इच्छाशक्ति की महिमा

December 1991

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

इच्छाएँ अनन्त हैं- यह सत्य है, पर यह भी मिथ्या नहीं कि यदि इच्छाएँ नहीं होती, तो मनुष्य आज भी पाषाण कालीन आदिम युग में पड़ा रहता। आज जो उसकी स्थिति है, वह उसकी इच्छा के कारण ही है, और आने वाले समय में जो उसकी दिव्यता प्रकट होने वाली है, वह भी उसी की इच्छा के कारण होगी। मनुष्य चाहें तो अपनी इच्छा के पतन पराभव के गर्त में गिर सकता है। सब कुछ उसकी अपनी इच्छाओं का ही खेल है।

यह सारा संसार भी इच्छाओं का ही मूर्त रूप है। एक मात्र ईश्वर की इच्छा का ही स्फुरण है। अनन्त हैं आनन्द के केन्द्र परमात्मा के हृदय में एक भावना उठी- “एकोऽहं बहुस्यामि” और इसी के मूर्तिमान रूप यह मंगलमय संसार बनकर तैयार हो गया। अपनी इच्छा शक्ति से उसने मनुष्य सहित संपूर्ण चराचर की सृष्टि कर दी और मनुष्य को विविध शक्तियों से संपन्न कर उसके कर्तव्य का खेल देखने के लिए स्वयँ उसकी हृदय गुहा में अवस्थित हो गया, साथ ही उसे क्रिया शील बनाने के लिए इच्छाओं के साथ सुख दुख का द्वन्द देकर संचालित कर दिया। इस तरह मनुष्य जो भी कुछ करता धरता है, उसके मूल में इच्छाशक्ति ही प्रधान रहती है।

प्रख्यात जर्मन दार्शनिक आर्थर शॉपेनहावर ने अपने प्रमुख ग्रंथ “द वर्ल्ड ऐज विल एण्ड आइडिया” अर्थात् ‘संकल्प और भावरूप में जगत’ उक्त तथ्य का प्रतिपादन करते हुए कहा है कि संसार एवं उसकी समस्त जड़ चेतन वस्तुओं, प्राणियों में इच्छाशक्ति की प्रबलता ही देखी जाती है। इच्छा, प्रयत्न, भावना अभिलाषा, आकाँक्षा सबके सब इसी के रूपांतरण हैं। एक तत्व दूसरे तत्व से इसी शक्ति से मिलता आकर्षित होता है। उनके अनुसार मानवी काया के निर्माण से पूर्व भी इच्छा शक्ति विद्यमान थी और उसी से प्रेरित होकर शरीर का निर्माण हुआ है। आत्मा की जैसी इच्छा होती है, वैसे ही शरीर में परिवर्तन होते आये हैं। काया के निर्माण में समग्र रूप में इसी शक्ति को सक्रिय देखा जाता है। उन्होंने मनुष्य को “आध्यात्मिक प्राणी” कहा है और स्पष्ट किया है कि आत्मिकी का आश्रय लेकर चाहे तो वह अपनी इच्छाशक्ति को परिष्कृत कर देवमानव, महामानव स्तर तक विकसित हो सकता है। किन्तु अन्य प्राणियों के साथ अध्यात्म विद्या का कोई संबंध न होने के कारण वह वैसा नहीं कर पाते। मनुष्य की विवेक बुद्धि साथ दे तो वह इच्छा शक्ति के आधार पर मृत्यु पर भी विजय प्राप्त कर सकता है। कारण इच्छा आकाँक्षा का नियंत्रण विवेक द्वारा ही होता है।

मनुष्य इच्छाएँ करें, यह उचित नहीं आवश्यक भी है। इसके बिना प्राणी जगत निश्चेष्ट एवं जड़वत् लगने लगेगा, किन्तु इसका एक विषाक्त पहलू भी है। ओर वह है इनकी अति और इनका अनुचित स्तर का होना। मनुष्य जीवन को क्लेशकारी, कष्टदायक परिणामों की ओर ले जाने में अति और अनुचित इच्छाओं का प्रमुख हाथ है। स्वामी रामतीर्थ का कथन है। “मनुष्य के भय और चिंताओं का कारण उसकी अपनी इच्छाएँ है। इच्छाओं की प्यास कभी पूर्ण रूप से संतुष्ट नहीं हो पाती।” उत्तराध्ययन 9/48 एवं आचारंग सूत्र 1/2/5 में भी यही कहा गया है कि इच्छाएँ आकाश के समान हैं। उन पर विजय पाना मुश्किल है। बात भी ऐसी ही है। आज जो हम सोचते हैं, उसके पूर्ण हो जाने पर अन्य अनेकों कामनाएँ उठ खड़ी होती हैं। यह वह आग है जो तृप्ति की आहुति से और प्रखर हो उठती है। एक पर एक अनियंत्रित इच्छाएँ यदि मन में उठती रहें तो मानव जीवन नारकीय यंत्रणाओं से भर जाता है।

मनुष्य इस धरती पर एक महान लक्ष्य लेकर अवतरित हुआ है। और उसी के अनुरूप उसे सदिच्छाओं को बलवती बनाना है। सुखी रहने और समुन्नत बनने का यही राजमार्ग है। वेदव्यास महाभारत शाँतिपर्व 177/48 में कहते हैं कि मनुष्य जिन जिन इच्छाओं को छोड़ देता है उस उस ओर से सुखी हो जाता है। यदि इच्छा अभिलाषा की दिशा को भोग से मोक्ष की ओर, स्व से पर की ओर अथवा पीड़ा, पतन निवारण की ओर मोड़ा जा सके, तो स्वर्गीय आनन्द का अहर्निशि रसास्वादन किया जा सकता है। संभवतः इसलिए दक्षिण के महान संत तिरुवल्लुवर ने अपनी कीर्ति ‘तिरुक्कुरल’ में लिखा है कि योगी वही हैं जो साँसारिक इच्छाओं को वशवर्ती कर, औरों की हित कामना में रत हो जाय। परमार्थ ही जिनकी वृति है, उन महामानवों में सदैव दुखों से पीड़ा से संतप्त प्राणियों के कष्ट निवारण की भाव भरी सदिच्छा ही कार्यरत देखी जाती है। इसीलिए तो वे अभिनन्दनीय, अभिवंदनीय होकर इतिहास पुरुष बन जाते हैं।

मधु-संचय


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles