाया दिख रहा था। काले अंधकार से कहीं अधिक भयानक था यह सफेद अंधेरा।

एक रात में समूचा अंतःकारिक द्वीप आज के अण्टार्कटिका में बदल गया था। पूरी रात में कितना हिमपात हुआ, जानने का कोई साधन नहीं था, कदम बढ़ाते ही अविनीत कमर तक कोमल बर्फ में धंस गया। कठिनाई से निकला लेकिन अब तक भवन का द्वार भी हिम के गर्भ में अदृश्य हो चुका था, जिसमें से अभी वह बाहर आया था।

वह सिर पकड़कर बैठ गया और रोता रहा। उसकी आंखों के सामने धुँधलका गहराता गया। लगा उसका शरीर ही नहीं मन, विचार शक्ति समूची चेतना एक गहरे अँधेरे में विलीन होती जा रही है।

उठो वत्स! पता नहीं कितनी देर के बाद उसे एक कोमल स्पर्श का आभास हुआ। आभास या सत्य? उसने बड़ी कठिनाई से आंखें खोली- सारा शरीर अभी भी थकान से चूर था। उसे अनुभव हुआ कि उसका शरीर किसी की गोद में है, किसकी? यह सोच पाये इससे पहले एक बेहोशी उसे पुनः दबाने लगी।

सिर पर स्नेह भरी थपकी देने वाले महापुरुष के प्रयत्न उसे होश में लाये। अब वह चैतन्य था। काफी देर बाद यह विश्वास कर सका वह मरा नहीं बल्कि जीवित है और यह हिमाच्छादित प्राँत अंतःकारिक द्वीप नहीं -बल्कि हिमालय है- और यह महापुरुष अध्यात्म के इस ध्रुव केंद्र में रहने वाली सिद्ध मण्डली के सदस्य परम सिद्ध कन्हैया हैं।

लेकिन स्वस्थ होते ही उसका मन पुनः चिंता से घिर गया। सामने बैठे महापुरुष ने कारण पूछा उनके स्वर में पर्याप्त वात्सल्य था।

“वह पूरा महादेश धार्मिक था। धर्म को जो धारण करता है, धर्म उसे धारण करता है।” किसी समय माता से सुने वचनों को स्मरण कर वह कह रहा था “धर्म ने वहाँ के धार्मिक लोगों का धारण रक्षण क्यों नहीं किया?”

“किया तो अवश्य पर धार्मिक का, उनका नहीं जिन्हें अपनी धार्मिकता पर दम्भ था।” महासिद्ध के होठों पर रहस्य पूर्ण मुस्कान थिरक रही थी।

“मैं और धार्मिक?” उसे इस विकट परिस्थिति में भी हँसी आ गई। हँसी थमने पर उसने उन कृपा पुरुष की ओर देखा।

“उन परम सिद्ध की आँखों से अभी भी स्नेह झर रहा है। अविनीत को संबोधित कर वे बोले वे सभी दया के पात्र थे वत्स। उनके साधनों की भीड़ में साध्य कही खो गया था। काश वे जान सके होते अपनी छलमयी झूठी तपस्या के बारे में। साधना धार्मिकता की और बढ़ चलने के प्रचण्ड पुरुषार्थ का नाम है पुत्र। महा सिद्ध एक क्षण के लिए रुके दूसरे ही क्षण उनकी वाणी का प्रवाह हिमसरिता के समान बह चला और धार्मिकता है संवेदनशीलता का चरमोत्कर्ष। इसकी प्राप्ति के लिए एक ही साधना है दूसरों की शाँति के लिए अशाँत होना, अपने आप को दलित द्राक्षा की भाँति निचोड़ कर महाअज्ञात के चरणों में उड़ेल देना। तुम इस साधना में सिद्ध हुए हो। तुम्हारी धार्मिकता के कारण उस महाअज्ञात की प्रेरणा मुझे तुम्हारे पास ले गई और आज तुम यहाँ सिद्धों की मण्डली के सदस्य हो।

अविनीत आश्चर्य से सब कुछ सुन रहा था, धर्म और साधना के गूढ़ तत्व उसे प्रत्यक्ष हो रहे थे। तभी हिमालय के स्वेत धुँधलके से कुछ छायाएँ उभरीं जो पास आकर प्रत्यक्ष हो गयी, सभी दिव्य ऋषि सत्ताएँ थी जिनका सान्निध्य उसे प्राप्त हो रहा था। सामने योजनों तक रुई की तरह बर्फ का साम्राज्य था।

अविनीत अभी भी अपनी सिद्ध देह से हिमालय के अदृश्य परिकर में रहने वाले कारक पुरुषों के साथ रहते हैं। सिद्ध समाज में उनका नाम अब अविनीतप्पा लिया जाता हैं। मादाम ब्लावतास्की जैसे अधिकारियों ने उनके दर्शन किये हैं। यह सुलभता उनके लिए भी होना संभव है जिन्होंने उन्हीं की भाँति धर्म-साधना को समझा हो।


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